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Wednesday, 31 January 2024

खेती न न न...!दिल्ली से भुवनेश्वर रेल यात्रा भाग 3 नीलम भागी ! Way to Bhuvneshwar Neelam Bhagi Part 3

 


सुधा की एक विशेषता थी कि वह परिचय सबका ले लेती थी। इस नई महिला का भी लिया। महिला का नाम उसने नहीं पूछा उसे दीदी  कहा, अपर्णा जी  को मौसी जी, हमें अब इन सब की आदत नहीं रही। मैं सचमुच इन्हें मौसी भानजी समझती रही। दीदी भुवनेश्वर में कोचिंग सेंटर चलाती हैं। मुझे रास्ते की हरियाली बहुत अच्छी लग रही थी  पानी पोखर ही देखना बहुत भा रहा था। अब सभी लोग उड़ीसा के ही थे। मैंने एक सवाल किया कि यहां की मिट्टी के हर कण में कुछ उगा है पर यहां खेती  कम है। तुरंत जवाब मिल गया कि यहां जो खेती करता है, उसको कुछ नहीं समझते जो पढ़ लिख के या वैसे ही बाहर कमाने गया है उसकी  रिस्पेक्ट है। मुझे बड़ा अजीब लगा कि खेती करना नहीं चाहते। सहयात्रियों ने बताया कि यहां पर ₹2 किलो चावल मिलता है जो गरीब है उनको। अगर कोई खेती करता है तो चावल उगा लेता है, वह भी सरकार को बेचने के लिए मसलन सरकार को 18 रुपए किलो बेचा और ₹2 किलो खरीद लिया यानी ₹16 पर किलो फायदा। इस तरह से कोई खेती को नहीं लेता कि हमें कितनी फसले लेनी हैं। खूब इसी से आमदनी बढ़ानी है ऐसा कुछ नहीं है। अब  मैंने दीदी से पूछा ,"कोचिंग के काम में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है। नौकरी तो है नहीं की कुछ घंटे मेहनत  की और तनख्वाह ले ली। यहां तो रिजल्ट अच्छा देंगे तो अगला  बैच आएगा। दिनभर तैयारी करना क्योंकि यहां बच्चे प्रॉब्लम्स लेकर आते हैं, उसे सॉल्व करना तो घर के काम के लिए मेड वगैरा मिल जाती हैं?" यह पूछ कर तो  मैंने उनकी   दुखती नस पर हाथ रख दिया। इसमें तो अपर्णा जी भी शामिल हो गई। दीदी बोली," मेरी मेड आती है तो मैं पहले उसकी आरती उतारती हूं।" मैं हैरान! तो बोली," मतलब पहले उसको  चाय नाश्ता कराती हूं, अपने हाथ से बना कर फिर वो काम करती है। यहां आप पार्ट टाइम डोमेस्टिक हेल्पर ढूंढोगे तो पहले वह हमसे पूछेगी, कितने लोग हैं, घर में बच्चे कितने हैं? बाहर रहते हैं कि यहां रहते हैं।  उनको ऐसा घर चाहिए जिनके बच्चे बाहर गए हैं। बस सीनियर सिटीजन घर में रह रहे हों। वहां मुंह का स्वाद बदलने को काम करती है और बस कैश के लिए। चावल तो घर में आ ही जाता है इसलिए खाना जो दे दो। अगर हम बनवाते हैं तो इन्हें वही खिलाना है। 

 जैसे हमारे बंगाल में कामकाजी महिला के घर में खूब काम करती हैं। वह बाहर काम करती है। यह घर संभालती हैं। दोनो का काम चलता रहता है। यहां ₹2 किलो चावल ने इनकी काम करने की की जरूरत को खत्म कर दिया है। हां, जिनको बच्चे को बनाने की लगन है, वैसे घर ढूंढते हैं जहां बुड्ढे बुढ़िया हो बस और काम कर लेते हैं। सुधा को भद्रक स्टेशन पर उतरना था। उसमें और बऊ में कुछ उड़िया में वार्तालाप  चल रहा था।  केबिन से स्टेशन आने से काफी पहले वे चली गई। भद्रक प्लेटफॉर्म  पर मैं देख रही थी, सुधा ने साड़ी पहनी हुई, सर पर पल्लू कर रखा था। मैंने चौंक कर देखा। वह मेरी तरफ देखकर हंस पड़ी और मैं भी हंसने लग गई।  दो लोग उनको गांव से लेने आए थे। मैंने सबसे बोला," देखो सुधा  बिल्कुल बदली हुई लग रही है। क्योंकि अंदर वह चूड़ीदार पजामा कुर्ता कार्डिगन पहने बिना दुपट्टे के लड़की सी घूम रही थी। उसने साड़ी किस वक्त पर बांध ली! पता ही नहीं चला।" तो अपर्णा जी बोली कि सास बहू में वार्तालाप चल रहा था कि वहां जैसे मर्जी रहो लेकिन गांव में  तरीके से जाना है। मुझे अच्छा लगा 15 दिन के लिए ही गई है ससुराल, उनके अनुसार रह कर आएगी।  मुझसे पूछा,"आपने कहां जाना है? कैसे जाएंगी? मैंने कहा मुझे लेने आ रहे हैं।  मैंने  पूछा," मुझे 2 दिन में ज्यादा से ज्यादा देखना है क्योंकि मैं जब बीएससी में पढ़ती थी तब परिवार के साथ आई थी। पहली बार मैंने समुद्र पुरी में देखा था। हम लोग 10 दिन तक रहे थे। वहीं से टूरिस्ट बस में भुवनेश्वर कोणार्क वगैरा गए थे। मुझे बहुत अच्छा लगा था। अब मुझे कैसे घूमना चाहिए? वे बताने लगे कि मो  MO बसे चलती हैं, डीलक्स और साधारण। बहुत अच्छी बस सर्विस है। अपनी मर्जी से घूमो और नक्शा समझा दिया। मैंने पूछा आज तो मैं कहीं नहीं जाऊंगी। शाम 6:30 बजे तो घर पहुंचूंगी। कल 17 को भुवनेश्वर देखूंगी। क्या 18 को मैं भुवनेश्वर से पूरी और कोणार्क देखकर भुवनेश्वर आ सकती हूं? क्योंकि 18 की रात को  कार्यक्रम स्थल पर जाना है । 19 को सुबह 9:00 बजे से कार्यक्रम है। भुवन ने एड्रेस देखा, वह खंडगिरि का था। जो रेलवे स्टेशन से दूर था और रेलवे स्टेशन के पास ही हमारा कार्यक्रम स्थल था। उसने कहा आपके घर के पास बरमूडा बस स्टैंड है। भुवनेश्वर, कोणार्क, पुरी यह ट्रायंगल है। आप सबसे पहले सुबह कोणार्क जाना, वहां से पुरी जाना फिर पुरी से भुवनेश्वर आना। आप सब घूम लेंगी। अब कटक आ गया। अपर्णा जी उतर गई। और मेरी आंखें महानदी देखने के लिए बाहर टिक गई क्योंकि जब मैं पहली बार पुरी गई थी मेरे दिमाग में अब तक छाप है गाड़ी उत्कल एक्सप्रेस थी इतनी देर तक पुल पर हम रहे थे किनारा ही नहीं आ रहा था। आज फिर मैं वही देखना चाह रही थी। तब डर लग रहा था नीचे पानी देखकर। भुवनेश्वर प्लेटफार्म पर गाड़ी रुकी। मेरा सामान भी भुवन के साथी ने उतारा। बोगी के आगे ही मीताजी और  मोहंती जी खड़े थे। मैं यह सोच रही थी कि कैसे नीचे उतरूं बिल्कुल सीधी सीधी एक के नीचे दूसरी  सीढ़ी अगला पर पैर कैसे टिकाऊं! ऊपर से कूद नहीं सकती। प्लेटफार्म की तरफ पीठ करके तेजस  से उतरने कोशिश करके उतरी। सामान लेकर तो कोई सीनियर सिटीजन अकेला नहीं उतर सकता। मेरी साथी सवारी मैडम नमस्ते मैडम नमस्ते कर रही थी । मैं पूरी कंसंट्रेशन से प्लेटफार्म पर उतरने की कोशिश कर रही। उतरी मीताजी ने कहा ही आपको नमस्ते कर रहे हैं तो मैंने बाय किया। वे पूछने लग गईं है, ये कौन थे? मैंने कहा कि कोई नहीं सहयात्री। 25 घंटे का सफर, इन सब के साथ बतियाते हुए किया है। अपर्णा जी तो कटक में कहने लगी, आप हमारे पास रहकर जाओ। प्लेटफार्म देखकर मन खुश हो गया। एकदम साफ सुथरा, कोई दुर्गन्ध नहीं। सीनियर सिटीजन के लिए गाड़ी! उस पर हम बैठे, उसने हमें बाहर एग्जिट पर उतार दिया। क्रमशः 












 



Wednesday, 10 January 2024

लोग बुद्ध को देख रहे थे मैं उनके चेहरे से टपकती श्रद्धा!भारतीय लोक जीवन का वैश्वीक रूप नीलम भागी, Neelam Bhagi Part 5

 


हांग कांग मे जिंजर ब्राउन शुगर चाय भारत जैसी थी। मैजिस्टिक ब्रांच बुद्धा विश्व में खुले मैदान में बुद्ध की कांस्य प्रतिमा की ऊँचाई 23 मीटर और कमलासन व केन्द्र को जोड़ कर कुल ऊँचाई करीब 34 मीटर और वजन करीब 250 टन है। बुद्ध के मुख पर करीब 2 किग्रा सोना जड़ा है। मूयवू पर्वत की तलहटी से थ्येनथेन बुद्ध की प्रतिमा तक जाने के लिये 260 पत्थरों की सीढ़ियाँ हैं। सबसे हैरान किया पूजा करने के तरीके ने लाइनों में हवन कुण्ड की तरह आयताकार बड़े बड़े बर्तन लगे थे। गुच्छों में अगरबत्तियाँ श्रद्धालु खरीद कर, हमारे देश की तरह दूर से दिखने वाली बुद्ध की प्रतिमा की ओर विश्व से आए पर्यटक मुँह करके अगरबत्तियाँ जलाकर भारत की तरह प्रार्थना कर रहे थे। अगरबत्ती की राख उन बर्तनों में गिर रही थी। मैंने भी 260 सीढ़ियाँ चढ़ीं, बुद्ध के दर्शन किये मुझे अपने पर गर्व होने लगा! हमारे देश से फैला धर्म है। लोग बुद्ध को देख रहे थे और मैं उनके चेहरे से टपकती श्रद्धा को देख रही थी। मेरा देश महान लेकिन मैंने पूजा, पूजा के स्थान पर ही की।

मकाऊ में हमें पुर्तगाली रैस्टोरैंट मिल गया। उत्तकर्षिनी खोजती है कि उसके व्यंजन में बीफ न हो और मैं नानवेज न हो। मैंने मैन्यू कार्ड खंगाला और एक कैप्सीकम डिश और एक साइड डिश, बींस विद राइस आर्डर की। र्स्टाटर में ब्रैड के स्क्वायर साथ में कई तरह के सॉस और मक्खन। मक्खन के स्वाद ने तो मुझे गंगा यमुना के दूध से अपने हाथ से बनाये मक्खन की याद दिला दी। मेरी डिश थी लाल, हरी और पीली ऑलिव ऑयल में सौटे की पतली पतली कटी नमकीन शिमला मिर्च, दूसरी डिश देखते ही मेरे मुंह से निकला, अरे! ये तो हमारे राजमां चावल हैं।

   मकाउनिस की आस्था का प्रतीक, अमा टैम्पल गये। जो लगभग 1488 से बना प्राचीन, समुद्र की देवी, मछुआरों की रक्षक का देवी टैम्पल है। यहाँ भी मोटी मोटी पीली या रंगीन अगरबत्तियाँ जला कर लोग, हमारी तरह हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे थे। लेकिन जलाने की जगह फिक्स थी। 

हिन्दू और बौद्ध दोनों की आस्था है मुक्तिनाथ धाम में यह धाम यह दिखाने का एक आदर्श उदाहरण है कैसे 3800 मीटर की ऊँचाई पर नेपाल में दो धर्म एक ही पवित्र स्थान को आपसी सम्मान और समझ के साथ साझा कर सकते हैं। क्रमशः

यह आलेख मध्य भारतीय हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रकाशित इंगित पत्रिका के राष्ट्रीय संगोष्ठी विशेषांक से भारतीय जीवन शैली का वैश्विक रूप से लिया गया है। क्रमशः

यह आलेख मध्य भारतीय हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रकाशित इंगित पत्रिका के राष्ट्रीय संगोष्ठी विशेषांक से भारतीय जीवन शैली का वैश्विक रूप से लिया गया है।