इस बात ने मुझे बहुत ही हैरान किया कि स्टेशन के बाहर जरा भी गंदगी नहीं थी। स्टेशन में सीनियर सिटीजन के लिए प्लेटफार्म तक पहुंचाने के इलेक्ट्रिक गाड़ी थी। प्लेटफॉर्म एकदम साफ सुथरा, सामने एक दुकान उसे पर लिखा हल्दी वाला दूध। किसी भी शहर में जाकर मुझे दूध देखते ही अपनी गंगा जमुना याद आने लग जाती हैं। उनके दूध जैसा स्वाद कहीं नहीं मिला पर मैं ट्राई जरूर करती हूं। यहां रेट लिस्ट
आप भी देखें, सब कुछ बहुत सस्ता! मैंने दुकानदार को ₹100 पकड़ा दिए और कहा हिसाब बाद में करना मीठा दही, रबड़ी, कुल्फी सब खा लिया। 18 रुपए का हल्दी वाला गरम दूध भी ले लिया। चाय तो ट्रेन में मिलनी थी तब भी मुझे उसने पता नहीं कितने पैसे लौटाए। गाड़ी लग गई। गाड़ी में चढ़ना और उतरना बहुत मुश्किल है आप भी जरा पायदान देखिए। अपनी सीट पर बैठ गई। एक महिला पुलिसकर्मी आई, पूछा, "आप अकेली सफर कर रही हैं, कोई परेशानी हो तो 139 पर फोन करना।" अच्छा लगा। गाड़ी ठीक समय पर चल पड़ी। मेरे सामने गाजियाबाद से राजीव अग्रवाल और उनके एमप्लाई धीरज थे। धीरज बैठे अपने पत्नी को बता रहे थे कि अगले दिन वह कब पहुंचेंगे, उनके लिए क्या बनाना है। शाम को किसी प्रोग्राम में जाना था। पत्नी का एकादशी का व्रत था तो उन्होंने कहा कि मेरे लिए सिर्फ आलू के पराठे बना देना और तुम काम पर चली जाना। मैं आते ही खाकर सो जाऊंगा । उनमें से एक के मोबाइल पर फुल वॉल्यूम पर लगातार सत्संग, कीर्तन चल रहा था। अगर यह संगीत बंद होता है तो एकादशी महात्म पर कथा ऊंची ऊंची लगा दी जाती। जब यह बंद करते हैं तो राजीव जी के भजन शुरू हो जाते हैं। मोबाइल पर पूरा रास्ता सत्संग चला। मैंने मैसेज देखा मेरे फेसबुक मित्र हरि गोपाल गांगिरी ने लिखा था कि मुझे अपनी सीट नंबर गाड़ी नंबर भेजें, मैं आपको टाटानगर पर मिलूंगा। अभी मैं कहीं जा रहा हूं पर गाड़ी के समय पर आ जाऊंगा और कल विशाखापट्टनम के लिए निकलूंगा। क्योंकि वह स्टेशन पर ही होंगे, मैंने भेज दिया। वरना मैं भेजती नहीं हूं, कोई कितनी दूर से मिलने आएगा यह सोच कर। टाटानगर से पहले गाड़ी रुक गई, काफी देर तक रुकी रही। पता नहीं मौसम या एसी के कारण, मेरी तबीयत कुछ बिगड़ने लगी। मैं लेट गई, गाड़ी टाटानगर पर 2 मिनट के लिए रूकी। तुरंत फल लेकर हरि गोपाल जी आए और कहने लगे," अगर गाड़ी स्टेशन से बाहर कुछ देर न रूकती तो मैं आपसे नहीं मिल पाता। आप गेट पर आ जाइए।" और वे नीचे खड़े हो गए। अपना फोन नंबर दिया और कहाकि कोई जरूरत हो तो मुझे फोन कर दीजिएगा। बस इतना सुनकर ही मेरी तबीयत में सुधार होने लगा। पहले सोच रही थी कि अगर तबियत ज्यादा बिगड़ गई तो क्या करूंगी! और गाड़ी चल पड़ी। मैंने बेटी उत्कर्षनी को उनके लाए फ्रूट की फोटो भेजी और बताया। उसने टाइटल भेजा 'फ्रेंड विद फ्रूट ' और कहा,"आपको फोटो लेनी थी, टाइम निकाल कर आपको वे मिलने आए। "
मेरे आस-पास सीट से ज्यादा लोग थे। कुछ ने तो बड़े-बड़े लगेज जगह-जगह फिट कर दिए। सीट का जरा सा भी कोना खाली होता, उस पर दखल कर लेते । खाना ऐसा की दाल पानी बिलकुल अलग जो गाड़ी की चाल के साथ दाल पानीकूद रहा था। आने जाने के इतने लंबे सफर में दिसंबर के महीने में हर बार डेजर्ट में आइसक्रीम ही मिली जबकि मेनू में बहुत कुछ लिखा होता है। शाम को इन फालतू लोगों की कहानी शुरू हो गई। किसी को जर्मनी जाना था। किसी को मिडिल ईस्ट जाना था। रिजर्वेशन नहीं मिला, सबकी अगले दिन फ्लाइट थी। मुझे उन सब के साथ बड़ी हमदर्दी होने लगे की कैसे करेंगे ये लोग, अगर फ्लाइट में मिस गई तो! वह लोग अपर सीट किसी की भी खाली होते ही, खर्राटे मार के सोने लग जाते हैं। बीच में उठकर राजीव अग्रवाल या उनके चेले से कहते कि मोबाइल का वॉल्यूम कम कर लो क्योंकि भजन और कथा की ओवरडोज हो चुकी थी। डिनर के बाद रिज़र्व वालों ने अपनी सीट लेनी ही थी। अभी तक तो सब अपने साथियों के साथ इधर-उधर घूम रहे थे। यह फालतू वाले इतनी देर में सामान कहीं भी टीका कर सो रहे थे। मैं भी उठकर अपने डिब्बे में चक्कर लगाने चल दी। देखा विनोद बब्बर जी(संपादक राष्ट्र किंकर) एक परिवार के साथ, इस तरह बैठे बतिया रहे थे जैसे उस परिवार के सदस्य हों। उनके किसी मित्र को पता चला कि वे यहां से गुजर रहे हैं वह गया में उन्हें लेकर ही जाएगा, अपने साथ। कुछ देर वहां बतिया कर चल दी। सामने टी. टी. देखकर मैंने उनसे कहा," सर मेरे केबिन में दो लोगों की कल विदेश की फ्लाइट है, देखिए कोई सीट हो तो उनको एडजस्ट कर दें।" टी. टी. ने जवाब दिया," मैडम रोज का यही काम है बिना रिजर्वेशन के यह लोग आ जाते हैं। हमें इनसे निपटना आता है। आप उनके लिए चिंतित मत रहिए।" रात को स्टेशन से एक महिला मेरे सामने की लोअर बर्थ पर आई। अब सोना शुरू हो गया । काफी देर बाद एकादशी महात्मा, पता नहीं जितने भी सोशल मीडिया पर होंगे, सब सुनने के बाद बंद हुआ। मैं मन में सोचने लगे कि सुनना अच्छी बात है पर जबरदस्ती औरों को भी सुनाना तो ठीक नहीं है। सुबह 5:00 बजे राजीव ने धीरज को आवाज लगानी शुरू कर दी," उठ जाओ।" जिससे हम दोनों महिलाएं भी उठ गई। धीरज नहीं उठा। मैंने उनसे कहा कि यह सो रहा है तो उसे सोने दीजिए, उठकर भी क्या करेगा?। वे बोले," मुझे तो 5:00 बजे सुबह उठने की आदत है।" इस पर वह महिला बोली,"सुबह उठना बहुत अच्छी बात है। पर दूसरों को उठाना तो अच्छी बात नहीं है।" पता चला कि वे हर महीने जगन्नाथ जी के दर्शन करने आते हैं। मैंने पूछा," धीरज भी आता है!" वे बोले, "नहीं, बदल बदल के लड़के लाता हूं, वे भी दर्शन कर जाते हैं।" हम दोनों बतियाती रहीं। वे स्पोर्ट्स टीचर थीं। राजीव ने अपनी मिडिल सीट उठाई नहीं। टीचर को जब बैठना होता है तो गर्दन टेढ़ी करके बैठती फिर मजबूरी में लेट जाती। राजीव लेटे लेटे मोबाइल के साथ भजन गाते रहे। फिर अपने मिलने वालों को फोन पर जोर जोर से अपने पहुंचने की सूचना देने लगे, पहला वाक्य यही था 'सो रहे थे'। सुनते ही हम दोनों की हंसी निकल जाती।
और हमारा नई दिल्ली स्टेशन आ गया। मेरी यात्रा को विराम मिला।
समाप्त
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