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Sunday, 7 July 2019

कबाड़ी और समाज सेवा नीलम भागी



       

 
                                                     
नीलम भागी


 मैं कबाड़ी को समाजसेवक समझती थी। कारण वह जिस भाव आपसे रद्दी खरीदता है, उसी भाव से थोक डीलर को उसके इलैक्ट्रॉनिक तराजू पर बेचता है। वह घर से बेकार सामान उठाता है, बदले में हमें पैसा देता है। वह ऐसा क्यों करता है? यह प्रश्न मेरे दिमाग में उठ खड़ा हुआ। अब उठ खड़े प्रश्न का बिठाने के लिए मैं जवाब ढूँढने लगी। अचानक मुझे जवाब मिल गया। एक तराजू विहीन महिला, लिफाफे बनाने के लिए रद्दी लेने आई। मैंने अपनी वेट मशीन पर तोलकर उसे रद्दी दे दी। मेरा दस दिन का कबाड़ पहले से दुगुने पैसों में बिका।
अब मेरी रिसर्च शुरु हो गई। कबाडी के पास जो सबसे कीमती चीज होती है, वह है उसका लकड़ी की डण्डी का तराजू, जिसे वह बैग में बड़ी हिफाज़त से रखता है। क्योंकि सारा नफ़ा उसके तराजू में ही होता है। उसके तराजू भी दो तरह के होते हैं।
पहला लकड़ी की मोटी डण्डी पर सूत के केन्द्र, और सूत की रस्सी से लटकते दो पलड़े। बाट उसके पास केवल आधा किलो का ही होता है। आपने सी-सॉ (ढेकली) पर पिता को केन्द्र के पास, छोटे बच्चे को दूसरी ओर के किनारे पर बैठा कर, बैलेंस बनाते देखा होगा। वही सिद्धांत यहाँ काम करता है।
कबाड़ी सबसे पहले एक ओर आधा किलो का वाट रख, दूसरी ओर रद्दी चढ़ा कर, रद्दी वाले हिस्से पलड़े, के फंदे को केन्द्र की ओर कर आधा किलो से बहुत ज्यादा रद्दी तोल कर उसे उस वॉट के साथ रख एक किलो से बहुत ज्यादा का वाट बना लेता है। अब फिर दो किलो का वाट बनाने के लिए वह दूसरी ओर फिर रद्दी चढ़ाता हेै। अब इस रद्दी को भी एक किलो के साथ रखकर, आपके लिए दो किलो (उसके लिए लगभग दुगुना) का वाट तैयार कर लेता है।
अब रद्दी तोलना शुरु, पर डण्डी कभी भी एक ओर झुकती नहीं हमेशा तनी रहती है। आपको घर बैठे कबाड़ से मुक्ति मिल जाती है। दूसरे प्रकार का तराजू spring balance होता है। स्ंिप्रग बैलेंस में 3 किलो के बाद अंदर कस कर एक रस्सी बंधी होती है। आप जितना भी वजन लटकाओ वह मामूली ही खिसकेगा। आपके भाग्य से यदि रस्सी टूट गई, तो आपको सही कीमत मिल जायेगी। लेकिन  पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती हैं। ये भेद भी मुझे एक ईमानदार कबाड़ी ने बताये। जब वह गाँव जाता है, तो उसको कबाड़ देने वालों के घर में, कबाड़ के ढेर लग जाते हैं। वे कबाड़ को कूड़े में डाल देते हैं, पर किसी दूसरे कबाड़ी को नहीं बेचते।
मैंने पूछा,’’ वे ऐसा क्यों करते हैं?’’ उन्होंने जवाब दिया ,’’कुछ कबाड़ी, कबाड़ के साथ-साथ आसपास की सफाई अच्छी कर देते हैं। कबाड़ खरीद कर जब वे जाते हैं। तो प्लास्टिक का डस्टबिन, स्क्रैपर गायब होगा।’’अब मैंने भी इस ईमानदार कबाड़ी को कबाड़ बेचना शुरु कर दिया।


5 comments:

Dr. Amit Sinha said...

आपकी स्टोरी पढ़कर मजा आ गया नीलम जी👍🙏

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद अमित जी

विश्व बंधु वशिष्ठ said...

मैं जयपुर (राजस्थान) से एक सिनियर सिटीजन हूं।
मेरा सुझाव है कि ये जो नेपाल यात्रा वृतांत धारावाहिक रूप में लिख रही हैं, इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाएं। ऐसे टुकड़े-टुकड़े पढ़ने में संतुष्टि नहीं मिल पा रही।

Neelam Bhagi said...

वशिष्ट जी प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद कोशिश करती हूं।

Neelam Bhagi said...

वशिष्ट जी प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद कोशिश करती हूं।