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Friday, 18 March 2022

अल्लीपुर हरदोई से नैमीषारण्य, 52वां शक्तिपीठ मां ललिता देवी भाग 7 नीलम भागी


अब हमें नैमिषारण्य के लिए निकलना था। केमिस्ट्री लेक्चर सिद्धार्थ  मिश्रा जी से गाड़ी का इंतजाम करने को कहा। वे बोले,’’आप खाना खाइये उसके बाद चाय कॉफी पीजिए, तब तक गाड़ी आ जायेगी। हरदोई से अल्लीपुर 16 किमी दूर है। गाड़ियां हरदोई से ही आतीं हैं। अल्लीपुर से आपको नैमिषारण्य 52 किमी दूर पड़ेगा।’’ 2200 रू में गाड़ी आई जिसमें मैं, अक्षय अग्रवाल जी, सुनीता बुग्गा और उनके पति जी बैठे। दो सीट खाली गईं। इससे पूछ, उससे पूछ के चक्कर में समय लग जाता इसलिए हम चल दिए क्योंकि मुझे अपनी आदत पता कि नैमिषारण्य में मुझसे देर होनी ही थी। हरे भरे खेतों से हरदोई, जहां से होते हुए हम सीतापुर की ओर चल दिए।

अच्छी बनी सड़क दोनों ओर पेड़ों से छती होने के कारण रास्ते की सुन्दरता बढ़ रही थी। दूर से ऐसा लगता जैसे हम पेड़ों की गुफा के अंदर प्रवेश कर रहे हैं।

ड्राइवर उस्मान गोमती पार करते ही जो वह जानता था, वह बताता जा रहा था। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होने वाली विश्व प्रसिद्ध 84 कोसी(252किमी)  नैमिषारण्य परिक्रमा चक्रतीर्थ या गोमती नदी में स्नान करके गजानन को लडडू का भोग लगा कर यात्रा शुरु करते हैं। रोज आठ कोस पैदल चलते हैं। 15 दिन तक ये यात्रा चलती है। महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियां दान देने से पहले तीर्थो का दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। इंद्र ने सभी तीर्थों को नैमिषारण्य में 5 कोस की परिधी में आमंत्रित कर स्थापित किया। महर्षि दधीचि ने सबके दर्शन करके शरीर का त्याग किया था। दूर दूर से श्रद्धालू परिक्रमा करने आते हैं। यात्रा में लोगों का प्यार और सहयोग बहुत मिलता है। भंडारा, चाय और पीने के पानी की व्यवस्था रहती है। बागों में रुकते हैं। कुछ यात्री अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। परिक्रमा में वे पेड़ पौधों को नुकसान नहीं पहुंचाते, न लड़ते झगड़ते, न ही किसी की निंदा करते हैं। भजन कीर्तन चलता रहता है। उन दिनों उसे जरा फुर्सत नहीं मिलती।   


फाल्गुन मास की पूर्णिमा को यात्रा सम्पन्न होती है। और.... 

गाड़ी ललिता देवी मंदिर के सामने रोक कर बोला,’’जूते गाड़ी में उतार दीजिए।’’ कड़ाके की ठंड थी हम जुराबों के साथ चल दिए।


 52वां शक्तिपीठ मां ललिता देवी के नाम से जाना जाता है। एक बार दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया। जिसमें भगवान शिव व सती को नहीं बुलाया क्योंकि वे शिव को अपने बराबर नहीं समझते थे।। सती बिना निमंत्रण के वहां गई। जहां वे अपनेे पति का अपमान नहीं सह पाईं और यज्ञ कुंड में कूद गईं। शिवजी को जैसे ही पता चला उन्होंने यज्ञ कुंड से सती को निकाला और वे तांडव करने लगे। ब्रह्माडं में हाहाकार मच गया। विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सति के शरीर को 51 भागों में अलग किया। जो भाग जहां गिरा वह शक्तिपीठ बन गया। 51 शक्तिपीठ है। मां का 52वां भाग नैमिषारण्य में गिरा। जाकि हृदय भाग था। इस शक्तिपीठ में स्थापित देवी को त्रिपुर सुन्दरी, राज राजेश्वरी और ललिता मां के रूप में जाना जाता है।  यहां श्रद्धालु जो भी मनोकामना लेकर आता है, मां उसे खाली हाथ नहीं भेजती और सभी की मनोकामनाएं पूरी होतीं हैं। यह माता ललिता  देवी का प्रसिद्ध धाम है। यहां भक्त मन्नत का धागा बांध कर जाते हैं। मन्नत पूरी होने पर वह धागा खोलने आते हैं। इस शक्तिपीठ पर पूरे साल श्रद्धालुओं के दर्शन पूजन का क्रम बना रहता है। मैं दिसम्बर में गई थी अभी कोरोना का कुछ असर था यानि गया नहीं था। तब भी दर्शनार्थी कम न थे। नवरात्रों में तो भक्तों की संख्या में कई गुना इजा़फा हो जाता है। यहां बंदर खूब थे। गर्भ ग्रह से बाहर धूनी जलती रहती है। 


 

जानकी कुण्ड तीर्थ  ललिता देवी से ईशान कोण में थोड़ी ही दूर जानकी कुण्ड है। यहां पर भगवती सीता पृथ्वी को साक्षी कर धरती माँ की गोद में समा गईं। यह स्थान जहाँ माँ भगवती सीता जी परीक्षा देती हुई भूमि में प्रविष्ट हुई वह जलकुण्ड के रूप में विद्यमान है। दर्शनों के बाद हम गाड़ी में बैठे और चक्रतीर्थ की ओेर चल दिए। क्रमशः


Thursday, 17 March 2022

अखिल भारतीय साहित्य परिषद के 16वें अधिवेशन का समापन भाग 6 हरदोई नीलम भागी


अधिवेशन के समापन सत्र का संबोधन करते हुए अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री श्रीधर पराडकर ने कहा कि भारत की परंपरा व संस्कृति के अनुरूप साहित्य का लेखन होना चाहिए। साहित्य परिषद् साहित्य जगत का संपूर्ण वातावरण बदलने के लिए काम करती है। उन्होंने कहा कि हमें केवल साहित्य कार्यक्रम नहीं करना है। साहित्य में जो विकृति जानबूझ कर लाई गई है उसके स्थान पर हमें सुकृति लानी है। श्री पराडकर ने कहा कि जब हम गहन अध्ययन करेंगे, तभी अच्छे साहित्य की रचना कर पायेंगे।

  साहित्य परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री श्री ऋषि कुमार मिश्र ने प्रतिवेदन करते हुए कहा कि विगत चार वर्ष परिषद् के विस्तार और साहित्यिक समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण रहे। कोरोना के प्रकोप के कारण जब प्रत्यक्ष काम संभव नहीं था उस समय हमारी लोक भाषाएं, हमारी लोक यात्राएं और हमारे लोक देवी देवताओं विषयों पर 350 स्थानों पर आभासी माध्यम से संगोष्ठियों का आयोजन हुआ।

  इस अधिवेशन में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के पूर्व राष्टीªय अध्यक्ष डॉ. बलवंत भाई जानी, वरिष्ठ साहित्यकार श्री देवेन्द्र चन्द्र दास, महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. संजीव शर्मा, ’साहित्य परिक्रमा’ के संपादक डॉ. इन्दुशेखर तत्पुरुष, श्री अभिराम भट्ट, डॉ. राम सनेही लाल, डॉ. जनार्दन यादव, डॉ. आशा तिवारी सहित अनेक साहित्यकारों की सहभागिता उल्लेखनीय रही।

पुस्तक प्रदर्शनी आयोजित की गई।

महान कवि स्व. श्यामनारायण पाण्डेय की पत्नी श्रीमती रमावती पाण्डेय को  सम्मानित किया गया।

जिस सभागार में यह अधिवेशन चल रहा था उस सभागार का नाम ’’अमर बलिदानी शहीद स्व. मेजर पंकज पाण्डेय’’ के नाम पर रखा गया है। जैसे ही उनके पिता ’श्री अवधेश पाण्डेय को सम्मानित करने के लिये आमंत्रित किया, उनके कुर्सी से उठते ही सभागार में सब खड़े होकर, तालियां बजाते रहे। कोई भी एक शब्द नहीं बोल रहा था, न ही मंच से, तालियों की आवाज़ ही मन के उद्गार बयान कर रहीं थी। इतनी तालियां दो दिन के अधिवेशन में नहीं बजीं, जितनी इस समय बज रहीं थीं। लिखते समय भी वो भाव मन पर छाता जा रहा है। निःशब्द उनका सम्मान होता जा रहा था। जब उन्होंने अपना स्थान ग्रहण किया। तब साहित्यकार अपनी आंखें पोछते हुए बैठै।  

इस अधिवेशन में दो प्रस्ताव    राजभाषा का प्रयोग और सरकारी अभिलेखों में 

इंडिया के स्थान पर भारत लिखे जाएं- पारित किए।

अधिवेशन में साहित्य परिषद् की वेबसाइट का लोकार्पण हुआ।

डॉ. सुशील चन्द्र त्रिवेदी ’मधुपेश’ बने साहित्य परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष’

हरदोई के अल्लीपुर निवासी शिक्षाविद् व साहित्यकार डॉ. सुशील चन्द्र त्रिवेदी ’मधुपेश’ को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। डॉ. त्रिवेदी अभी तक साहित्य परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। श्री ऋषि कुमार मिश्रा को पुनः राष्ट्रीय महामंत्री एवं परिषद् के प्रदेश महामंत्री रहे डॉ. पवनपुत्र बादल को राष्ट्रीय संयुक्त महामंत्री बनाया गया। डॉ. साधना, श्री दिनेश प्रताप सिंह एवं प्रो. नीलम राठी को राष्ट्रीय मंत्री नियुक्त किया गया। समापन पर अति स्वादिष्ट भोजन था। जिन्होंने लौटना था उनके लिए रास्ते के लिए खाने के पैकेट थे। गंगाजल भी दिया जा रहा था


गाड़ियां उन्हें स्टेशन, बस अड्डा और हवाई अड्डे पर छोड़ने जा रहीं थीं। पर्यटन के लिए दिए गए नम्बरों से संपर्क कर रहे थे। क्रमशः   







Wednesday, 16 March 2022

अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 16वां राष्ट्रीय अधिवेशन हरदोई की झलकियां भाग 5 नीलम भागी


 पानी से भरे गढ्डे पर रस्सा लटक रहा था। मैं देख रही थी, कुछ साहित्यकार रस्सा पकड़ कर लाँग जम्प लगा रहे थे। कोई कोई जंप लगाते हुए पानी में भी गिर जाता था। फिर ठंड से दांत किटकिटाते हुए बाहर आते और बाकियों का मनोरंजन होता। मैंने जैसे ही गढ्डा कूदने के पोज़ में रस्सा पकड़ा, दो सज्जन मुझे समझाने दौड़े, बाकि उत्सुकता से दूर से देखने लगे कि क्या मैं लांग जंप से छोटा ताल पार कर लूंगी!! पर जैसे ही मेरी फोटो खिच गई। मैं अगले खेल पर चल दी। मनोरंजन के साथ साथ तन और मन के स्वास्थ के लिए जो उपलब्ध है, उन साधनों से कई तरह के खेल बना रखे थे।





जब भी सत्र के बीच में ब्रेक मिलता, हम वहां पहुंच जाते। बड़ी हैरानी होती यह देख कर कि आज खेलों में धन और सम्मान दोनों ही उपलब्ध है। जिसके लिए महानगरों में बच्चों को बचपन से ही कोचिंग दी जाती है। यहां बने खुले में व्यायाम के साधनों से शारीरिक विकास, चुस्ती फुर्ती के साथ मनोरंजन भी होता है। मुझे तो लगता है जो बच्चा इन खेलों में परांगत है। वह टैक्नीक समझते ही खेल प्रतियोगिता में बहुत आगे जा सकता है।

 चारों ओर लहलहाते खेत थे। बीच में #डॉ. राममनोहर लोहिया महाविद्यालय अल्लीपुर हरदोई  का भवन है जिसके प्रांगण में बड़ी मेहनत से ग्रामीण जीवन शैली दर्शायी गई थी। जिसे हम गन्ना भी चूपते हुए जी रहे थे।


पर्ण कुटी के आगे खुले में चूल्हा, महानगर के फ्लैट में जिसे ओपन किचन कहते हैं। पर यहां चूल्हे के आस पास बैठ कर भोजन का आनन्द लिया जाता है। चक्की पीसना, पशुओं का मिट्टी का बाडा, चौपाल, कुंआ, मिट्टी के बर्तन बनाने का चाक  आदि सब कुछ बनाया था। कुटिया की दीवारों पर चित्रकारी भी की गई थी।





जगह जगह अलाव जल रहे थे। इस विकसित गांव में ट्रैक्टर भी था।



शाम की चाय में हाट लगाया गया था। मैं मचान को देख रही थी और सोच रही थी कि इस पर रस्सी की सीढ़ी से कैसे चढ़ते होंगे! एक कवि जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा उन्होंने अपने साथियों  को बताते हुए चार लाइने पढ़ी। मै अपने नाम से पढ़ देती हूं

कोई मकान दिखाती है,

कोई दुकान दिखाती है।

नीलम भागी आपको मचान दिखाती है।

 अधिवेशन ग्रामीण परिवेश में पर्यावरण के अनूुकूल था। स्वदेशी भाव से सभी व्यवस्थाएं थीं। देश के सभी प्रांतों से आए प्रतिनिधियों के रुकने के लिए पर्णकुटीर का निर्माण किया गया था। जिसमें चारपाई, लालटेन रखी गई थी। स्वादिस्ट भोजन का स्वाद केले के पत्तों और मिट्टी के बर्तनों लिया। पुस्तकों का विमोचन हुआ और पुस्तक प्रर्दशनी आयोजित की गई। सास्कृतिक कार्यक्रमों में बुंदेलखण्ड के लोक गीत, लोक नृत्य का प्रदर्शन किया गया। जिसका कास्ट्यूम डिजाइन सराहनीय था। कठपुतली द्वारा अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का बहुत अच्छा वर्णन किया गया। 



   अधिवेशन का एक आर्कषण अखिल भारतीय भाषा कवि सम्मेलन होता है। इस बार की विशेषता थी ’57 कवियों मे 23 कवि अहिंदी भाषा के थे।" देर रात्रि तक चलने वाले कवि सम्मेलन का संचालन सुप्रसिद्ध कवि साहित्यकार श्री प्रवीण आर्य ने किया। क्रमशः           

Saturday, 12 March 2022

सुन गौरां तेरे मायके का हाल, तेरी मां है कंगाल, तेरा बाप है कंगाल। नीलम भागी Utsav Manthan Neelam Bhagi

           


  मैं भी बहुत लंबी लाइन जो महाशिवरात्रि को मंदिर में लगी थी, उसमें जाकर लग गई। शिवरात्रि जिसे हमारे यहां बसंत के आने से भी जोड़ा जाता है। लोटे में पानी या दूध, बेलपत्र चावल, बेर आदि फल, धतूरे के फूल लेकर व्रती पूजा की प्रतीक्षा में खड़े थे। धीरे धीरे लाइन चल रही थी और मेरे दिमाग में विचार भी चल रहे थे। बारह ज्योर्तिलिंग जो पूजा के लिए भगवान शिव के पवित्र स्थल और केन्द्र हैं। वे स्वयंभू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है स्वयं उत्पन्न। इनमें से जहां भी गई, वहां एक वाक्य सुनने को मिला कि शिवरात्रि को यहां बहुत भीड़ रहती है। जहां मैं नहीं जा पाई अब उनके लिए दुखी होने लगी क्योंकि यहां जाना भारत को जानना है। फिर मन को समझाया कि मैं कौन सा मरने वाली हूं!! मुझे दर्शनों को जाना है तभी तो मैं कोराना से जंग जीती हूं। अब मेरी मैमोरी रिवर्स होने लगी। दूसरी लहर का प्रभाव कम हो रहा था और मैं भी स्वस्थ हो रही थी। दो साल से मेरी यात्रा बंद थी। अब व्हाटसअप पर यात्रा का मैसेज देखा, दिए नम्बर पर फोन किया वो बोले,’’हम आपको जानते हैं। मैं चल दी। छ बसे जा रहीं थीं, यहां मैं किसी को नहीं जानती थी। पर कुछ ही समय में ये शिवजी के भक्त मेरे एक बड़े परिवार की तरह हो गए थे।

  यात्रा में मेरा जाने का एक उसूल है ’’एटीटयूड घर में रख कर जाओ, जरुरी सामान ले जाना भूल न जाओ।’’ इस यात्रा में शिवजी का एक ही नाम था ’भोले’  

    शिवखोड़ी पर्वतीय यात्रा का मनमोहक रास्ता समृद्ध प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। कलकल बहते झरने, हर तरह के पेड़ पौधे कोई भी हरे रंग का शेड नहीं बचा था जो इन वनस्पतियों में न हो। सुबह बारिश हो चुकी थी इसलिए पेड़ पौधे नहाए से लग रहे थे। जहां भगवान शंकर जी ने वास किया है वो स्थान क्यों नहीं इतना सुन्दर होगा!! जन्नत ऐसी ही होती होगी!! यहां भोले शिवालिक पर्वतश्रृंखला में परिवार सहित रहे। यही गुफा शिवखोड़ी जम्मू कश्मीर के रयासी जिले में स्थित है। वैसे भी कश्मीर में शिवरात्रि का उत्सव तीन चार दिन पहले से और दो दिन बाद तक मनाया जाता है। मेरी आंखें बस से बाहर गढ़ी हुई थीं। जहां प्रकृति ने इतना सौन्दर्य बिखेर रखा हो!! इन सहयात्रियों को इससे कोई मतलब नही,ं बस भोले की भक्ति में लीन थे। कानों में श्रद्धालुओ के भजन सुनाई दे रहें थे मसलन 

’’सुन गौरां तेरे मायके का हाल, तेरी मां है कंगाल, तेरा बाप है कंगाल।’’ भोले शंकर गौरां के मायके को लेकर ताने मारते ही जा रहें हैं। मायके की बुराई तो कोई महिला नहीं सुनती! आखिर में पार्वती ने ’’काढ़ लिया घूंघट, फूला लिए गाल’’ और रुठ गयीं, फिर भोले ने बड़ी मुश्किल से मनाया।

    यहां भजनों को सुनते हुए शब्दों पर तो कोई बेवकूफ ही जायेगा। सरल भोला भाव, सुर ताल ऐसा कि मैं कभी भी नहीं नाचती पर उस समय मेरा दिल कर रहा था कि मैं भी सबके साथ, चलती बस में उठ कर नाचंू। खड़ताल, मंजीरा, तो मैं ढोलक की थाप के साथ इस यात्रा में बजाना सीख गई थी। मैं जानतीं थी कि ये मेरे सहयात्री, न कवि हैं, न गीतकार हैं, न ही साहित्यिक हैं। जो भी सरल शब्दों में भक्तिभाव से गाते हैं वोे इनके मन के उद्गार थे। जिसमें सबकी श्रद्धा से कोरस मिलने सेे बस के अन्दर अलग सा समां बंध जाता था। हां यदि श्रद्धा मापने का कोई यंत्र होता तो सबका माप एक ही आता। दक्षिण भारत आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के सभी मंदिरों में श्रद्धालुओं की लाइने लगी रहती हैं। उज्जैन में महाकालेश्वर और जबलपुर तिलवाड़ा में जाना अपना सौभाग्य समझा जाता है। भगवान शिव की जटाओं से उनकी पुत्री माँ नर्मदा की उत्पत्ति हुई है। अमरकंटक में घूमते हुए माँ की कहीं भी जलधारा मिल जातीं थीं इसीलिये कहते हैं ’नर्मदा के कंकर सब शिवशंकर।

    ब्ंागलादेश के चंद्रनाथ धाम जो चिटगांव के नाम से प्रसिद्ध है। वहां कहते हैं इस दिन अभिषेक करने से सुयोग्य पति पत्नी मिलते हैं। नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में देश दुनिया से श्रद्धालू पहुंचते हैं।

’शिवरात्रि’ का अर्थ है भगवान शिव की महान रात्रि सभी हमारे हिन्दू उत्सव दिन में मनाये जाते हैं। पर इस पर्व में रात्रि के चारों पहर अभिषेक होता है। एक साधारण इनसान शिव के 28 अवतार, शिवपुराण नहीं जानता, उसे बस ये पता है कि भोलेनाथ बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए जैसा सुनता देखता है, वही उसकी पूजा की विधि बन जाती है। जिसे वह श्रद्धा से करता है और श्रद्धा से बुद्धि को बल मिलता है। तुलसीदास ने भी लिखा है 

शिवद्रोही मम दास कहावा सो नर सपनेहु मोहि नहिं पावा।

   1921 से पूरी दुनिया में 8 मार्च महिला दिवस उत्सव के रुप में मनाया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति प्रेम प्रकट करते हुए महिलाओं के कठिनाइयों के सापेक्ष उपलब्धियों को स्लोगन, भाषण, संदेश, लेखन, शायरी और निबंध द्धारा नागरिकों तक पहुंचाया जाता है।

दुनिया का सबसे बड़ा ’आट्टुकल पोंगाला’ महिला उत्सव अट्टुकल भवानी मंदिर तिरुअनंतपुरम केरल में मनाया जाता है। इन्हीं दिनों मलयालम महिना पंचाग के अनुसार तिथि निकलने पर दस दिन का केरल और तमिलनाडु में उत्सव आट्टुकल पोंगाला मनाया जाता है। ये अपना नाम दुनिया में महिलाओं का सबसे बड़ा जमावड़ा होने के कारण 2009 में गिन्नी बुक ऑफ वर्ड रिकार्ड में दर्ज करवा चुका है। जिसमें 25 लाख महिलाओं ने गुड़, नारियल, केले से पायसम बनाया। इसमें पुरुषों का प्रवेश मना है। कहते हैं ये 1000 साल पहले से मनाया जा रहा है। तमिल महाकाव्य ’सिलप्पथी कारम’ की मुख्य पात्र कन्नकी का यहां अवतार हुआ था। मुख्यदेवी कन्नकी को भद्रकाली के रुप में जाना जाता है। इनका एक नाम ंअटुकलाम्मा है। ऐसी मान्यता है दस दिवसीय उत्सव में देवी अटुकल मंदिर में रहती हैं। इनका जन्म भगवान शिव के तीसरे नेत्र से हुआ है। राजा पांडया पर कन्नकी की जीत का जश्न पोंगाला उत्सव है। इन दिनो तिरुवनंतपुरम उत्सव के रंग में रंग जाता है। श्रद्धा से देवी को आट्टुकाल अम्मा कहते हैं। महिलाएं वहीं पर उनको खीर बना कर अर्पित करती हैं। मंदिर के चारों ओर चूल्हे बने होते हैं। पुजारी मंदिर के गर्भग्रह से पवित्र अग्नि देता है। एक से दूसरा चूल्हा जलता है और वह सब पर फूल और पवित्र जल छिड़क कर आर्शीवाद देता है। यह फसल का पर्व है और इस दस दिवसीय उत्सव में सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते हैं। जिसमें बड़ी संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं।    

फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होने वाली विश्व प्रसिद्ध 84 कोसी(252किमी)  नैमिषारण्य परिक्रमा चक्रतीर्थ या गोमती नदी में स्नान करके गजानन को लडडू का भोग लगा कर यात्रा शुरु करते हैं। रोज आठ कोस पैदल चलते हैं। 15 दिन तक ये यात्रा चलती है। महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियां दान देने से पहले तीर्थो का दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। इंद्र ने सभी तीर्थों को नैमिषारण्य में 5 कोस की परिधी में आमंत्रित कर स्थापित किया। महर्षि दधीचि ने सबके दर्शन करके शरीर का त्याग किया था। दूर दूर से श्रद्धालू परिक्रमा करने आते हैं। यात्रा में लोगों का प्यार और सहयोग बहुत मिलता है। भंडारा, चाय और पीने के पानी की व्यवस्था रहती है। बागों में रुकते हैं। कुछ यात्री अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। परिक्रमा में वे पेड़ पौधों को नुकसान नहीं पहुंचाते, न लड़ते झगड़ते, न ही किसी की निंदा करते हैं। भजन कीर्तन चलता रहता है। मैं जब नैमिषारण्य गई तो कड़ाके की सर्दी थी। मंदिरों में दर्शन करते हुए जरा थकान होने लगती तो मुझे कल्पना में 84 कोसी नैमिषारण्य परिक्रमा करते श्रद्धालु दिखते और मेरी थकान उतर जाती। रामचरितमानस में भी लिखा है


तीरथ वर नैमिष विख्याता, अति पुनीत साधक सिद्धि दाता। 

फाल्गुन मास की पूर्णिमा को यात्रा सम्पन्न होती है। और....


बैर उत्पीड़न की प्रतीक होलिका मुहूर्त पर जलाई जाती है और प्रहलाद यानि आनन्द बचता है जिसे बहुत हर्षोलास से शिव के गण बने, एक दूसरे को शिव के बराती बनाते हैं। शिव की बारात(होली का जुलूस) निकालने के बाद सब नए कपड़े पहन कर एक दूसरे के घर होली मिलने जाते हैं। जिसके लिए महिलाएं तीन चार दिन पहले से मीठे, नमकीन बनाकर तैयारी करती हैं। 18 अगस्त 1982 में जब मैं नौएडा में शिफ्ट हुई, तब हमारा ब्लॉक में पांचवा घर था और सभी अलग अलग प्रदेश से थे। हम सबने एक दूसरे के घर जाकर गुजिया, नमकीन, कांजी बड़े और जिसके यहां जो बनता था, बनवाने में मदद की और बनाना सीखा। साथ में इतना बतियाये कि आज हम सब बारह सेक्टर छोड़ चुके हैं पर होली ने हमें ऐसा जोड़ा कि हमारे बच्चों के परिवार भी एक दूसरे से मिलते हैं। मुंबई से लेकर कई राज्यों की होली देखी पर इस होली ने तो भारत एक जगह कर दिया था।  

यहां की पहली होली में सुबह उत्तराखंड की टोली के मधुर गीत से नींद खुली और बाहर आकर देखा सबके सिरों पर टोपियां थी एक हाथ में ढपली थी और स्लोमोशन में नाचते हुए गा रहे थे

’बेड़ू पाको बारह मासा, नरेली काफल पाके चैता मेरी छैला’

  सब उनका स्वागत व्यंजनों से करते और टोली में शामिल होते गए। जिस भी ब्लॉक या पास के सेक्टरों में गए, सबका चेहरा खुशी से खिल जाता था। अब ये टोली बड़े से टोले में तब्दील हो गई और एक बड़े पार्क में बैठ गई, कहीं से ढोलक भी आ गई थी। नौकरी के कारण अलग अलग राज्यों से आए नगरवासियों ने उसी पार्क में बरसाने की लठ्मार होली, कुमांऊ की बैठकी, हरियाणा की धुलैंडी जिसमें देवर भाभी को सताता है और भाभी धुलाई करती है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का जन्मदिन जुलूस निकाल कर मनाते हैं वह भी मनाया। नवरंग और झनक झनक पायल बाजे, वी शान्ताराम की फिल्म के गीत और सिलसिला का लोकगीत रंग बरसे गीत, रसिया और जोगीरा सारा.. रा.. रा.. के सवाल जवाब से तो सांझी होली ने जीवन में रंग भर दिए। दक्षिण भारतीयों ने होलिका दहन की राख माथे पर लगाई तो सबने उन्हें सूखे रंगो से रंग दिया। नार्थ ईस्ट में मणिपुर की दंत कथा के अनुसार रुक्मणी को भगवान कृष्ण, आम भाषा में कहते हैं भगाकर ले गए थे। ज्यादातर इसी से संबंधित लोकगीत होते हैं और जहां कन्हैया हों वहां होली न हो ऐसा हो नहीं सकता!! वहां छ दिन पारंपरिक नृत्य लोक कथाओं पर चलते हैं। मणिपुरी नृत्य का कॉस्ट्यूम विश्व प्रसिद्ध है। इसलिए नार्थइस्ट वाले तालियों से साथ दे रहे थे।    

जिस उत्साह से हम उत्सव मनाते हैं, उसी तरह 20 मार्च विश्व गौरैया दिवस को आंगन में फुदकने वाली गौरैया को बचाने के लिए, महानगरों में रहने वाले आर्टीफिशियल घोंसला लगाते हैं।  

22 मार्च विश्व जल दिवस पर प्रण करना होगा ’न जल बरबाद करेंगे और न करने देंगे।’ इस माह का अंतिम उत्सव शीतला अष्टमी है, मौसम बदलता है इसमें ताजा प्रशाद नहीं बनता एक दिन पहले बनता है उसे बसोड़ा कहते हैं। वही देवी को भोग लगता है और दिनभर खाया जाता है। देवी से प्रार्थना की जाती है कि चेचक, खसरा आदि से बचाये। जल बचाएं, गौरेया बचाएं क्योंकि उत्सवों के रंग तो पर्यावरण के संग ही हैं।

नीलम भागी(लेखिका, पत्रकार, ब्लॉगर)

केशव संवाद के मार्च अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है


 



पत्तल भोज हरदोई भाग 4 नीलम भागी अखिल भारतीय साहित्य परिषद का त्रैवार्षिक अधिवेशन

कड़ाके की ठंड थी पर धूप भी खूब खिली हुई थी। भोजन के लिए हॉल में गए। बहुत अच्छी बैठने की व्यवस्था थी। चारों ओर कुर्सी मेज़ लगी थीं। बीच में परोसने का सामान और कुल्हड़,  मिट्टी के बर्तन और पत्तल आदि देख कर मुझे प्रयागराज में बिताया बचपन याद आ गया, जहां तब पत्तल दावत होती थी।


धूप का लालच कोई भी नहीं छोड़ना चाहता था और सब कुछ भारतीय ग्रामीण परंपरा के अनुसार था तो भला मेज कुर्सी का क्या काम!! सबने कहा कि हम तो आलती पालथी मार कर धूप में नीचे बैठ कर खायेंगे। तुरंत घास पर दरियां आदि बिछा दी गईं। ये व्यवस्था में परिवर्तन तो तुरंत हुआ पर बहुत लाजवाब हुआ। वहां का स्थानीय खाना खेत से प्लेट में और चूल्हे पर बना हुआ था। वहां वैसे धूप में बैठने के लिए मेज कुर्सियां भी थीं। पर दो चार साहित्यकार ही उन पर बैठे थे। शायद उन्हें भी डॉक्टर ने पालथी मारने को और नीचे बैठने को मना कर रखा होगा। अब हॉल में तो जितने लोग बैठ सकते थे, उतने ही एक बार में भोजन करते पर इस व्यवस्था परिवर्तन से तो अब लगभग सभी बैठ गए। शिक्षकों का ऐसा मैनेजमैंट था कि विद्यार्थी किसी की भी पत्तल खाली नहीं रहने दे रहे थे। आखिर में हम तीन महिलाएं एक मेज को घेर कर बैठ गईं।

हमारी पत्तल पर पहले गुड़ फिर घी टपकाती चूल्हे की रोटियां, चावल, मटर पनीर, दो तरह की दाल जिसमें एक दाल में कोई पत्ते मिलाकर बनी थी। मेरे पास पहुंचते ही दाल, सब्जीं सब खत्म हो जाती थी। वे बड़ी फुर्ती से लेने जाते, अध्यापिका कहती कि उधर से शुरु करो। और वे आज्ञाकारी छात्र वहीं से शुरु करते। मैं मजे से गुड़ के साथ घी रोटी का आनन्द उठा रही थी और कुर्सी पर बैठी छात्रों द्वारा भोजन परोसना देख रही थी। मज़ाल है जो किसी की पत्तल जरा भी खाली रह जाये। मेरे साथ बैठी दोनो महिलाएं हरी दाल पर चर्चा कर रहीं कि इसमें बथुआ, मेथी, पालक का पत्ता तो नहीं लग रहा ये साग किसका मिलाया है? खाते हुए ये खोजबीन जारी थी। हमें कुछ और चाहिए छात्र परोसने आए तो मेरे सकोरे खाली देख कर न जाने कितनी बार उन्होंने सॉरी किया। और परोसा, सबका स्वाद लाजवाब! न मिर्च मसाला तेज, सबका अपना स्वाद था। मैं भी गहन खोजबीन में लग गई कि हरी दाल में कौन सा साग है? नहीं समझ पाई पर जो भी था लजी़ज़ था। दो दिनों में मुझे नहीं लगता कि उन्होनें कोई भी सर्दी में खाया जाने वाला स्थानीय व्यंजन हमें न खिलाया हो। कहीं उपलों पर बाटी बन रही थी

। काले सफेद तिलों के साथ गुड़ का न जाने क्या क्या था मुझे तो नाम भी नहीं पता। पहले तो मैं भगत कश्यप कुक के पास पहुंच गई। पर कितने नाम याद रख सकती थी। जितने भी मोटे अनाज हैं उन सब की भी छोटी छोटी रोटियां थीं। ज्यादा वैराइटी का स्वाद लेना है तो सब एक एक ले लो। अपनी पसंद की खानी है तो वही जितनी भूख उतनी ले लो। ताकि वेस्टेज़ न हो। खाना बनाने में सफाई का बहुत ध्यान रखा जा रहा था। यह  लजीज़ खाना डॉक्टर शशिकांत पांडे जी की देखरेख में बन रहा था। अगर किसी के पेट में गड़बड हुई होगी तो ओवर इटिंग से! खाना स्वाद ही इतना था कि हाथ रोक कर खाना पड़ता था। यह देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा, मेरे साथ बैठी दोनों महिलाओं ने जरा भी जूठा नहीं छोड़ा।  मैं तो छोड़ती ही नहीं हूं। क्रमशः