दुबई में ऑफिस जाते समय उत्कर्षनी मुझसे बोली," मां आपके पैसे खत्म हो गए होंगे और ले लो।" मैं बोली," बेटी कई दरहम तो डिब्बे में रखे हैं। वह तपाक से बोली, "मां उन पैसों को नहीं लेना। वे बाबा जी के लिए हैं। आपको यहां गुरुद्वारे ले जाऊंगी, तभी चढ़ा देंगे।" और बताने लगी,"मां जब हम विदेश में पढ़ते थे। हम सब खाना खुद ही बनाते थे। लड़के लड़कियां सबको पढ़ना भी और अपने काम भी खुद करना तो खाना क्या था बस जल्दी में जो बन जाए। स्टूडेंट के पास वैसे भी पैसों की शॉर्टेज रहती है। सबसे प्रिय दिन हमारा छुट्टी का होता था। उस दिन हम सब गुरुद्वारे जाते थे। शबद कीर्तन सुनते थे। मन को बड़ा सकून मिलता था। बाद में लंगर छकते थे। वहां भाई जी की सबसे अच्छी बात लगती, वह हमें कहते," आप प्रसादा ले भी जाओ और हम सब स्टूडेंट खाते भी और लाते भी। नौकरी लगते ही मैंने पहली तनख्वाह मिलते ही बाबा जी के लिए अलग पैसे निकाले जिनके द्वार से हमने उन दिनों बहुत स्वाद गुरु का लंगर खाया। आज क्या नहीं खाते! पर अपनी बच्चियों को किसी भी शुभ अवसर पर गुरुद्वारे ले जाना नहीं भूलते। बच्चियां वहां जाकर बहुत खुश होती हैं।" गुरु गोविंद सिंह जी के जन्मदिन पर उत्कर्षनी ने अमेरिका से अभी फोटो भेजी है। मुझे यह बात याद आई और मैंने आपके साथ शेयर की।
सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़िया से मैं बाज तुड़ाऊं।
तबै गुरु गोविंद सिंह नाम कहाऊँ।
सतनाम वाहेगुरु।
No comments:
Post a Comment