रेन फाॅरेस्ट वाॅक, काॅफी की कहानी कूर्ग यात्रा भाग 6
नीलम भागी
रेन फाॅरेस्ट वाॅक के लिये ढाई बजे बग्गी मुझे लेने आ गई। इस वाॅक के शौकीन सब एक जगह एम्फीथिएटर पर एकत्रित होते जा रहे थे। पहुंंचते ही हमें घुटनों तक लम्बी जुराबें, गम शूज़, रेनकोट, पीने के पानी की बोतल और बड़ा छाता दिया गया। जब हम वाॅक के लिये तैयार हो गये, तो हमारे जूतों पर स्प्रे भी कर दिया गया। वो इसलिये कि लीच आदि हमारे पैरों पर न चिपटे। ढाई घण्टे की ये न भूलने वाली वाॅक, कूर्ग को जीवन भर के लिये मेरे साथ ले आई। हमारे गाइड महेश का वर्णन करने का तरीका भी गज़ब का था। बी.एस.सी. में मेरे पास बाॅटनी सबजेक्ट था। तब मैंने सलेबस परीक्षा में अच्छी परसेंटेज़ लेने के लिये रटा था और एक्जा़म में जाकर उगल दिया था बस। शायद बाॅटनी पढ़ने के कारण, मुझे पेड़ पौधों से बहुत लगाव है और यहाँ तो उनसे, पेड़ पौधों और उनपर बसेरा करने वाले कुछ पक्षियों की विचित्र बातें पता चलीं। सबसे पहले महेश ने काॅफी के पौधे के पास खड़े होकर उसके पत्तों को सहलाते हुए काॅफी की कहानी सुनाई जो मैंने अपनी मैमोरी में फीड कर ली थी। एक दिन इथोपिया के कफा प्रांत में एक गडरिया पशु चरा रहा था। उसने ध्यान दिया कि उसके पशुओं के व्यवहार में अचानक परिवर्तन आया, वे बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे थे। उसने गौर किया कि ये परिवर्तन उन्हीं जानवरों में आया जो एक पौधे के गहरे लाल बीजों को चर रहे थे। इथोपियाई गडरिये कलड़ी ने भी उन बीजों को खाया और अपने अंदर भी परिवर्तन महसूस किया। उसकी थकान दूर और उसने उर्जा और शक्ति का अनुभव किया। ऐसा 600वीं सदी में हुआ था।
हमारे देश मे काफी उगाने का श्रेय एक संत बाबा बुदान को है। वे मक्का की तीर्थयात्रा पर गये थे और अपनी कमर पर बांध कर सात काॅफी बीन्स लाये थे। काॅफी के बीजों को अरब से बाहर ले जाना गैर कानूनी था। इसलाम में सात अंक पवित्र माना है और ये काम एक संत द्वारा हुआ इसलिये ये धार्मिक कार्य माना गया। उन्होने उसे चंद्रगिरी की पहाड़ियों पर उगाया था। इसके बाद से ही काफी की व्यवस्थित खेती की शुरुआत हो गई। चिकमंग्लूर के पास ये पहाड़ियां ’बाबा बुदान गिरी’ यानि पहाड़ी के नाम से मशहूर हो गई। इस सराहनीय काम के लिये बाबा बुदान की जितनी तारीफ की जाये वो कम है। क्योंकि अरब में सख्त कानून था कि उनके देश से काफी बींस बिना उबाले या भूने बाहर नहीं जा सकती। ये कहानी सुन कर मेरा मन बाबा बुदान के प्रति श्रद्धा से भर गया। अब काफी के पौधे की पहचान तो हो गई थी। फल का मौसम नहीं था। मेरी बड़ी इच्छी थी कि मैं हरी टहनी पर गहरे लाल रंग के काॅफी से जड़े बीज देखूं। महेश भी हमें दिखाना चाहतेे थे। दूर दूर से लोग यह देखने आते हैं क्योंकि काॅफी उगाने के लिये तो परिस्थितियाँ यहीं अनुकूल हैं। यहाँ दो प्रकार की काॅफी रोबस्टा और अरेबिका को, पानी से भरपूर मिट्टी में उगाया जाता है। इसे छाया के दो स्तरों में उगाया जाता है। बीच बीच में इलायची, दालचीनी, लौंग और जायफल उगाया जाता है। महेश ने जैसे ही एक पौधे पर हरी हरी इलायची लगी दिखाई, मैंने तो झट से उसकी तस्वीर ले ली। काफी के फूल सफेद रंग के होते हैं। जब वे खिलते हैं, तो सारा बागान हरे और सफेद रंग में तब्दील हो जाता है। ये नजा़रा देखने में बहुत खूबसूरत होता है। लेेकिन इनका जीवन काल केवल चार दिन का होता है और ये फल में बदल जाते हैं। फूल खिलने की और फल आने का समय किस्म और जलवायु के अनुसार अलग अलग होता है। अरेबिका का फल पकने में सात महीने और रोबेस्टा में यह प्रक्रिया लगभग नौ महीने चलती है। रोबेस्टा काफी का फल छोटा होता है और अरेबिका काॅफी का फल आकार में थोड़ा बड़ा होता है। फल पकने पर इन गहरे लाल जामनी फलों को हाथ से इक्कट्ठे कर लेते है। काॅफी और काली मिर्च की खेती कुर्गी लोगों का मुख्य व्यवसाय है। क्रमशः