मैं बाल फैलाए अपने स्कूल वैन का इंतजार कर रही थी। कामवालियों ने देखते ही मुझे कहा,’’दीदी बाल बाँध लो।’’ यह सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया। कितनी मेहनत से मैंने बाल सैट किए थे। मैं बाल खुले रखूं या बंधन में रखूं, कैसा मैं हेयरस्टाइल बनाउँ, यह मुझे मेड बतायेंगी भला!! मैं कुछ बोलती, उससे पहले वे बोलीं,’’दीदी, बंदर न, आपकी जुएँ बिनने आ जायेगा।’’ सुनकर मुझे घिन आई। जुएँ और मेरे बालों में!! न न न। इतने में उत्कर्षिनी ने एक मोटे से बंदर की ओर इशारा किया, जो उस समय धोबी की प्रेस की राख को चूरन की तरह चाट रहा था। वह बोली,’’एक दिन वह बाल धोकर, बैठी धूप में सूखा रहीं थी। उन्हें बालों में कुछ अजीब सा लगा। इतने में शाम्भवी आई, वो मुझको इशारा करे, डर से उसके मुहँ से आवाज नहीं निकल रही थी क्योंकि पीछे बैठा बंदर उसके सिर से जूएँ ढूँढ रहा था, जो उसे मिलनी नहीं थी। वे हिली डुली नहीं। उन्हें दहशत हो रही थी कि जूँ न मिलने पर वह उन्हें थप्पड़ न मार दे।’ शाम्भवी ने चौकीदार को बुलाया, उसने लाठी की मदद से बंदर को भगाया।’’ कई दिन बाद मैं अपने सैकेण्ड फ्लोर पर गई। वहाँ लगा बड़ा कूलर खिड़की से हटा हुआ था। बुरी आशंका से अंदर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। बड़ी हिम्मत करके अंदर गई। अंदर सबकुछ ठीक था। बस बंदर की जगह जगह पौटी पड़ी थी।

बंदरों का ग्रुप उत्पात मचाने आता है। हम देखते ही सावधान हो जाते हैं। मसलन दवाजे खिड़कियाँ बंद कर लेते हैं। ये इकलौता बंदर अपने ग्रुप से अलग है। सुबह नौ से पहले शाम को पाँच बजे के बाद आता है क्योंकि पहले लंगूर वाला नौ से पाँच आता था। पता नहीं, इसे समय कैसे पता चलता है!! इसके शौक निराले हैं। जैसे फालतू कुत्ते इस पर भौंकते हैं। इस पर कोई असर नहीं होता। जब वे भौंकना बंद कर देते हैं तो पीछे से जाकर किसी कुत्ते की पूंछ खींच कर भाग जाता हैं। लेकिन पालतू नस्ल दार बंधे कुत्तों को ये खूब चिढ़ाता है। सुबह स्कूली बच्चे, वैन और स्कूल बस के प्वाइंट पर खड़े होते हैं। देर होने पर नाश्ते का परांठा, सैंडविच उनके हाथ में होता है। बंदर उन्हें धमकाकर झपट लेता है। फिर बच्चों के सामने बैठ कर खाता है। स्कूल की छुट्टी के दिन वह गमलों से पौधे निकालकर जमीन पर रख देता हैं।
कल इस शौकीन बंदर ने मेरे दस साल पुराने बौंसाई ट्रे से निकाल कर जमीन पर रख दिए। फिर पता नहीं क्या सोच कर, उनको जमीन से उठा कर ट्रे में ढूंस दिए। मैं उसे भगाने लगी तो भागने से पहले उन्हें लिटा दिया। अब तो आने वाला समय बतायेगा कि मेरे बौंसाई बचेंगे या मरेंगे।
एक कबाड़ पॉट में मैंने मनी प्लांट लगाकर दीवार पर रखा हुआ था। बंदर को पता नहीं क्या शरारत सूझी उसने पूरा जोर लगा कर उस पॉट को नीचे फेंक दिया। जब रखती हूं वह नीचे फेंक देता है। अब मैंने उसकी जगह नीचे ही कर दी। बस वह पॉट दीवार की चौड़ाई के साइज का है और उसमें से मनी की शाखाएं निकलती हुई ऐसे लगती थीं जैसे हाथी की सूंड है। चलो बंदर की मर्जी।









मुझे भीड़ से ऐसा कोई डर नहीं था। साफ सुथरा पथ उस पर कोई कील पिन नही, इसलिए टायर पंचर का भी डर नहीं था। इस्तेमाल न होने के कारण कहीं कहीं कबाडियों ने जगह का उपयोग कबाड़ रख कर किया था।
अभी मेरी साइकिल ने स्पीड पकड़ी ही थी कि बस स्टैंड आ गया। सड़क पर आने के लिए ढलान थी, तो उतरते हुए साइकिल की स्पीड बढ़ गई। कोई बात नहीं क्योंकि बस स्टैण्ड के बाद फिर ऊँचाई पर साइकिल पथ था। पर ये क्या! उसके मुहं पर तीन छोटे खंबे लगे थे। खंबे लगवाने वाले जीनियस का मकसद है कि इसके बीच में से सिर्फ साइकिल गुजरे। पर मैं तो सरकस में काम नहीं करती कि स्पीड से आते हुए उसमें से निकल जाऊँ।
थोड़ी थोड़ी देर बाद ये घटना रिपीट होती और मुझे बहुत गुस्सा आता पर मैं गुस्सा थूक देती, जब मैं मन में साइकिल चलाने के फायदे दोहराती क्योंकि मेरी कैलोरीज़ बर्न हो रहीं थीं, साइकिल चलाने से भविष्य में मुझे घुटनों की तकलीफ़ नहीं होनी थी। लेकिन बीच में लगी दुकानों का मैं क्या करुँ?
साइकिल उठा कर, मैं सड़क पर कूद भी नहीं सकती और न ही भीड़ में साइकिल चला सकती हूँ, फिर साइकिल उठा कर ट्रैक पर भी चढ़ नहीं सकती। अब सोचती हूँ, पहले वेटलिफ्टंग सीखँू फिर साइकिल चलाने के फायदों का लाभ उठाऊँ।



कुछ ध्यान रख रहे थे कि सड़क पर जाम न लग जाए। बड़े बड़े ड्रम रखे थे कि लोग पीने के बाद पेपर का गिलास ड्रम में डालें। जगह जगह लिख कर भी लगाया गया था कि शरबत पीने के बाद गिलास डस्टबिन में डालें। पर कुछ लोग पैदायशी ऐसे होते हैं कि उनके लिए सड़क ही डस्टबिन होती है इसलिए वे शरबत पी कर सड़क पर ही गिलास फैंक रहे थे। लेकिन सदस्य भी जैसे ही मौका मिलता, जल्दी से जूठे गिलास उठा कर ड्रम में डाल देते क्योंकि वे सड़क का सम्मान जो करते हैं। ये काम आसान नहीं था। बहुत चलती हुई सड़क थी, लाल बत्ती होने पर सावधानी से जूठे गिलास उठाए जाते। प्रचार से दूर रहने वाले जी.के.बंसल महासचिव मुझे सामने कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। अचानक मेरी साइड में नज़र पड़ी, वे बड़े ड्रमों में जूठे गिलास भर रहे थे।
जब ड्रम भर जाता तो उन कागज़ के गिलासों को बीस लीटर की मिनरल वाटर की खाली बोतल से दबाते ताकि और जूठे गिलासों के लिए जगह बन जाए। जून के महीने की धूप की परवाह किए बिना, अपने काम में लगे हुए थे।
और मुझे कहीं पढ़ा पाण्डवों का राजसू यज्ञ याद आ गया। श्री कृष्ण ने उस विशाल आयोजन में सबको काम बांट दिए। अपनेे लिए कोई काम ही नहीं रखा। पर उस समय सब हैरान हो गए, जब भगवान कृष्ण को सबने जूठी पत्तलें उठाते देखा। युधिष्ठर के मना करने पर कृष्ण का जवाब था कि जिसको जो काम सौंपा था वो अपना काम कर रहा है न। मैंने अपने लिए ये काम रखा था इसलिए मुझे भी मेरा काम करने दो। सदस्य पसीने से तर सेवा कर रहे थे। गुरिन्दर बसंल कचरा प्रबंधन कर, सड़क का सम्मान कर रहे थे। साधूवाद पंजाबी विकास मंच के लिए। 


अब वे धुले कपड़े जैसे जैसे सूखते जायेंगे, उन्हें उतार कर तह लगा देतीं हैं। कहीं से उधड़ा हो या बटन टूटा हो तो अपने आप सुई में धागा डाल कर रिपेयर कर देतीं हैं। वैण्डर अखबार रैगुलर लाने लगा है। उनकी दिनचर्या पहले जैसी हो गई है। जो घर के आगे से गुजरते हुए, अम्मा को शाम को झाड़ू लगाते और मुझे कुर्सी पर बैठे देखता है। उसका ऐसे देखना लाज़मी है। 


मैंने देखा शाश्वत स्कूल बस से उतरते ही पहले अपने पौधे में वाटर बोतल का बचा हुआ पानी डालता है फिर घर जाता है। अदम्य जब स्कूल जाने लगा तो वह भी अपनी बोतल का बचा पानी भाई के लगाए पौधे में डालता। उसका जन्मदिन जून में आता है। नर्सरी में उसने भी अपना जन्मदिन पेड़ लगा कर मनाने की जिद पकड़ ली। उन दिनों नौएडा में भयंकर लू चलती हैं। नया पेड़ बचाना मुश्किल होता है। माली अंकल ने आकर समझाया। तो वह माना लेकिन जुलाई में शाश्वत के जन्मदिन से पहले बरसात में अदम्य से पेड़ लगवाया। वे किराये पर रहते हैं। जिस भी सोसाइटी में रहने जाते हैं, वहां पेड़ों की सौगात छोड़ कर आते हैं।
को कहा। अदम्य ने अब तक एक पेड़ पिछले साल शाश्वत के साथ लगाया था। अब अंकुर नर्सरी से पेड लेकर आया। अदम्य को गिन कर पेड़ दिए और एक शाश्वत को दिया क्योंकि वह तो हर साल पेड़ लगाता है। हमेशा की तरह बच्चे रात को, अपने पौधे को अपने
पास रख कर सोए। इस समय ऑनलाइन पढ़ने वाले, घर में रहने वाले शाश्वत और अदम्य कोरोना बचाव के नियम पालन करते हुए हमेशा की तरह अपने जन्मदिन पर पौधे लगा कर आए। मुझे तस्वीरें भेजीं। जिन्हें देख कर मैं बोली,’’ तुम जियो हजारो साल और वायु प्रदूषण कम करने में अपना इसी तरह योगदान दो।’’ 
आजकल एक डॉयलाग सुनने को बहुत मिलता है, वो यह ’हम अपने बच्चे को वो सब देंगे, जो हमें नहीं मिला’। मेरा अपनी सोच है कि आप जो मर्जी दो अपने बच्चे को, आपका बच्चा है। पर उसे वह भी तो दो जो आपको मिला है। मतलब प्रकृति का साथ। यानि रेत, मिट्टी और पेड़ पौधों का साथ। कभी बच्चे को उसमें छोड़ का देखिए, इससे बच्चा कभी नहीं नहीं ऊबता जबकि मंहगे से महंगा खिलौना, बच्चा दो दिन बाद देखता भी नहीं है।
साढ़े नौ बजते ही सब अपने अपने घर चल देतीं। बच्चे फूट फूट कर रोते हुए घर जाते। गीता तो लिफ्ट के अंदर लेट ही जाती।
अपना फ्लैट आने पर मैं उत्कर्षिनी को फोन करती, दोनो मिल कर उसे बाहर निकालते। उत्कर्षिनी उसे नहलाने की तैयारी करके रखती। मानसून में भी छाता, रेनकोट पहन कर बच्चे आते, तब ये लॉबी में खेलते। शुक्रवार को हम रात ग्यारह बजे मड जाते। वहां से संडे को रात ग्यारह के बाद लोखण्डवाला आते। क्योंकि रात में ट्रैफिक कम मिलता है। मड में बेसमैंट में पार्किंग है। घास पर बैंच हैं उस पर हम महिलाएं बतियाती रहतीं, बच्चे घास में खिलौने फैला कर, इंगलिश बोलते हुए आपस में खेलते रहते। बतियाने के चक्कर में, मैं कभी आगे पीछे गई ही नहीं। एक दिन थोड़ा घूमी, देखा मड में बच्चों के झूले पार्क में नीचे रेत बिछी हुई हैं। मुझे बचपन में रेत मिट्टी में खेलना बहुत पसंद था।
मैंने गीता को रेत में छोड़ दिया।
मैं स्लाइड के प्लेटर्फाम पर बैठ गीता के खेल देखने लगी। उस समय हमारे पास कोई खिलौना नहीं था। वह रेत में किलकारियां मार मार कर खेल रही थी, उसमें जी भर के लोट रही थी। पास से गुजरते हुए छोटे बच्चे, उसे देख कर मचलने लगते कि उन्हें भी रेत में खेलना है। पर उनके मां बाप बच्चों को दूसरी ओर ले गए। मुझसे बच्चों का रोना नहीं देखा जा रहा था।
अब मैं गीता को रेत में सुबह नौ बजे के बाद लाती, धूप से बचने के लिए, प्लेट र्फाम की शेड में वह रेत में खेलती। अपनी बार्बी डॉल्स को भी रेत स्नान कराती।
एक सहेली और साथ में आ गई, रेत में खेलने। बुरी तरह थकने पर मैं उसे घर लाती। उसे मैंने खिलौनोें में प्लास्टिक का बेलचा, फावड़ा, तसला ले दिया। जो गाड़ी की डिक्की में रखा रहता था। कभी गीता शाम को भी झूले पार्क की रेत में खेलने की जिद करती तो बाकि बच्चे न रोंय इसलिए मैं सयैद भाई से कहती पास के बीच पर ले चलो। वहां वह खुशी से अपने औजारों से समुद्र किनारे की गीली रेत खोदती भरती रहती।




