हमारे घर में गाय पलती थी। जब वह दूध देती थी तो उसके लिए दलिया बनता था। चक्की पर गेहूं जाता था और चक्की वाले से कहा जाता था कि इसका दलिया पीसकर दो। दलिया आता तो उसको छाना जाता। आखिर में जो दलिया बचता उसे बारीक आटा छानने वाली छलनी से छाना जाता। जो छलनी के ऊपर रह जाता बारीक दलिया यानी मोटी सूजी और जो नीचे बचता चलने के बाद, वह बारीक सूजी होती या मोटा आटा समझ लो। लेकिन उसकी रोटी बनाने से बहुत पहले उसे गूंथ कर रखना पड़ता। ज्यादातर यह भी हलुआ, उपमा या फिरनी ही बनाने के काम आता था। यह जो दलिया पीसकर बची हुई सूजी होती थी, यह कभी मैदे की तरह सफेद नहीं होती थी। तब बाजार से भी जो सूजी आती थी, वह भी कभी बिल्कुल सफेद नहीं होती थी। आजकल जो सूजी आती है। उस पर गेहूं का जरा भी छिलका नजर नहीं आता है। गाय की सानी के लिए चोकर यानि जो आटा छानकर चलनी के ऊपर आता है, उसका बोरा अलग से मंगाया जाता था। आजकल सफेद सूजी होती है समझ लो मोटा मैदा और व्हीट ब्रान अलग बिकता है। सूजी के वही दक्षिण भारतीय व्यंजन जो मेहनत से दाल चावल पीसकर, फर्मेंट करके बनाए जाते हैं। उसके लिए कहते हैं कि सूजी से इंस्टेंट बना लो यानी सूजी में दही और कोई भी पाउडर फ़ुलाने वाला, बेकिंग पाउडर या इनो मिला कर दोसा, अप्पम, इडली, रवा ढोकला, चीला आदि झटपट जो मर्जी बनाकर वीडियो डाल देते हैं। और लोग बनाते हैं क्योंकि ऐसे बनाना बहुत आसान है। यानि हम मैदे को तो हेल्दी, अनहेल्दी बखान करते हैं लेकिन सूजी हमें बिना फाइबर के कार्बोहाइड्रेट हेल्दी लगती है।
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