प्रयागराज में दादी पत्तलवाली दावत खाकर आई। लड्डू, कचौड़ी, आलू के झोल आदि का कोई ज़िक्र नहीं बस कुल्लड़ में साथ में पिया सन्नाटा उन्हें याद रहा। पंजाब की थक्के जैसे दहीं में भल्ले, बूंदी का रायता खाने वाली दादी ने पहली बार सन्नाटा पिया तो उन्हें बहुत अच्छा लगा। नया व्यंजन ट्राई करना फिर उसे सीखे बिना उनको चैन नहीं पड़ता था। जब उन्होंने सीख लिया तब से हमारे घर में दिवाली पर जलने वाला मिट्टी का दिया और कुल्हड़ हमेशा रहता है। पूड़ी कचौड़ी बनने पर साथ में दादी सन्नाटा बनातीं। इसके लिये वे घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से एक बड़े से बर्तन में दहीं डाल कर अच्छी तरह मथ कर एक सार कर लेतीं। उसमें छाछ की तरह पानी मिलाती फिर भूना जीरा और भूनी काली मिर्च का पाउडर, नमक और काला नमक मिलातीं। बहुत बारीक कटी हरी मिर्च के साथ गर्मियों में पौदीना और सर्दियों में धनियां डालतीं और बूंदी बिना भिगोये निचोड़े डायरेक्ट सन्नाटे में तैरातीं। अगर सन्नाटे की मात्रा कम हैं तो बघार के लिए चूल्हे में दिया तपता और अगर ज्यादा सन्नाटा है तो कुल्हड़ तपाया जाता था। एक कलछी में सरसों का तेल उसमें हींग और जीरा तैयार रहता। जब कुल्हड़ अच्छी तरह तप जाता, तब इस तपे हुए कुल्हड़ को सड़ासी से पकड़ कर उसमें तैयार कलछी का तेल, हींग, जीरा डाल कर, उसे सन्नाटे के बर्तन में ले जाकर डाल कर ढक दिया जाता। दादी धुंएं की महक से ही समझ जाती कि सब धुआं रायते में समा गया है और कुल्लड़ उसमें छोड़ देतीं। सबसे पहले सन्नाटा तैयार करते हैं। खाने के समय तक ये खट्टा होता जाता है और स्वाद बढ़ता जाता है। कम पड़ने पर बूंदी पानी और रायता मसाला मिला कर बड़ा लिया जाता है। शायद इससे ही मुहावरा बना है रायता फैलाना।
कुल्हड का बघार इसके स्वाद को लाजवाब कर देता है। सऩ्नाटा आज भी वैसे ही बनता है। बस दिया चूल्हे की बजाय गैस पर तपता है। सन्नाटे पर बात चली तो अंकुर ने बताया कि मेरठ में लाला के बाजार और कोतवाली के पास अब भी सन्नाटा बिकता है।
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