लौटते समय सब खरीदारी में लगे हुए है। मुझे और पद्मा शर्मा को कुछ नहीं खरीदना है। मैंने सोचा था लौटते में पेड़े लूंगी। यहाँ पेड़ों का स्वाद ऐसा है जैसे हम अपनी गंगा यमुना के दूध से घर में बनाते थे। बासुकीनाथ आते समय मेन रोड पर पेड़ा मार्किट देख कर और भी खुशी हुई कि स्पैशल कहीं नहीं जाना होगा। वैसे पेड़ा मार्किट तो पेड़ा नगर लग रही थी। रास्ते में ही खरीद लेंगे। जहाँ भी जया गौड़ और महिमा शर्मा खरीदारी के लिए रुकतीं, मैं और पद्मा जी किसी भी स्टॉल के आगे बैठ जाते। पान की दुकान देखकर पद्मा जी पान लगवाने लगीं। पान वाला पान लगाने में अपना पूरा हुनर दिखा रहा है। जब उसने कुछ लाल लाल डाला तो वे बोलीं,’’भइया इसमें हेमा मालिनी मत डालो, निकालो, और सारी हेमामालिनी निकलवाईं।’’सुनकर मैं हंसने लगी तो महिमा शर्मा मुझे समझाने लगीं कि हम इसे हेमा मालिनी कहते हैं। इतने सालों बाद देखते वहाँ पहुँचे जहाँ रिक्शा मिल जाता है। अब रिक्शा करके बसों के पास पहुँच गये। सब लोग दर्शन करके आते जा रहे हैं। लिट्टी चोखे के स्टॉल वाले की कुर्सियों पर बैठते जा रहें हैं। हरिदत्त शर्मा जी ने उससे लिट्टी चोखा लिया और उसकी कुर्सियों पर बैठे, हम वहाँ की रौनक देख रहे हैं। वह न बिठाए तो धूप में बैठना पड़ेगा। सबने उससे कुछ न कुछ मंगाना शुरु कर दिया।
जरनल दर्शन की मैं और डॉ. शोभा आ गए हैं, दो महिलाएं नहीं आईं। जब फोन करो तो कहतीं कि आ रहें हैं। रवीन्द्र कौशिक ने पूछा कि अगर रास्ता समझ नहीं आ रहा है तो किसी से जगह का नाम पूछ कर बता दो, मैं आपको ले जाता हूँं। उनका एक ही जवाब है, हम आ रहें हैं। 5 बजे की हमारी गाड़ी है। रास्ते में लंच भी करना है। अब गुप्ता जी ने फोन पर कहा कि तुम दोनों के पीछे सबकी गाड़ी छूट जायेगी। हम 30 मिनट में जा रहे हैं। टिकट आपके पास है। आप स्टेशन पर ही पहुँचों। 20 मिनट बाद उनका फोन आया कि बस स्टैण्ड पर तो हमारी बसे ही नहीं हैं। सुरेन्द्र ने कहा कि मुझसे बात करवाओ। उसने फोन पर उनसे कहा कि किसी ई रिक्शा वाले से बोलो,’’तुम्हें अमुक जगह पहुँचाये क्योंकि आप दो नंबर बस स्टैंड की बजाय कहीं और बस अड्डे पहुंच गई है।’’ जब सुरेन्द्र को लगा कि वे पहुंच गई होंगी, उसके कुछ देर बाद हम चले। वहाँ उनके लिए रुके, वे हमें रास्ते में बैठीं मिल गईं। सब खुश हो गए। बीच में खाने के लिए रुके। समय लेकर चले हैं जिसका ये फायदा हुआ कि कांवड़ियों के कारण गाड़ियाँ स्टेशन से काफी दूर रोक दी गईं। वहाँ से रिक्शा से स्टेशन पहुँचे। टिकट गुप्ता जी ने सब को दे दी थी। हमारा प्लेटर्फाम न0 5 है। कदम कदम पर पुलिस है। प्लेटर्फाम न0 बताते ही वे सीढ़ियों का रास्ता बताते हैं, सब उस ओर चल दिए। मैंने जाकर फिर पूछा,’’लिफ्ट नहीं है।’’उन्होंने मुझे दूसरी ओर भेज दिया। वहाँ एस्केलेटर आउट ऑफ ऑर्डर है। चल नहीं रहा है, बाजू में ही सीढ़ियाँ हैं पर कुछ लोग एस्केलेटर को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। विभाग के दो आदमी खड़े हैं। मैंने उनसे ऐसे ही पूछा,’’ये आउट ऑफ ऑर्डर है तो ये इस पर क्यों चढ़ कर जा रहें हैं? सामने सीढ़ियों से भी तो जा सकते हैं।’’वे हंसते हुए बोले,’’इनके लिए नई टैक्नोलॉजी है, इन्हें खुशी मिलती है इसे इस्तेमाल करके।’’फिर वे बताने लगे कि ये इस पर जल्दी में कूद कर चढ़ते हैं, जोड़ पर इनका पैर पड़ता है। रोज किसी न किसी के पैर में चोट आती है। इलाज़ के लिए ले जाते हैं।
एस्केलेटर ठीक हो गया। मैं चढ़ गई। मुझे लगातार ऊपर तक उनकी आवाज आती रही। ’जल्दबाजी नहीं ध्यान से पैर रखो। कभी वे उनकी भाषा में समझाते। मैं 5 न0 प्लेटफॉर्म पर आती हूँ। मुझे कांवड़िये ने बैठने की जगह दे दी। यहाँ कोई ग्रुप का नहीं दिख रहा है। जिधर देखो भगवा कांवड़िये। क्रमशः