जब भी कोई झरना निकलता गुप्ता जी राजू को आकर कहते कि यहाँ गाड़ी रोक दे। सब वहाँ पर सेल्फी ले लेंगे पर राजू उसी स्पीड से ड्राइविंग करता रहता है। वैसे ही हमसे आगे वाली गाड़ियां चल रहीं हैं। बायीं ओर चट्टानी पर्वत तो दायीं ओर काली गंडकी नदी और बस की गति यात्रा का रोमांचक एहसास कराती है। अब धूल मिट्टी का रास्ता नहीं है पर पथरीला है। कई बार नीचे से पानी भी बह रहा होता है। जब कोई छोटा झरना आता तो जू0 राजू चिल्लाता,’’देखो देखो लेफ्ट पर बच्चा झरना।’’ मैं भी तस्वीरें चलती बस के अन्दर से ही ले रही थी। अचानक देखा हल्की बूंदाबांदी में गाड़ियों के बीच से भाग भाग कर आड़े तिरछे होकर लड़के फोटोग्राफी कर रहें हैं। जू0 राजू जोर से बोलने लगा,’’देखो देखो लैफ्ट में बाहुबली झरना।’’
मैं हैरान! पहाड़ की चोटी से झरना गिर रहा है फिर दिखता नहीं फिर नीचे से प्रकट होता है। ऐसा दो बार है छिपना और दिखना। अब तो सब वहां रुकना चाह रहीं थीं पर बस उसी चाल से चलती जा रही थी। कई बार तो दूर से ऐसा लगता था कि सामने खड़े पहाड़ ने आगे रास्ता रोका हुआ है। पास जाने पर खतरनाक रास्ता होता। कहते हैं न ’जहां चाह वहां राह’। सबकी झरने के पास कुछ देर रुकने की इच्छा थी। अब मुक्तिनाथ बाबा सबकी इच्छा कैसे न पूरी करते भला! देखा लाइन से गाड़ियां रुकी हुई हैं। हमारी भी रुक गई। बाजू में छोटा सा झरना था जिससे निकलने वाला पानी रास्ता पार कर निचाई की ओर जा रहा था। ऐसे ही सीन इस रास्ते पर जगह जगह थे। पर ये तो पूरी श्रद्धा भक्ति से बस में भजन गा रहीं थीं जिसका वीडियो लगाऊँगी।
ये बस से उतरीं इन्होंने झरने का, उसकी आवाज़ का आनन्द उठाया और वहाँ खूब नाचे भी। और मैं.... कुछ लोगों की तरह ये पता लगाने में लगी रही कि रास्ता क्यों बंद हो गया है!! पता चला कि कुछ दूरी पर गाड़ी को एक दम ऊपर चढ़ना है। वहां बीच में एक छोटी गाड़ी बंद हो गई। अब उसे धीरे धीरे उतारा जा रहा था। एक घण्टा तालियों की ताल पर श्रद्धालुओं का होली के गीतों पर नाचते हुए बीत गया। इन श्रद्धालुओं की कितनी पॉजिटिव सोच है कि बाबा ने बुलाया है तभी तो हम आएं हैं।
वही रास्ता बनाएंगे। कहीं से आवाज़ आई कि अब तो चाय होनी चाहिए। मैं राजू के पास खड़ी थी। वह चाय का सुन कर मुझे बताने लगा कि इस रास्ते का कोई भरोसा नहीं है, जितनी जल्दी हो सके ये खराब रास्ता दिन में पार करना है। उसी समय रास्ता खुल गया। राजू ने फुर्ती से जाकर बस र्स्टाट कीं दौड़ दौड़ के हमारे सहयात्री बस पर चढ़े। रास्ते का काम तो वहां पर लगातार चलता रहता है। इसलिए लोग भी आ गए। एक बस चढ़ती और उधर उतरनी शुरु होती तब अगली बस चढ़ना शुरु करती जो बस जरा भी अड़ने लगती तो तुरंत लोग गाड़ी को धक्का लगाने लगते। जबकि उस समय हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। हमारी बस चढ़ने लगी मैं तो मन में जाप ही करने लगी। इसके चढ़ते ही नाज़िर बोला,’’हमारी सब गाड़ियां चढ़ जायेंगी। फिर एक एक कर गाड़ी चढ़ गई। इस यात्रा में लगता है मेरा दिल बहुत मजबूत हो गया है। कुछ समय बाद हमारी बस चौड़े पाट की नदी में उतर गई। जिसमें कहीं कहीं पानी दूर पानी बह रहा था। बस पत्थरों पर चल रही थी।
ये क्या!! धूप अच्छी थी दोपहर बाद बर्फ पिघलने से तेजी से पहाड़ से पानी आने लगा। पहले भी ऐसा हुआ होगा तभी तो गाड़ी निकालने के लिए तीन पाइप बराबर लगा रखे थे। जू0 राजू और दूसरी बस का क्लीनर दोनों बस से कुछ दूर झुके हुई मोबाइल में देखते हुए हाथ से इशारा दे रहे थे और राजू उनके हाथों के इशारों से उन पाइपों पर बस खिसका रहा था। मैं इतनी सहमी हुई थी कि विडियो बनाना भी याद नहीं आया।
बस पार होते ही मुक्ति नाथ का जयकारा लगाया। अब बहुत खूबसूरत रास्ता और जोमसोम आ गया।
दिसम्बर से जनवरी फरवरी तक मुक्तिक्षेत्र पर बर्फबारी होती है। मार्च, अप्रैल, मई और सितम्बर अक्टूबर और नवम्बर ये पीक सीज़न हैं। बरसात में भी यह रास्ता बहुत खतरनाक हो जाता है। क्रमशः