कुछ साल पहले हम बाल्मिकी जयंती पर हरिद्वार में आयोजित एक संगोष्ठी में जा रहे थे। नौएडा से सुबह 5 बजे 15 लोग तीन गाड़ियों पर ये सोच कर निकले कि जाते समय मां शाकम्बरी देवी के दर्शन करके, गंगा जी की आरती के समय हरिद्वार पहुंच जायेंगे। रात को आराम करके सुबह गोष्ठी और रात को होनेवाले कवि सम्मेलन का आनन्द उठाएगें। पर शाकम्बरी देवी पर तो इतना विशाल मेला था कि कई घण्टे पथरीली जमीन पर लाइन में लगने पर जब हमें लगा कि हमारा नम्बर तो अगले दिन से पहले नहीं आ सकता तो हमने विचार किया कि हम लौटते समय मां का दर्शन करेंगे। सूरज डूबने से पहले हम वहां से हरिद्वार के लिए चल दिए और लौटते समय मां के खुले दर्शन किए।
आज हरिद्वार से बस चलते ही मां के जयकारे लगने लगे। भजन कीर्तन आरती हुई, अशोक भाटी ने जल और मेवे का प्रशाद सबको दिया। बस का महौल तो भक्तिमय के साथ भजनमय रहता ही था। अगर भजन नहीं बजते तो किसी भी कोने से महिलाओं का ग्रुप बिना किसी साज के मां की स्तुति सरल अपनी क्षेत्रिय भाषा में गाने लगता। बाकि भी उसमें स्वर मिलाने लगतीं। रास्ता तो पता ही नहीं चलता कैसे बीत जाता! बसें भूरेदेव के मंदिर के आगे रुकीं। ओमपाल ने श्रद्धालुओं को बताया कि शाकम्बरी देवी के दर्शन से पहले मां के परमभक्त भूरेदेव के दर्शन करने जरुरी होते हैं। इसी स्थल पर मां ने दुर्गमासुर को मारा तथा अन्य दैत्यों का संहार किया। भक्त भूरेदेव( भैरव का एक रुप) को अमरत्व का आर्शीवाद दिया। यहां ढोल बजता रहता है।
यहां से एक किमी. दूर मां का मंदिर हैं। अब रास्ता बेहद खूबसूरत और पथरीला था। कहीं कहीं बीच बीच में पत्थरों में एकदम पारदर्शी पानी भी था। बरसात का मौसम बीतने के कारण, नहाई हुई हरियाली थी।
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यहां मैं परेशान हो गई कि मनोहारी प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारुं या बस में चलने वाले भक्ति रस में खो जाऊं। फिर मैंने सोचा कि ये तो मेरे शहर के साथी हैं। इन्हें तो मां जग जननी दरबार में फिर भी मिल सकती हूं पर शाकम्बरी देवी के आसपास फैले खूबसूरत नजा़रों को देखने के लिए न जाने कब आना हो! अब मेरी बाहर से आंखे नहीं हट रहीं थीं और मंदिर आ गया। कहीं भी जाते समय मैं सबके साथ चलती हूं पर अकेली रह जाती थी। यहां मेरे मुंह से निकला ’शाकम्बरी देवी का निवास कितनी खूबसूरत जगह पर है!!’ सुनते ही वहीं के किसी सज्जन बताना शुरु कर दिया जिसे मैंने अपनी मैमारी में फीड कर लिया।
एक बार जब दुर्गम नामक दैत्य के कारण आतंक का माहौल था। दुर्गम ने चारों वेदों को चुरा लिया था। वेद न रहने से समस्त क्रियाएं लुप्त हो गईं। ब्राह्मणों के धर्मविहीन होने से यज्ञादि अनुष्ठान बंद हो गए। भयंकर अकाल पड़ा था। जीवन खत्म हो रहा था। और देवताओं की शक्ति क्षीण होने लगी। तब मां शाकम्बरी देवी अवतरित हुईं। जिनके सौ ने़त्र थे। भक्तों की ये दशा देख कर उनके नेत्रों से आंसू बहने लगे, जिससे जल प्रवाह हो गया। और कई तरह के शाक, वनस्पतियां निकल आए। साधु संत माता का चमत्कार देखने आए। खाने के लिए शाकाहार था और मां का नाम शाकम्बरी देवी पड़ गया। कहते हैं कि शाकम्बरी देवी की आराधना करने वालों के घर में हमेशा अन्न के भण्डार से भरे रहते हैं। शिवालिक पर्वत श्रेणी में, कल कल बहती जल धारा, ऊँचे पहाड़ और हरियाली में शाकम्बरी देवी का यह शक्तिपीठ सहारनपुर में देश के तीन में से एक है। शाकम्बरी देवी सहारनपुर की अधिष्ठात्री देवी हैं।
उत्तर भारत में वैष्णों देवी के बाद दूसरा सबसे प्रसिद्ध मंदिर है। नौ देवियों में मां शाकम्बरी देवी का स्वरुप सर्वाधिक करुणामय और ममतामयी है। सीढ़ियां चढ़ कर मां के दर्शन किए। जहां फोटोग्राफी मना होती है। मैं वहां नहीं करती। जब तक बस नहीं चली हरी भरी घाटी और पर्वत देखती रही। खूब मीठी चाय पी। क्रमशः
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