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Monday, 4 November 2024

नदी केन्द्रित, लोककथाओं से समृद्ध नवंबर के उत्सव नीलम भागी November Festivals Neelam Bhagi

 



रवि की फसल की बुआई हो जाती है फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति, वनस्पति और जल है।



दीपावली उत्सव(1नव.) धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर, पर लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से की जाती है ताकि गरीब अमीर सब कर सकें। मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है। दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार के साथ या सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं। यम द्वितीया का त्यौहर भाई दूज, मथुरा में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। भाई, बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भाई बहन को उपहार देता है।

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व(5 से 8 नव.) में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति, सूर्योपासना के निर्जला व्रत को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। छठ पूजा, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव, प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। 

चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्यास्त पर व्रती, चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्र्रत शुरु होता है निर्जला व्रत, दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्यास्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।

वंगाला(8 नवं)मेघालय में गारो समुदाय द्वारा फसल कटाई से सम्बन्धित उत्सव है। गारो भाषा में ’वंगाला’ का अर्थ ’सौ ढोल’ है। सूर्यदेवता(सलजोंग) के सम्मान में गारो आदिवासी ’वांगला’ नामक त्योहार मनाते हैं। एक हफ्ते तक मौखिक, पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से सूर्य की आराधना की जाती है। रंगीन वेषभूषा में सिर पर पंख सजाकर अंडाकार आकार में खड़े होकर ढोल की ताल पर नृत्य करते हैं।

गोपाष्टमी पर्व( 9 नव) श्री कृष्ण और उनकी गायों को समर्पित है। इस दिन गौधन की पूजा की जाती है। अक्षय नवमीं(10 नव.) जिसे आंवला नवमी भी कहते हैं। इस दिन स्वास्थ्यवर्धक आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है।

     कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। जैसे दक्षिण भारत में कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ, परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन से होता हैं। देवउठनी एकादशी(12 नव.) के अवसर पर काकड़ आरती को भव्य स्वरूप दिया जाता है। तुलसी सालिगराम का विवाह(13 नवंबर)को मनाया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती है। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एवं ंनाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामूहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक, प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। इसी तरह उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है।

गंगा महोत्सव(11 से 15 नव.) कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूणर््िामा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी, में स्नान करते हैं। इसे देव दीपावली(15 नवम्बर ) गंगा दीपावली के रूप में मनाते हैं। गंगा नदी और देवी देवताओं के सम्मान में घरों में रंगोली बना कर तेल के दियों से सजाते हैं। महाभारत काल में हुए 18 दिन युद्ध के बाद की स्थिति से युधिष्ठिर कुछ विचलित हो गए तो श्री कृष्ण पाण्डवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान में आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पाण्डवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद दिवंगत आत्माओं की शंांित के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। भारत देश भक्ति से जुड़ा हैं। इस दिन बहादुर सैनिक जो भारत के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।  

  गुरू नानक जयंती(15 नवंबर) को गुरुद्वारों की सजावट देखने लायक होती है। शबद कीर्तन होता है और लंगर वरताया जाता है।

सामाजिक समरसता का प्रतीक ’वन भोजन’ भी कार्तिक मास में आयोजित किए जाते हैं। इसमें कुछ लोग मिलकर अपनी सुविधा के दिन, किसी नदी सरोवर के पास अपना बनाया खाना, लेकर प्रकृतिक परिवेश में एक जगह रख देते हैं। कोई प्रोफैशनल नहीं होता है, जिसे जो आता है वो अपनी प्रस्तुति देता है। खूब मनोरंजन होता है। फिर सब मिल जुल कर भोजन करते हैं। जल के किनारे शाम को दीपक जला कर लौटते हैं। 


बाली जात्रा कटक एशिया का सबसे बड़ा मेला कार्तिक पूर्णिमा को लगता है। विशाल मैदान! जिसका मुझे अंतिम छोर नजर नहीं आ रहा था जो महानदी के गडगड़िया घाट पर लगता है। बाली जात्रा कटक, 2000 साल पुराने समुद्री संस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है। प्राचीन काल में यहां के ओड़िआ नाविक व्यापारी जिन्हें ’साधवा’ कहा जाता था, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो (इंडोनेशिया), वर्मा (म्यांमार) सिलोन (श्रीलंका) से व्यापार करते थे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन से यह 4 महीने के लिए व्यापार के लिए निकलते थे। इस समुद्री यात्रा में हवा इनका साथ देती थी। पाल वाली नाव हवा की दिशा और पवन ऊर्जा पर निर्भर यह नाविक, समुद्री व्यापारी, व्यापार के लिए चल देते थे।  इस बड़ी-बड़ी जहाजनुमा नाव को ’बोइतास’ कहा जाता है। जब यह व्यापार को जाते थे तो परिवार की महिलाएं उनकी कुशल वापसी के लिए अनुष्ठान करती थीं। जिसे ’बोइता वंदना’ कहते हैं, जो एक परंपरा बन गया है। उसके प्रतीकात्मक आज इसमें बोइता (छोटी नाव) उत्सव भी मनाया जाता है। यानि कार्तिक पूर्णिमा को सुबह जल्दी पूर्वजों की याद में ’बोइता वंदना’ अपने घर के आसपास, जहां भी जल होता है। उसमें सुबह-सुबह कागज या सूखे केले के पत्तों से नाव बनाकर, उसमें दीपक जलाकर और पान रखकर, उन जांबाज नाविकांे की याद में, जल में प्रवाहित करते हैं। पूर्वजों की यात्रा के प्रतीकात्मक रूप में समुद्री नाविक व्यापारियों के लिए है बाली जात्रा। कटक नगर निगम द्वारा आयोजित बाली यात्रा के एक कार्यक्रम में 22 स्कूलों के 2100 बच्चों ने 35 मिनट में 22000 कागज की नाव बनाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। बाली यात्रा कीर्तिमान है और गिनी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। पर्वों पर नदी स्नान करना हमारे धर्म में है। यहां तो पवित्र महानदी के किनारे बाली यात्रा का आयोजन किया जाता है तो श्रद्धालु ’बोइता वंदना’ के बाद महानदी में स्नान कर, धार्मिक महत्व की बाली जात्रा में शामिल होकर, मेले का आनंद उठाते हैं। यह व्यापार, वाणिज्य सांस्कृतिक खुला मेला है। लाखों की संख्या में यहां लोग आते हैं। एक ही स्थान पर सबके लिए सब कुछ है। युवाओं के लिए आधुनिक संगीतमय, सांस्कृतिक कार्यक्रम है, पारंपरिक कार्यक्रम है। विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए मंडप है। लोक संस्कृति की झलक है। स्थानीय व्यंजन दही बड़ा आलू दम, धुनका पुरी, कुल्फी गुपचुप आदि के खाद्य स्टॉल हैं, खिलौने, अनोखी वस्तुएं है व्यापार मेले का इतिहास है। हथकरघा, हस्तशिल्प, कला, अनुष्ठान हैं। प्राचीनता और नवीनता है। कलिंग(पूर्व में उड़ीसा) प्रसिद्ध शक्तिशाली समुद्री शक्ति थी। बाली जात्रा उड़ीसा के समृद्ध समुद्री विरासत का प्रतीक है।

झिड़ी का मेलाः जम्मू से 22 किमी. दूर झिड़ी गाँव है। इस स्थान पर बाबा जित्तो और बुआ कौड़ी का मंदिर है। जित्तो का जीवन हक, उसूलों और अधिकारों का संघर्ष है, उनकी याद में लगने वाला, उत्तर भारत में सबसे बड़ा वार्षिक किसान झिड़ी का मेला है। जिसमें मुख्य आर्कषण खेती बाड़ी से जुड़े स्टॉल होते हैं। झिड़ी गाँव में यह मेला कार्तिक पूर्णिमा से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक क्रांतिकारी ब्राह्मण किसान, माता वैष्णों के परम भक्त ’बाबा जित्तो’ और उनकी बेटी, ’बालरुप कौड़ी बुआ’ की याद में लगता है। देश भर से आए श्रद्धालुओं को ठहराने के लिए स्कूल कॉलिज सब बंद रहते हैं और 24 घण्टे भण्डारा चलता है। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान करते हैं। मन की मुराद पूरी होती है। ऐसा माना जाता है कि उसमें नहाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं, निसंतान को संतान प्राप्त होती है। मेले में किसानों से जुड़े लगभग डेढ़ दर्जन विभाग सक्रिय रहते हैं। मेले के मुख्य आर्कषण खेती, बागवानी, डेयरी, रेशम उद्योग, खादी, फलवारी, नवीन तकनीक, अच्छे माल मवेशी, दंगल और ग्रामीण खेल हैं। श्रद्धालु बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया लाते हैं। बाबा जित्तो ने उस समय की सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। आज किसान सबसे पहले अपने खेत का अनाज बाबा जित्तो को चढ़ाते हैं, बाद में अपने लिए रखते हैं क्योंकि उन खेतों में जाने वाला पानी बाबा जित्तो की ही देन है। 

 कार्तिक पूर्णिमा से शुरु होने वाला पुष्कर का ऊँट मेला(9से 15 नव), विदेशी सैलानियों को भी आकर्षित करता है। कई किमी. तक यह मेला रेत में लगता है जिसमें खाने, झूले, लोक गीत, लोक नृत्य होते हैं। कालबेलिया नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। ऊँटों को पारंपरिक परिधानों में सजाया जाता है। ऊँट नृत्य करते हैं और इनसे वेट लिफ्टिंग भी करवाई जाती है। रात को आलाव जला कर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखांे श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करके ब्रह्मा जी के मंदिर में दर्शन करते हैं। अगर ऊँट खरीदना हो तो खरीदते हैं। सबसे सुन्दर ऊँट और ऊँटनी को इनाम मिलता है।   

जैन का धार्मिक दिवस प्रकाश पर्व है। 

रण उत्सव(1नवं से 28 फरवरी) गुजरात का रण उत्सव, अपनी रंगीन कला और संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। तीन महीने तक मनाये जाने वाले इस उत्सव में कला, संगीत, संस्कृति के साथ इसमें बुनकर, संगीतकार, लोक नर्तक और राज्य के श्रेष्ठ व्यंजन निर्माताओं के साथ कारीगर भी आते हैं। इस दौरान कलाकार रेत में भारत के इतिहास की झलक पेश करते हैं।

सोनपुर मेला(13नव से 14 दिसम्बर) गंडक नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला कार्तिक पूर्णिमा  स्नान के बाद शुरु होता है। चंद्र गुप्त मौर्य, अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी यहाँ से हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रार्बट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के लिए अस्तबल बनवाया था। यहाँ घोड़ा, गाय, गधा, बकरी सब बिकता था। पर आज की जरुरत के अनुसार यह आटो एक्पो मेले का रुप लेता जा रहा हैं। हरिहर नाथ की पूजा होती है। नौका दौड़, दंगल खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मेला 15 किमी. तक फैलता है।

 बूंदी महोत्सव(30 नवं.से 2 दिस.) राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में छोटा सा बूंदी अपनी ऐतिहासिक वास्तुकला और संस्कृति के लिए जाना जाता है। इसके खूबसूरत दर्शनीय स्थलों और प्रसिद्ध मंदिरों में हनुमान जी मंदिर, राधाई कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव बूंदी के कारण यह छोटी काशी के रुप में जाना जाता है। इसमें किलों का भी मेल है। बूंदी उत्सव में बिना किसी शुल्क के सांस्कृतिक गतिविधियों, विभिन्न प्रतियोगिताओं और रंगारंग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के लिए दुनिया भर से लोग हड़ौती पहुंचते हैं। राजस्थानी व्यंजनों के स्वाद के साथ खरीदारी कर सकते हैं कार्तिक पूर्णिमा की रात में महिला पुरुष दोनों पारंपरिक वेशभूषा पहनकर चंबल नदी के तट पर दिया जला कर, आर्शीवाद लेते हैं। 

माजुली महोत्सव(21 से 24 नव) ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित माजुली द्वीप पर संगीत और नृत्य के द्वारा असम की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। यह दुनिया भर से संगीत प्रेमियों को आकर्षित करता है।    

कार्तिक मास में तीर्थस्थानों पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के साथ, उत्सव में नदियाँ हमारी संस्कृति की पोषक हैं।


 यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।

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Tuesday, 12 May 2020

अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, गिरिराज परिक्रमा मथुरा यात्रा भाग 14Mathura Yatra Part 14 नीलम भागी



कुछ लोग गोवर्धन की दण्डौती परिक्रमा कर रहे थे। इसमें जो दण्डवत लेटता है, जहां उसके हाथ धरती को छूते हैं, वहां लकीर खीच दी जाती है फिर लकीर से अगला दण्डवत किया जाता है। ये वो ही लोग करते हैं जिन्होंने मनोकामना के लिए मन्नत मानी होती है। मनोकामना पूरी होने पर वे दण्डवत परिक्रमा करते हैं। ये परिक्रमा पूरी होने में एक या दो हफ्ते लगते हैं। रास्ते में श्रद्धालु सखिभाव से राधा बने नाचते जा रहे थे। कहीं बिना होली के ही सूखा रंग खेल रहे थे। पहले   इक्कीस किलोमीटर का रास्ता नंगे पांव चलना बहुत मुश्किल लग रहा था!! पर अब बड़ा  मनोरंजक था। यहां लीलाएं कन्हैया ने रचाई पर श्रद्धालु राधे राधे करते चल रहे थे।
   जन मानस से जुड़ी लीला तो गोवर्धन पूजा है जिसे दुनिया के किसी भी देश में रहने वाला कृष्ण प्रेमी मनाता है। जो पर्यावरण और समतावाद का संदेश भी देता है। कन्हैया बड़े हो रहें हैं। अब वे बात बात पर प्रश्न और तर्क करते हैं। हर वर्ष की तरह इस बार भी घरो में दिवाली के अगले दिन पूजा की तैयारी और पकवान बन रहे थे। बाल कृष्ण मां से प्रश्न पूछने लगे,’’किसकी पूजा, क्यों पूजा?’’ मां ने कहा,’’ मुझे काम करने दे, जाकर बाबा से पूछ।’’वही प्रश्न कन्हैया ने नंद से पूछे। नंद ने कहा,’’ये पूजा इंद्र को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। वह वर्षा करता है।’’ कन्हैया ने  सुन कर जवाब दिया कि हरे भरे गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। उस पर गौए चरती हैं। जब बहुत वर्षा होती है। तो हम सब अपना गोधन लेकर गोवर्धन की कंदराओं में शरण लेते हैं। इसकी पेड़ों की जड़े वर्षा का पानी सोख कर हरा भरा रखती हैं। बादलों को रोकता है। अपनी कंदराओं में जल संचित कर, झरनों के रूप में देता  है। इस बार पूजा गोवर्धन की करनी चाहिए। सबको कन्हैया की बात ठीक लगी। प्रकृति ने ग्रामीणों को जो दिया था सब लाए। बाजरा की भी उन्हीं दिनों फसल आई थी, उसकी भी खिचड़ी बनी। दूध दहीं मक्खन मिश्री से बने पकवान, जिसके पास जो भी था वह उसे लेकर गोवर्धन पूजा के सामूहिक भोज में अपना योगदान देने पहुंचा। पूजा में अग्रज गोवर्धन को बनाया, बीच में कन्हैया रहे। गोधन, गिरिराज जी की पूजा की। प्रकृति की गोद में सबने मिलकर भोजन प्रशाद खाया और गीत संगीत के बिना उत्सव कैसा!! इसलिए  कन्हैया ने बंसी बजाई। इस तरह हर्षोल्लास से पूजा संपन्न हुई। इंद्र को अपना बहुत अपमान लगा। उसने भीषण वर्षा शुरु कर दी। पूरा क्षेत्र डूबाने लगा। कन्हैया ने सब ब्रजवासियों को गोधन के साथ गिरिराज पर आने को कहा और कनिष्ठ अंगुली से गोवर्धन पर्वत को उठा कर सबको सुरक्षित किया। प्रलय के समान वर्षा देख, कुछ तो कान्हा को कोसने लगे। उन्होंने सुदर्शन से पर्वत पर वर्षा की गति को नियंत्रित करने को कहा। शेषनाग से मेड़ बन कर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकने को कहा। इंद्र सात दिन तक अपना प्रकोप दिखा कर, ब्रहाा जी के पास कृष्ण की शिकायत करने पहुंचा। ब्रह्मा जी ने सुन कर जवाब दिया कि कृष्ण, विष्णु के अंश पूर्ण पुरुषोत्तम नारायण हैं। इंद्र ने कृष्ण से क्षमा मांगी। तब से अन्नकूट में कृष्ण की पूजा की जाती है। और हमें भी संदेश मिलता है कि वन पर्वत नहीं, तो वर्षा नहीं। हम अपने घरों में अन्नकूट का त्यौहार बड़ी भावना से बनाते हैं। पूरी कोशिश रहती है कि 56 भोग ही बने। बनाते समय सबका ध्यान मिर्च पर रहता है कि ज्यादा मिर्च हो गई तो कन्हैया को मिर्च लग जायेगी।  मिक्स वैजीटेबल भी मुझे लगता है कन्हैया के समय से चली है। गिरिराज जी की पूजा में उस समय कई वैराइटी की सब्जियां आई होंगी। कोई थोड़ी भी ला पाया होगा। लीलाधर ने सब मिला कर एक बनवा दी होगी। मिक्स सब्जी और सब कुछ बिना लहसून प्याज का अन्नकूट में बहुत स्वाद बनता है। अन्नकूट का प्रशाद ही शायद बाहर नौकरी कर रहे बच्चों को घर लाता है। इस खाने को कोई जूठा नहीं छोड़ता। क्रमशः