आजकल एक डॉयलाग सुनने को बहुत मिलता है, वो यह ’हम अपने बच्चे को वो सब देंगे, जो हमें नहीं मिला’। मेरा अपनी सोच है कि आप जो मर्जी दो अपने बच्चे को, आपका बच्चा है। पर उसे वह भी तो दो जो आपको मिला है। मतलब प्रकृति का साथ। यानि रेत, मिट्टी और पेड़ पौधों का साथ। कभी बच्चे को उसमें छोड़ का देखिए, इससे बच्चा कभी नहीं नहीं ऊबता जबकि मंहगे से महंगा खिलौना, बच्चा दो दिन बाद देखता भी नहीं है।
गीता छोटी थी तो मैं कुछ समय मुम्बई में रही। गीता के लिए सकीना सुबह नौ बजे से रात आठ बजे तक रहती थी। घर जाने से पहले वह गीता को तैयार करके, उसका बैग लगाती। जिसमें बॉक्स में कुछ खाने को, पानी की बोतल और एक खिलौना रहता। पानी को छोड़ कर रोज वो खिलौना और खाना बदलती। मेरे और गीता के साथ वह उसकी ट्राइसाइकिल लेकर आती। हम लिफ्ट से उतरते। लिफ्ट से बाहर आते ही गीता भागने लगती, मैं उसके पीछे, सब बच्चे गीता के गले मिलते। तब तक सकीना उसका सामान लेकर पहुंच जाती और बाय करके अपने घर चली जाती। ये उन बच्चों में सबसे छोटी थी। बच्चों की माएं एक तरफ कुर्सियों पर बैठ कर बतियातीं रहतीें थी। उनके छोटे छोटे बच्चे मिल कर खेलते थे। लोखण्डवाला की सोसाइटी में जिम था पर बच्चों के खेलने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी थी। छोटे छोटे बच्चे भी बड़े समझदार थे। एग्जिट गेट के पास थोड़ी सी जगह में खेलते थे क्योंकि रात में गाड़ियां बहुत कम निकलतीं थीं। गीता सभी बच्चों की बहुत चहेती थी। उसका इंतजार रहता था। कारण ये बच्चों को नये नये खेल सिखाती थी। मसलन जमीन पर लोटना, पल्टियां खाना वो सब खेल जिसमें कपड़े हाथ पैर सब गंदें हो जाएं। साढ़े नौ बजते ही सब अपने अपने घर चल देतीं। बच्चे फूट फूट कर रोते हुए घर जाते। गीता तो लिफ्ट के अंदर लेट ही जाती। अपना फ्लैट आने पर मैं उत्कर्षिनी को फोन करती, दोनो मिल कर उसे बाहर निकालते। उत्कर्षिनी उसे नहलाने की तैयारी करके रखती। मानसून में भी छाता, रेनकोट पहन कर बच्चे आते, तब ये लॉबी में खेलते। शुक्रवार को हम रात ग्यारह बजे मड जाते। वहां से संडे को रात ग्यारह के बाद लोखण्डवाला आते। क्योंकि रात में ट्रैफिक कम मिलता है। मड में बेसमैंट में पार्किंग है। घास पर बैंच हैं उस पर हम महिलाएं बतियाती रहतीं, बच्चे घास में खिलौने फैला कर, इंगलिश बोलते हुए आपस में खेलते रहते। बतियाने के चक्कर में, मैं कभी आगे पीछे गई ही नहीं। एक दिन थोड़ा घूमी, देखा मड में बच्चों के झूले पार्क में नीचे रेत बिछी हुई हैं। मुझे बचपन में रेत मिट्टी में खेलना बहुत पसंद था। मैंने गीता को रेत में छोड़ दिया। मैं स्लाइड के प्लेटर्फाम पर बैठ गीता के खेल देखने लगी। उस समय हमारे पास कोई खिलौना नहीं था। वह रेत में किलकारियां मार मार कर खेल रही थी, उसमें जी भर के लोट रही थी। पास से गुजरते हुए छोटे बच्चे, उसे देख कर मचलने लगते कि उन्हें भी रेत में खेलना है। पर उनके मां बाप बच्चों को दूसरी ओर ले गए। मुझसे बच्चों का रोना नहीं देखा जा रहा था। अब मैं गीता को रेत में सुबह नौ बजे के बाद लाती, धूप से बचने के लिए, प्लेट र्फाम की शेड में वह रेत में खेलती। अपनी बार्बी डॉल्स को भी रेत स्नान कराती। एक सहेली और साथ में आ गई, रेत में खेलने। बुरी तरह थकने पर मैं उसे घर लाती। उसे मैंने खिलौनोें में प्लास्टिक का बेलचा, फावड़ा, तसला ले दिया। जो गाड़ी की डिक्की में रखा रहता था। कभी गीता शाम को भी झूले पार्क की रेत में खेलने की जिद करती तो बाकि बच्चे न रोंय इसलिए मैं सयैद भाई से कहती पास के बीच पर ले चलो। वहां वह खुशी से अपने औजारों से समुद्र किनारे की गीली रेत खोदती भरती रहती।
समुद की रेत से घर आने में बहुत तंग करती|
गीता अमेरिका चली गई। मैं भी नौएडा आ गई। मैं सोचती थी कि गीता रेत में लोट लगाना मिस करेगी। उत्कर्षिनी का फोन आया कि मां हमने जहां घर लिया है, वहां जिम के साथ बच्चो का प्ले स्टेशन है। उसमें रेत में खेलने की जगह है। पर मैंने किसी को रेत में खेलते नहीं देखा। शायद बच्चे बीकएंड पर आएं। आज हम यहां सैटल हो गए हैं। इसे खेलने लेकर जाउंगी। मैंने मन में सोचा, बच्चे खेलते होंगे तभी तो एक हिस्से में रेत भरी है। उत्कर्षिनी उसे पार्क में लेकर गई। तरह तरह के झूले, सब छोड़ कर, उसकी आंखों में रेत देख कर चमक आ गई।
वह रेत में मस्त हो गई।