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Monday, 4 November 2024

नदी केन्द्रित, लोककथाओं से समृद्ध नवंबर के उत्सव नीलम भागी November Festivals Neelam Bhagi

 



रवि की फसल की बुआई हो जाती है फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति, वनस्पति और जल है।



दीपावली उत्सव(1नव.) धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर, पर लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से की जाती है ताकि गरीब अमीर सब कर सकें। मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है। दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार के साथ या सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं। यम द्वितीया का त्यौहर भाई दूज, मथुरा में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। भाई, बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भाई बहन को उपहार देता है।

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व(5 से 8 नव.) में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति, सूर्योपासना के निर्जला व्रत को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। छठ पूजा, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव, प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। 

चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्यास्त पर व्रती, चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्र्रत शुरु होता है निर्जला व्रत, दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्यास्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।

वंगाला(8 नवं)मेघालय में गारो समुदाय द्वारा फसल कटाई से सम्बन्धित उत्सव है। गारो भाषा में ’वंगाला’ का अर्थ ’सौ ढोल’ है। सूर्यदेवता(सलजोंग) के सम्मान में गारो आदिवासी ’वांगला’ नामक त्योहार मनाते हैं। एक हफ्ते तक मौखिक, पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से सूर्य की आराधना की जाती है। रंगीन वेषभूषा में सिर पर पंख सजाकर अंडाकार आकार में खड़े होकर ढोल की ताल पर नृत्य करते हैं।

गोपाष्टमी पर्व( 9 नव) श्री कृष्ण और उनकी गायों को समर्पित है। इस दिन गौधन की पूजा की जाती है। अक्षय नवमीं(10 नव.) जिसे आंवला नवमी भी कहते हैं। इस दिन स्वास्थ्यवर्धक आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है।

     कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। जैसे दक्षिण भारत में कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ, परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन से होता हैं। देवउठनी एकादशी(12 नव.) के अवसर पर काकड़ आरती को भव्य स्वरूप दिया जाता है। तुलसी सालिगराम का विवाह(13 नवंबर)को मनाया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती है। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एवं ंनाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामूहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक, प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। इसी तरह उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है।

गंगा महोत्सव(11 से 15 नव.) कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूणर््िामा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी, में स्नान करते हैं। इसे देव दीपावली(15 नवम्बर ) गंगा दीपावली के रूप में मनाते हैं। गंगा नदी और देवी देवताओं के सम्मान में घरों में रंगोली बना कर तेल के दियों से सजाते हैं। महाभारत काल में हुए 18 दिन युद्ध के बाद की स्थिति से युधिष्ठिर कुछ विचलित हो गए तो श्री कृष्ण पाण्डवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान में आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पाण्डवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद दिवंगत आत्माओं की शंांित के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। भारत देश भक्ति से जुड़ा हैं। इस दिन बहादुर सैनिक जो भारत के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।  

  गुरू नानक जयंती(15 नवंबर) को गुरुद्वारों की सजावट देखने लायक होती है। शबद कीर्तन होता है और लंगर वरताया जाता है।

सामाजिक समरसता का प्रतीक ’वन भोजन’ भी कार्तिक मास में आयोजित किए जाते हैं। इसमें कुछ लोग मिलकर अपनी सुविधा के दिन, किसी नदी सरोवर के पास अपना बनाया खाना, लेकर प्रकृतिक परिवेश में एक जगह रख देते हैं। कोई प्रोफैशनल नहीं होता है, जिसे जो आता है वो अपनी प्रस्तुति देता है। खूब मनोरंजन होता है। फिर सब मिल जुल कर भोजन करते हैं। जल के किनारे शाम को दीपक जला कर लौटते हैं। 


बाली जात्रा कटक एशिया का सबसे बड़ा मेला कार्तिक पूर्णिमा को लगता है। विशाल मैदान! जिसका मुझे अंतिम छोर नजर नहीं आ रहा था जो महानदी के गडगड़िया घाट पर लगता है। बाली जात्रा कटक, 2000 साल पुराने समुद्री संस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है। प्राचीन काल में यहां के ओड़िआ नाविक व्यापारी जिन्हें ’साधवा’ कहा जाता था, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो (इंडोनेशिया), वर्मा (म्यांमार) सिलोन (श्रीलंका) से व्यापार करते थे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन से यह 4 महीने के लिए व्यापार के लिए निकलते थे। इस समुद्री यात्रा में हवा इनका साथ देती थी। पाल वाली नाव हवा की दिशा और पवन ऊर्जा पर निर्भर यह नाविक, समुद्री व्यापारी, व्यापार के लिए चल देते थे।  इस बड़ी-बड़ी जहाजनुमा नाव को ’बोइतास’ कहा जाता है। जब यह व्यापार को जाते थे तो परिवार की महिलाएं उनकी कुशल वापसी के लिए अनुष्ठान करती थीं। जिसे ’बोइता वंदना’ कहते हैं, जो एक परंपरा बन गया है। उसके प्रतीकात्मक आज इसमें बोइता (छोटी नाव) उत्सव भी मनाया जाता है। यानि कार्तिक पूर्णिमा को सुबह जल्दी पूर्वजों की याद में ’बोइता वंदना’ अपने घर के आसपास, जहां भी जल होता है। उसमें सुबह-सुबह कागज या सूखे केले के पत्तों से नाव बनाकर, उसमें दीपक जलाकर और पान रखकर, उन जांबाज नाविकांे की याद में, जल में प्रवाहित करते हैं। पूर्वजों की यात्रा के प्रतीकात्मक रूप में समुद्री नाविक व्यापारियों के लिए है बाली जात्रा। कटक नगर निगम द्वारा आयोजित बाली यात्रा के एक कार्यक्रम में 22 स्कूलों के 2100 बच्चों ने 35 मिनट में 22000 कागज की नाव बनाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। बाली यात्रा कीर्तिमान है और गिनी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। पर्वों पर नदी स्नान करना हमारे धर्म में है। यहां तो पवित्र महानदी के किनारे बाली यात्रा का आयोजन किया जाता है तो श्रद्धालु ’बोइता वंदना’ के बाद महानदी में स्नान कर, धार्मिक महत्व की बाली जात्रा में शामिल होकर, मेले का आनंद उठाते हैं। यह व्यापार, वाणिज्य सांस्कृतिक खुला मेला है। लाखों की संख्या में यहां लोग आते हैं। एक ही स्थान पर सबके लिए सब कुछ है। युवाओं के लिए आधुनिक संगीतमय, सांस्कृतिक कार्यक्रम है, पारंपरिक कार्यक्रम है। विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए मंडप है। लोक संस्कृति की झलक है। स्थानीय व्यंजन दही बड़ा आलू दम, धुनका पुरी, कुल्फी गुपचुप आदि के खाद्य स्टॉल हैं, खिलौने, अनोखी वस्तुएं है व्यापार मेले का इतिहास है। हथकरघा, हस्तशिल्प, कला, अनुष्ठान हैं। प्राचीनता और नवीनता है। कलिंग(पूर्व में उड़ीसा) प्रसिद्ध शक्तिशाली समुद्री शक्ति थी। बाली जात्रा उड़ीसा के समृद्ध समुद्री विरासत का प्रतीक है।

झिड़ी का मेलाः जम्मू से 22 किमी. दूर झिड़ी गाँव है। इस स्थान पर बाबा जित्तो और बुआ कौड़ी का मंदिर है। जित्तो का जीवन हक, उसूलों और अधिकारों का संघर्ष है, उनकी याद में लगने वाला, उत्तर भारत में सबसे बड़ा वार्षिक किसान झिड़ी का मेला है। जिसमें मुख्य आर्कषण खेती बाड़ी से जुड़े स्टॉल होते हैं। झिड़ी गाँव में यह मेला कार्तिक पूर्णिमा से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक क्रांतिकारी ब्राह्मण किसान, माता वैष्णों के परम भक्त ’बाबा जित्तो’ और उनकी बेटी, ’बालरुप कौड़ी बुआ’ की याद में लगता है। देश भर से आए श्रद्धालुओं को ठहराने के लिए स्कूल कॉलिज सब बंद रहते हैं और 24 घण्टे भण्डारा चलता है। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान करते हैं। मन की मुराद पूरी होती है। ऐसा माना जाता है कि उसमें नहाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं, निसंतान को संतान प्राप्त होती है। मेले में किसानों से जुड़े लगभग डेढ़ दर्जन विभाग सक्रिय रहते हैं। मेले के मुख्य आर्कषण खेती, बागवानी, डेयरी, रेशम उद्योग, खादी, फलवारी, नवीन तकनीक, अच्छे माल मवेशी, दंगल और ग्रामीण खेल हैं। श्रद्धालु बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया लाते हैं। बाबा जित्तो ने उस समय की सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। आज किसान सबसे पहले अपने खेत का अनाज बाबा जित्तो को चढ़ाते हैं, बाद में अपने लिए रखते हैं क्योंकि उन खेतों में जाने वाला पानी बाबा जित्तो की ही देन है। 

 कार्तिक पूर्णिमा से शुरु होने वाला पुष्कर का ऊँट मेला(9से 15 नव), विदेशी सैलानियों को भी आकर्षित करता है। कई किमी. तक यह मेला रेत में लगता है जिसमें खाने, झूले, लोक गीत, लोक नृत्य होते हैं। कालबेलिया नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। ऊँटों को पारंपरिक परिधानों में सजाया जाता है। ऊँट नृत्य करते हैं और इनसे वेट लिफ्टिंग भी करवाई जाती है। रात को आलाव जला कर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखांे श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करके ब्रह्मा जी के मंदिर में दर्शन करते हैं। अगर ऊँट खरीदना हो तो खरीदते हैं। सबसे सुन्दर ऊँट और ऊँटनी को इनाम मिलता है।   

जैन का धार्मिक दिवस प्रकाश पर्व है। 

रण उत्सव(1नवं से 28 फरवरी) गुजरात का रण उत्सव, अपनी रंगीन कला और संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। तीन महीने तक मनाये जाने वाले इस उत्सव में कला, संगीत, संस्कृति के साथ इसमें बुनकर, संगीतकार, लोक नर्तक और राज्य के श्रेष्ठ व्यंजन निर्माताओं के साथ कारीगर भी आते हैं। इस दौरान कलाकार रेत में भारत के इतिहास की झलक पेश करते हैं।

सोनपुर मेला(13नव से 14 दिसम्बर) गंडक नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला कार्तिक पूर्णिमा  स्नान के बाद शुरु होता है। चंद्र गुप्त मौर्य, अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी यहाँ से हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रार्बट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के लिए अस्तबल बनवाया था। यहाँ घोड़ा, गाय, गधा, बकरी सब बिकता था। पर आज की जरुरत के अनुसार यह आटो एक्पो मेले का रुप लेता जा रहा हैं। हरिहर नाथ की पूजा होती है। नौका दौड़, दंगल खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मेला 15 किमी. तक फैलता है।

 बूंदी महोत्सव(30 नवं.से 2 दिस.) राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में छोटा सा बूंदी अपनी ऐतिहासिक वास्तुकला और संस्कृति के लिए जाना जाता है। इसके खूबसूरत दर्शनीय स्थलों और प्रसिद्ध मंदिरों में हनुमान जी मंदिर, राधाई कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव बूंदी के कारण यह छोटी काशी के रुप में जाना जाता है। इसमें किलों का भी मेल है। बूंदी उत्सव में बिना किसी शुल्क के सांस्कृतिक गतिविधियों, विभिन्न प्रतियोगिताओं और रंगारंग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के लिए दुनिया भर से लोग हड़ौती पहुंचते हैं। राजस्थानी व्यंजनों के स्वाद के साथ खरीदारी कर सकते हैं कार्तिक पूर्णिमा की रात में महिला पुरुष दोनों पारंपरिक वेशभूषा पहनकर चंबल नदी के तट पर दिया जला कर, आर्शीवाद लेते हैं। 

माजुली महोत्सव(21 से 24 नव) ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित माजुली द्वीप पर संगीत और नृत्य के द्वारा असम की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। यह दुनिया भर से संगीत प्रेमियों को आकर्षित करता है।    

कार्तिक मास में तीर्थस्थानों पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के साथ, उत्सव में नदियाँ हमारी संस्कृति की पोषक हैं।


 यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।

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Sunday, 3 December 2023

मेलों, नृत्य, गायन उत्सवों और उल्लास का दिसम्बर नीलम भागी Neelam Bhagi








वैष्णों देवी के लिए हैलीकॉप्टर सेवा बंद थी, घोड़े पर बैठने से डरती हूँ और पैदल जाने की मेरी सेहत इज़ाज़त नहीं दे रही थी। मेरा ग्रुप भी दर्शन को चला गया था। अकेली मैं होटल में रह गई थी। वहाँ मैंने देखा जो भी आता है, समान टिका कर माता के दर्शन को चढ़ाई पर निकल जाता था। जो दर्शन करके आता था, वह गाड़ी के समय तक थकान उतारता था फिर वापसी कर लेता था। मैंने एक ऑटो बुलाया और उसे कहा,’’मुझे शाम तक कटरा और उसके आस पास जो भी तीर्थस्थल हैं, उनके दर्शन कराने हैं और उनके बारे में जो पता है, सुनाना है और वहाँ कब भीड़ होती है, मेरा मतलब है त्योहार, मेले वगैरह लगने से हैं।’’ वह मुझे लेकर चल दिया। अब उसे सुन रही थी और प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारती जा रही थी और साथ साथ मेरे विचार भी चल रहे थे।   

उत्सव यानि पर्व या त्यौहार का हमारी संस्कृति में विशेष स्थान है। साल भर कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। हर ऋतु में हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। तीर्थस्थान पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के बाद उत्सव की एक महत्वपूर्ण उत्पत्ति कृषि है। धार्मिक स्मरणोत्सव और अच्छी फसल के लिए धन्यवाद दिया जाता है। रवि की फसल की बुआई सितम्बर से नवम्बर तक हो जाती है। फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। 

झिड़ी का मेला उत्सव- जम्मू से 22 किमी दूर झिड़ी गाँव में कार्तिक पूर्णिमा से 3 दिसम्बर तक उत्तर भारत का सबसे बड़ा किसान मेला, क्रांतिकारी ब्राह्मण किसान, माता वैष्णों के परम भक्त बाबा जित्तो और उनकी बेटी बालरुप कौड़ी बुआ की याद में लगता है। देश भर से आए श्रद्धालुओं को ठहराने के लिए स्कूल कॉलिज सब बंद रहते हैं और 24 घण्टे भण्डारा चलता है। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान करते हैं। मन की मुराद पूरी होती है। ऐसा माना जाता है कि उसमें नहाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं। यहाँ 500 साल से बाबा जित्तो का मंदिर है। इस मेले का मुख्य आर्कषण खेती बाड़ी से जुड़े स्टॉल हैं, दंगल और ग्रामीण खेल हैं। बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया लाते हैं। माथा टेकने पर लइया का प्रशाद मिलता है। बाबा जित्तो ने उस समय की सामंती व्यवस्ता पर सवाल खड़े किए थे। आज सबसे पहले अपने खेत का अनाज बाबा जित्तो को चढ़ाते हैं, बाद में अपने लिए रखते हैं क्योंकि उन खेतों में जाने वाला पानी बाबा जित्तो की ही देन है।

विद्वानों का मानना है जो जनजातियाँ नाचती गाती नहीं-उनकी संस्कृति मर जाती है।

नृत्य, गायन उत्सवों की शुरूआत भारत के मंदिरों में हुई थी। लेकिन अब देश विदेश से इन उत्सवों को देखने पर्यटक आते हैं।

कुंभलगढ़ उत्सव(1से 3 दिसम्बर) को कुंभलगढ़ किले में मनाया जाता है। इसमें अलग अलग संस्कृतियों से जुड़े कार्यक्रम को देखने, देशी विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में  भाग लेते हैं।

कोणार्क नृत्य महोत्सव(1 से 5 दि0) कोणार्क सूर्य मंदिर में पूरे भारत से नर्तक अपनी कलात्मकता दिखाने को एकजुट होते हैं।

अर्न्तराष्ट्रीय रेत कला महोत्सव(1से 5 दि0) सबसे अधिक उड़ीसा के पुरी  और चंद्रभागा के तटीय रेत पर कलाकार जटिल कलाकृतियाँ बनाते हैं। श्री क्षेत्र उत्सव, पुरी की परंपराओं को जीवित करती रेत की कला है।

गलदान नामचोट( 7 दिसम्बर) लेह लद्दाख में महान विद्वान त्योंगखापा का जश्न मनाते हुए रंगीन दीपक से सर्दी के अंधेरे को रोशन करते हैं।

कोचीन कार्निवल(12 दि0 से 1 जनवरी) केरल के शहर में दस दिवसीय उत्सव है जिसमें संस्कृति और मनोरंजन का अनूठा मेल देखने को मिलता है। मसलन संगीत, रंगारंग जुलूस, पोशाकें, मुखौटे लगाए पर्यटक और स्थानीय लोग घूमते हैं।  

हॉर्नबिल उत्सव(1 से 10 दिसम्बर) नागालैंड की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है तो ज़ाहिर है त्यौहार भी खेती के आसपास ही घूमते हैं। पर हॉर्नबिल उत्सव! ये हॉर्निबल पक्षी के नाम पर है जिसके पंख सिर पर लगाते हैं। धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। बहादुर नायकों की प्रशंसा के गीत गाए जाते हैं। तरह तरह के पकवान, लोकनृत्य और कहानियाँ इस त्योहार का हिस्सा हैं। इस उत्सव पर नागा संस्कृति देखने के लिए देश विदेश से पर्यटक आते हैं। 

कार्थिगाई दीपम(6दिसम्बर) हिन्दु तमिलों, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और श्रीलंका में इस रोशनी के त्यौहार को कार्तिगई पूर्णिमा कहा जाता है। केरल में इस त्यौहार को त्रिकार्तिका के नाम से जाना जाता है जो देवी कार्तियेनी(चोटनिककारा अम्मा) भगवती के स्वागत के लिए मनाया जाता है। शेष भारत में, कार्तिक पूणर््िामा अलग तारीख में मनाया जाता है। तमिलनाडु के नीलगिरी जिले में ’लक्षभा’ के नाम से मनाया जाता है। आंध्र प्रदेश तेलंगाना के घरों में कार्तिक मासालु(माह) को बहुत शुभ माना जाता है। स्वामीनारायण संप्रदाय भी इस त्यौहार को बहुत उत्साह से मनाता है।

चेन्नई नृत्य एवं संगीत समारोह मध्य दिसम्बर से एक महीने तक चलने वाला उत्सव है। दक्षिण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक असाधारणता का अनुभव करने देश विदेश से संगीत प्रेमी दर्शक, संगीतकार और कलाकार यहाँ आते हैं।

विवाह पंचमी(17 दि0) नौलखा मंदिर जनकपुर नेपाल में श्रीराम जानकी विवाह के वर्षगाँठ की तैयारी देख रही थी और विदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से अर्थ पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया कि यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलंाचल से मिलते हैं। फिर भरे हुए गले से बोली,’’जानकी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते। न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं।’’ पर जानकी राम की विवाह वर्षगांठ को बहुत हर्ष उल्लास से मनाते हैं। और कहते हैं भारत से तो हमारा रोटी बेटी का रिश्ता है।

स्थानीय श्रद्धालुओं से बतियाती मैं विवाह मंडप की ओर चल दी। नेपाल में जनकपुर प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह प्राचीन काल में मिथिला की राजधानी माना जाता है। यहां के राजा जनक थे। जो सीता जी के पिता जी थे। यह भगवान राम की ससुराल के नाम से विख्यात है। यहां की भाषा मैथिली, हिन्दी और नेपाली है। यहां पर अयोध्या से बारात आई थी और राम जी और जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुरी में संपन्न हुआ था। परिसर के भीतर ही राम जानकी विवाह मंडप है। मंडप के खंभों और दूसरी जगहों को मिलाकर कुल 108 प्रतिमाएं हैं। जानकी मंदिर से सटे राम जानकी विवाह मंडप के चारों ओर छोटे छोटे ’कोहबर’ हैं जिनमें सीता राम, माण्डवी भरत, उर्मिला लक्ष्मण एवं श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न की मूर्तियां हैं। मंदिर पगोड़ा शैली में बना हुआ है। यहाँ आकर बैठना मुझे अच्छा लगता है क्योंकि यहाँ उस समय ग्रामीणों द्वारा गाए जाने वाले विवाह गीत उसी युग में पहुँचा देते हैं।

छाऊ, झूमर उत्सव(20 से 22 दिसम्बर ) प्रेम, विजय और साहस की कहानियों को जीवंत वेशभूषा में नर्तक लयबद्ध नृत्य से दर्शाता है।  

गीता जयंती(22 दिसम्बर) का उत्सव, मार्गशीष महीने के शुक्ल पक्ष की एकदशी तिथि को मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव पर कुरुक्षेत्र में ब्रह्म सरोवर के आस पास 300 से अधिक राष्ट्रीय स्टॉल लगाते हैं। यहाँ के 75 तीर्थों पर इस दौरान गीता पूजन, गीता यज्ञ, अंतरराष्ट्रीय गीता सेमिनार, गीता पाठ, वैश्विक गीता पाठ, संत सम्मेलन आदि मुख्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। तीर्थयात्री कुरुक्षेत्र की 48 कोस परिक्रमा करके गीता महोत्सव मनाते हैं। गीता पढ़ना, घर में रखना हमारे यहाँ परंपरा है। 18 अध्यायों और 700 श्लोकों में चारों वेदों का संक्षिप्त ज्ञान है। गीता जयंती के दिन श्रीमदभागवत गीता के अलावा भगवान श्री कृष्ण और वेद व्यास की भी पूजा की जाती है। 

  पौराणिक कथा के अनुसार श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान दिया था। ऐसी भी मान्यता है कि यही ज्योतिसर तीर्थ वह पावन धरती है, जहां भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता रुपी अमृतपान कराया था। यहां एक प्राचीन सरोवर और एक पवित्र अक्षय वट है जो भगवान श्रीकृष्ण के गीता उपदेश का एकमात्र साक्षी माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस एकादशी से मोह का नाश होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए इसे मोक्षदा एकादशी कहते हैं।

पौष मेला(24-26 दिसम्बर) शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल, इसमें बाउल, छाऊ सहित पारंपरिक लोक नृत्यों में भाग ले सकते हैं। रंगारंग और लयबद्ध प्रर्दशन उत्सव का मुख्य आर्कषण है। 

दत्तात्रेय जयंती(26 दिसम्बर) त्रिगुण स्वरुप यानि ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों का सम्मलित स्वरुप, इसके अलावा भगवान दत्तात्रेय जी को गुरु के रूप में पूजनीय, की जयती मनाई जाती है। भगवान दत्तात्रेय, महर्षि अत्रि और उनकी सहधर्मिणी अनुसूया के पुत्र थे। इनके पिता महर्षि अत्रि सप्तऋषियों में से एक हैं और माता अनुसूया को सतीत्व के रूप में जाना जाता है। राजा कार्तीवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु भगवान दत्तात्रेय के अनन्य भक्तों में से एक हैं। ऐसी मान्यता है कि दत्तात्रेय नित्य सुबह काशी में गंगाजी में स्नान करते थे। इसी कारण काशी के मणिकर्णिका घाट की दत्त पादुका, दत्त भक्तों के लिए पूजनीय स्थान है। इसके अलावा मुख्य पादुका स्थान कर्नाटक के बेेलगाम में स्थित है। देशभर में दत्तात्रेय को गुरु के रूप मानकर इनकी पादुका को नमन किया जाता है। भगवान दत्त के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ। नरसिंहवाडी दत्ता भक्तों की राजधानी के लिए जाना जाता है। कृष्णा और पंचगंगा नदियों के पवित्र संगम पर स्थित, महाराष्ट्रीयन इतिहास के प्रसंगों में इसका व्यापक महत्व है। दक्षिण भारत सहित पूरे देश में इनके अनेक प्रसिद्ध मंदिर हैं। राजस्थान के माउंट आबू के अरबुदा पहाड़ों की 1722 मी. की गुरु शिखर चोटी पर बना भगवान दत्तात्रेय का मंदिर है। 

रणथंभौर संगीत और वन्यजीव महोत्सव(27 से 29) राष्ट्रीय उद्यान के हरे भरे जंगल की पृष्ठभूमि में स्ंागीत समारोह का आयोजन होता है। 

पेरुमथिट्टा थरवड विरासत गृह समारोह-  केरल की विरासत घरों की वास्तुकला और जीवनशैली, सांस्कृतिक कार्यक्रम की झलकियाँ देखने के लिए दिसम्बर में आयोजित समारोह में शामिल होना होगा।

पंचमढ़ी उत्सव(25 दि0 से 31 दि0) भारत का सबसे लोकप्रिय प्रकृति की प्रचुरता का आनन्द उत्सव है। संगीत, नृत्य प्रर्दशन, साहसिक गतिविधियाँ, प्रर्दशनियाँ यहाँ की समृद्ध विरासत को दर्शाती हैं।

मामल्लापुरम नृत्य महोत्सव(25 दि0 से 15 जनवरी) महाबलीपुरम में प्रसिद्ध शास्त्रीय नर्तक भारतनाटयम, कथक, कुचिपुड़ी आदि नृत्य शैलियों का शानदार प्रदर्शन करते हैं। ममल्लपुरम डांस फेस्टिवल(चेन्नई) खुले आकाश के नीचे, नृत्य संगीत, शास्त्रीय और लोक नृत्य, का उत्सव है।

विष्णुपुर महोत्सव(27 दि0 से 31 दिसम्बर) मदनमोहन मंदिर विष्णुपुर के आसपास आयोजित यह महोत्सव हस्तशिल्प, रेशम साड़ी, कपड़ो और मिठाइयों के लिए मशहूर है। शास्त्रीय संगीत के घराने, विष्णुपुर घराने के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है।

दिसबंर में आयोजित उत्सव सनबर्न फेस्टिवल ( 28 से 31 दिसम्बर,गोवा)  इलैक्ट्रॉनिक संगीत नृत्य उत्सव है। भारत में आयोजित यह महोत्सव दुनिया का सबसे बड़ा तीसरा नृत्य महोत्सव बन गया है।

संगीत प्रेमियों के लिए, माउंट आबू विंटर फैस्टिवल (29 से 31 दि0 राजस्थान) यहाँ लोकनृत्य, संगीत घूमर, गैर और धाप, डांडिया, शामें कव्वाली का आनन्द लिया जाता है।

रण उत्सव(26 दि0 से 20 फरवरी, गुजरात) रेगिस्तान में सांस्कृतिक कार्यक्रम गरबा लोक संस्कृति, हस्तशिल्प और गुजराती व्यंजन आदि के लिए प्रसिद्ध है। 

 संकष्टी चर्तुथी(28 दिसम्बर) दादी हमेशा किसी भी उत्सव की पूजा करते समय परिवार को बिठा कर उसकी बड़ी रोचक कथा सुनाती थी। गणेश चतुर्थी जिसे वह सकट बोलती थी। उसमें गणेश जी की चार कथाएं एक साथ सुनाती और हर कथा के बाद एक तिल का लड्डू देती। कड़ाके की ठंड में हम चारों लड्डू खा जाते थे। 

हिमाचल हिल्स फैस्टिवल(30 से 31 दिसम्बर) कड़ाके की ठंड में बोनफायर के चारों ओर मनाया जाने वाला संगीतमय उत्सव है। 

अब 94 वर्षीय अम्मा, दादी की तरह त्योहार की कथा सुनातीं हैं। हमेशा हमें 31 दिसम्बर को कहतीं हैं कि हमारा नया साल तो चैत्र प्रतिप्रदा को होता हैं, तब सबको नए साल की बधाई देना। अब अम्मा की बात तो माननी है न। यही मौसम के अनुसार हमारे उत्सवों की मिठास और परम्परा है।

नीलम भागी

जर्नलिस्ट, लेखिका, ब्लॉगर, ट्रैवलर

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित प्रेरणा विचार Prerna Vichar के दिसंबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।