6 मार्च को ’महात्मा गांधी को जानो’ दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी(सांस्कृतिक मंत्रालय भारत सरकार का संगठन, डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी मार्ग, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने) का एक डेलीगेशन गुजरात यात्रा पर गया। जिसमें लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भाग लिया। सवा पाँच बजे की हमारी एअर इंडिया की फ्लाइट थी। किसी कारण वश हमने जाना स्थगित कर दिया था। 6 तारीख को हमने चैक किया तो हमारी टिकट कैंसिल नहीं हुई थी। उस समय बारह बजे थे। अंजना बोली,’’चलो, चलते हैं।’’ ग्रुप में मैसेज चैक किया। देवेन्द्र वशिष्ठ ने लिखा था कि साढ़े तीन बजे तक इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर सब पहुँचे। जल्दी जल्दी बैग में कपड़े ठूसे, जरूरत का सामान लिया, हम चल दीं। मैट्रो पर ही भरोसा था कि वह हमें समय पर पहुंचा सकती है। घर से मैट्रो स्टेशन के बीच इतना जाम मिला कि लगा कि फ्लाइट तो मिस होगी ही, उसी समय देवेन्द्र जी का मैसेज आ गया कि फ्लाइट लेट है, 6 बजे उड़ान भरेगी। नौएडा से नई दिल्ली मैट्रो फिर दौड़ते हुए नई दिल्ली स्टेशन से एयरर्पोट मैट्रो पकड़ी। एयरपोर्ट पर पहुंचते ही अंजना बोली,’’मैं तेज चलती हूं और तुम धीरे। मैं जा रहीं हूं, यह कह कर वह चल दी। वो लोगों से पूछ पूछ कर, टर्मिनल तीन की ओर तेज तेज जा रही थी। मैं दौड़ दौड़ कर उसका पीछा कर रही थी। मुझे ये फायदा था कि किसी से रास्ता नहीं पूछना पड़ रहा था। एयरर्पोट में प्रवेश करते ही जल्दी से चैक इन काउण्टर खोज कर वहाँ पहुँचे, र्बोडिंग पास लिया, दौड़ते हुए सुरक्षा जाँच की लाइन में लगे। उन्होंने एक नई लाइन बनवा दी। वहाँ हमारा पहला दूसरा नम्बर था। जाँच होते ही हम गेट नम्बर 32 की ओर चल दिये। वहाँ हम दोनो के अलावा कोई सवारी नहीं थी क्योंकि सब प्लेन में बैठ चुकी थीं। प्लेन में प्रवेश करते ही हमारे साथियों के चेहरे हमें देख कर खिल गये। ये देख बहुत अच्छा लगा। अंजना तेज चलती है न इसलिये मुझसे आगे जाकर विंडो सीट पर बैठ गई। मैं उसके बराबर में, सागर जी तो किनारे पर अपने सीट नम्बर पर बैठे ही हुए थे। मेरे बैठते ही अंजना बोली,’’अब मुझसे बोलना कि तुम तेज नहीं चल सकती हो। अपनी चीटी चाल से चलती तो शर्तिया फ्लाइट मिस होती न। तुम मेरे पीछे जेब कतरे की चाल से लगी हुई थी।’’मैंने उसे सुधारते हुए कहा कि मैं ऐसे चल रही थी जैसे महात्मा गांधी दाण्डी यात्रा पर जा रहे हों। यह बोल कर मैंने लंबी लंबी सांसे लेकर अपने को र्नामल किया। उसका बारहवीं में पढ़ने वाला लाडला बेटा, पहली बार माँ से अलग रूका था। वह फोन पर बेटे को दुखी होकर समझा रही थी, उधर बेटा रो रहा था। पूरा खानदान उसको आश्वासन दे रहा था कि सब उसका बहुत ध्यान रक्खेंगे। खैर एक घण्टे चालीस मिनट में हम राजकोट पहुँच गये। जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह था, एअरर्पोट पर गुजरात टुरिज्म का काउण्टर। बाहर से आने वाला टूरिस्ट वहाँ से पूरी जानकारी ले सकता है। वह मेरा और अपना लगेज लेकर सब के साथ बस का इंतजार करने लगी। मैं आस पास घूमती रही। बापू को शिक्षित करने वाले शहर में मेरे मन में अलग सा भाव आ रहा था। बस आ गई। विंडो सीट पर बैठी मैं साफ सुथरे राजकोट से परिचय करती जा रही हूँ। बस सौराष्ट्र विश्वविद्यालय के अतिथी गृह के आगे रूकी। सबको कमरे एलॉट हो गए। दस मिनट बाद ही भोजन के लिए बुलावा आ गया। मैस में बुफे लगा हुआ था। प्लेट बहुत बड़ी थीं पर हल्की। मिक्स वैजीटेबल, छोले, आलू, दाल, चावल, कड़ी, खिचड़ी , फारसण, सलाद लेकर आप बैठ जायें और रोटी जहाँ बैठ कर आप खायेंगे, वहाँ कई वैराइटी की पहुँच रही थी, आप अपनी पसंद की लें लें। टेबल पर छाछ से भरे जग रक्खे थे। वही दाल सब्जियाँ थीं पर पकाने की कला अलग थी इसलिये स्वाद भी उत्तर भारत से अलग था। सफेद कढ़ी बिना पकौड़े की खट्टी मिठी और पतली उसकी सुंदरता, बघारी हुई साबुत लाल र्मिच बढ़ा रहीं थीं, बाजरे की रोटी को रोटला कहा जा रहा था। भाखरी बिस्कुट जो मुझे राजकोट के अलावा कहीं नहीं दिखा ,फीका पर इतना कुरकुरा उसके लिये एक ही शब्द ’लाजवाब’। लहसून मिर्च की चटनी मिली। प्रत्येक मेज पर मिर्च के आचार और गुड़ की शीशियाँ थी। हैरानी तो मुझे तब हुई जब इतने चटपटे खाने के साथ लोकल, मिर्च का आचार भी खा रहे थे। डिनर के बाद हम अपने रूम में आ गये। अंजना अपना टुथब्रश भूल आई थी। हम दोनों तो जीमने के बाद, आते ही सो गईं। क्रमशः
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Thursday, 18 April 2019
दिल्ली से राजकोट गुजरात यात्रा भाग 1 Delhi se Rajkot Gujrat Yatra 1 नीलम भागी
6 मार्च को ’महात्मा गांधी को जानो’ दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी(सांस्कृतिक मंत्रालय भारत सरकार का संगठन, डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी मार्ग, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने) का एक डेलीगेशन गुजरात यात्रा पर गया। जिसमें लेखकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों और पत्रकारों ने भाग लिया। सवा पाँच बजे की हमारी एअर इंडिया की फ्लाइट थी। किसी कारण वश हमने जाना स्थगित कर दिया था। 6 तारीख को हमने चैक किया तो हमारी टिकट कैंसिल नहीं हुई थी। उस समय बारह बजे थे। अंजना बोली,’’चलो, चलते हैं।’’ ग्रुप में मैसेज चैक किया। देवेन्द्र वशिष्ठ ने लिखा था कि साढ़े तीन बजे तक इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर सब पहुँचे। जल्दी जल्दी बैग में कपड़े ठूसे, जरूरत का सामान लिया, हम चल दीं। मैट्रो पर ही भरोसा था कि वह हमें समय पर पहुंचा सकती है। घर से मैट्रो स्टेशन के बीच इतना जाम मिला कि लगा कि फ्लाइट तो मिस होगी ही, उसी समय देवेन्द्र जी का मैसेज आ गया कि फ्लाइट लेट है, 6 बजे उड़ान भरेगी। नौएडा से नई दिल्ली मैट्रो फिर दौड़ते हुए नई दिल्ली स्टेशन से एयरर्पोट मैट्रो पकड़ी। एयरपोर्ट पर पहुंचते ही अंजना बोली,’’मैं तेज चलती हूं और तुम धीरे। मैं जा रहीं हूं, यह कह कर वह चल दी। वो लोगों से पूछ पूछ कर, टर्मिनल तीन की ओर तेज तेज जा रही थी। मैं दौड़ दौड़ कर उसका पीछा कर रही थी। मुझे ये फायदा था कि किसी से रास्ता नहीं पूछना पड़ रहा था। एयरर्पोट में प्रवेश करते ही जल्दी से चैक इन काउण्टर खोज कर वहाँ पहुँचे, र्बोडिंग पास लिया, दौड़ते हुए सुरक्षा जाँच की लाइन में लगे। उन्होंने एक नई लाइन बनवा दी। वहाँ हमारा पहला दूसरा नम्बर था। जाँच होते ही हम गेट नम्बर 32 की ओर चल दिये। वहाँ हम दोनो के अलावा कोई सवारी नहीं थी क्योंकि सब प्लेन में बैठ चुकी थीं। प्लेन में प्रवेश करते ही हमारे साथियों के चेहरे हमें देख कर खिल गये। ये देख बहुत अच्छा लगा। अंजना तेज चलती है न इसलिये मुझसे आगे जाकर विंडो सीट पर बैठ गई। मैं उसके बराबर में, सागर जी तो किनारे पर अपने सीट नम्बर पर बैठे ही हुए थे। मेरे बैठते ही अंजना बोली,’’अब मुझसे बोलना कि तुम तेज नहीं चल सकती हो। अपनी चीटी चाल से चलती तो शर्तिया फ्लाइट मिस होती न। तुम मेरे पीछे जेब कतरे की चाल से लगी हुई थी।’’मैंने उसे सुधारते हुए कहा कि मैं ऐसे चल रही थी जैसे महात्मा गांधी दाण्डी यात्रा पर जा रहे हों। यह बोल कर मैंने लंबी लंबी सांसे लेकर अपने को र्नामल किया। उसका बारहवीं में पढ़ने वाला लाडला बेटा, पहली बार माँ से अलग रूका था। वह फोन पर बेटे को दुखी होकर समझा रही थी, उधर बेटा रो रहा था। पूरा खानदान उसको आश्वासन दे रहा था कि सब उसका बहुत ध्यान रक्खेंगे। खैर एक घण्टे चालीस मिनट में हम राजकोट पहुँच गये। जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह था, एअरर्पोट पर गुजरात टुरिज्म का काउण्टर। बाहर से आने वाला टूरिस्ट वहाँ से पूरी जानकारी ले सकता है। वह मेरा और अपना लगेज लेकर सब के साथ बस का इंतजार करने लगी। मैं आस पास घूमती रही। बापू को शिक्षित करने वाले शहर में मेरे मन में अलग सा भाव आ रहा था। बस आ गई। विंडो सीट पर बैठी मैं साफ सुथरे राजकोट से परिचय करती जा रही हूँ। बस सौराष्ट्र विश्वविद्यालय के अतिथी गृह के आगे रूकी। सबको कमरे एलॉट हो गए। दस मिनट बाद ही भोजन के लिए बुलावा आ गया। मैस में बुफे लगा हुआ था। प्लेट बहुत बड़ी थीं पर हल्की। मिक्स वैजीटेबल, छोले, आलू, दाल, चावल, कड़ी, खिचड़ी , फारसण, सलाद लेकर आप बैठ जायें और रोटी जहाँ बैठ कर आप खायेंगे, वहाँ कई वैराइटी की पहुँच रही थी, आप अपनी पसंद की लें लें। टेबल पर छाछ से भरे जग रक्खे थे। वही दाल सब्जियाँ थीं पर पकाने की कला अलग थी इसलिये स्वाद भी उत्तर भारत से अलग था। सफेद कढ़ी बिना पकौड़े की खट्टी मिठी और पतली उसकी सुंदरता, बघारी हुई साबुत लाल र्मिच बढ़ा रहीं थीं, बाजरे की रोटी को रोटला कहा जा रहा था। भाखरी बिस्कुट जो मुझे राजकोट के अलावा कहीं नहीं दिखा ,फीका पर इतना कुरकुरा उसके लिये एक ही शब्द ’लाजवाब’। लहसून मिर्च की चटनी मिली। प्रत्येक मेज पर मिर्च के आचार और गुड़ की शीशियाँ थी। हैरानी तो मुझे तब हुई जब इतने चटपटे खाने के साथ लोकल, मिर्च का आचार भी खा रहे थे। डिनर के बाद हम अपने रूम में आ गये। अंजना अपना टुथब्रश भूल आई थी। हम दोनों तो जीमने के बाद, आते ही सो गईं। क्रमशः
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2 comments:
वर्षों पहले गुजरात गयी थी आपकी यात्रा पढ़ कर अब स्मृतियाँ ताजा हो जाएँगी अगले लेख का इंतजार रहेगा
धन्यवाद
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