Search This Blog

Monday, 11 May 2020

गोर्वधन वही आते हैं, जिन्हें गिरि जी बुलाते हैं मथुरा यात्रा भाग 13 Mathura yatra Part 13 Goverdhan नीलम भागी



दोपहर ढलने लगी थी। हम गोर्वधन की ओर चल पड़े पर दिमाग में बरसाना छाया हुआ था। मुझे श्वेता की बरसाना यात्रा याद आ गई। उसने बताया कि उनके परिवार और मित्रों का ग्रुप देवबंद से बरसाना की होली देखने होली से दो दिन पहले आये। वो ये सोच कर अपना सबसे सुन्दर सूट पहन कर, लाडली महल की ओर सबके साथ चल दी कि रंग तो होली के दिन ही खेला जायेगा। यहां सब लड़कियों को राधा ही कहते हैं। रास्ते की दुकानों से साथ की सारी राधाओं ने चूड़ियां, कंगन और माला भी खरीद कर पहन लीं।  रंगीली गली के पास किसी ने छत से उन पर रंग डाल दिया। सब राधाएं बहुत दुखी हुईं क्योंकि सभी अपने बैस्ट कपड़े पहन कर गईं थीं। मथुरा स्टेशन से गोर्वधन 22 किमी दूर है। वहां से बस, जीप, टैक्सी खूब मिलती है। हम जब पहुंचे तो सात दिसम्बर था। इसलिए शाम जल्दी हो गई थी। गैस्ट हाउस में अपने रुम में जाते ही मैं लेट गई। रास्ते में हमने प्रोग्राम बना लिया था कि चाय पीते ही  गिरिराज जी की परिक्रमा शुरु कर देंगे। कुछ चाहते थे कि सुबह जल्दी उठ कर परिक्रमा शुरु करें। मैंने कहा कि सुबह जल्दी उठने के चक्कर में रात को ठीक से नींद नहीं आयेगीं। रात को करने से सुबह देर तक सो लूंगी। इतने में चाय के लिए बुलावा आ गया। ढोकला और चाय का आनन्द उठा कर, नंगे पांव चल दिए। दानघाटी में दानराय जी के मंदिर से परिक्रमा शुरु की। हरा भरा गोवर्धन पर्वत, कहीं पर रेत में चलते हैं तो कहीं पर पक्का रास्ता था। सात कोसी यानि 21 किमी की यात्रा थी। कभी पर्वत से र्सर से नील गायं दौड़ती निकल जाती। पूर्णिमा थी अंधेरा होत ही चंादनी फैल गई। पता नहीं कहां कहां से देश के कोने से लोग आए हुए थे। हरेक ग्रुप में एक ज्ञानी था जो गोवर्धन से सम्बधिंत कहानियां, कथा सुनाता था। मैं किसी भी ग्रुप के साथ सुनती, बतियाती चल पड़ती। परिक्रमा र्माग तो एक ही है, भटकने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। बचपन से ही दीवाली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिप्रदा को घर में अन्नकूट का त्यौहार मनाते हैं। क्यों मनाते हैं? इसकी कहानी सुनते थे। गाय के गोबर से बने गिरिराज जी की परिक्रमा करते और भगवान को भोग लगाते हुए कहते ’जिसने खाया छप्पन भोग, उसके कट गए सारे रोग।’
और आज कन्हैया की लीलास्थली गोवर्धन पर्वत की कथाएं सुनती हुई परिक्रमा कर रहीं हूं। ऋषि पुलस्त्य इस पर्वत की खूबसूरती से बहुत प्रभावित हुए। वे द्रोणाचल पर्वत से इसे उठा कर लाने लगे तो उसने कहा कि मैं आपके साथ चलता हूं, लेकिन आप पहली बार मुझे जहां रक्खेंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। तब उनकी ऊंचाई 3000मीटर थी। यहां पहुंच कर ऋपि का साधना का समय हो गया। गिरिराज जी को रख कर वे साधना में लीन हो गए। जब वे साधना से उठे तो पर्वत को उठाना चाहा। वो तो हिले भी नहीं। ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया कि तुम धीरे धीरे घटते जाओगे और आज उनकी ऊंचाई तीस मीटर रह गई है।
एक जगह लाल रंग से लिखी इन पंक्तियों पर नज़र अटक जाती है।
इरादे रोज बनते हैं लेकिन, बन कर बिगड़ जाते हैं।
गोर्वधन वही आते हैं, जिन्हें गिरि जी बुलाते हैं।
 क्रमशः   







4 comments:

Sanjiv Singhal said...

Nice narration ..

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Surjeet said...

धन्यवाद इस मोटीवेशनल लेख के लिए। यह मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है। मेरा यह लेख भी पढ़ें मथुरा में घूमने की जगह

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद