दीपावली पर सज धज कर, परिवार के साथ हमारा बाजारों , मेलों, सांस्कृतिक आयोजनों में जाना हमारी परंपरा में है। हम वहां पर की गई सजावट देखते हैं। खरीदारी करते हैं और सबसे बड़ी बात, घूम कर, बच्चे बहुत खुश होते हैं। हमारे जाने से, वहां की रौनक बढ़ाने में, हमारा भी सहयोग होता है। सहयोग करना तो पुण्य का काम है। सड़क किनारे बैठे हुए, छोटे-छोटे दुकान लगाने वाले भी महीनों तैयारी करते हैं। जब वे सामान बनाते हैं तो उन्हें आस होती है कि आप उनके सामान को कम से कम देखें ज़रूर। आप उनसे खरीदते हैं तो उस समय उनके चेहरे की खुशी देखने लायक होती है। आपने बिना सोचे ही उनको प्रमोद किया है! आगे के लिए उनका उत्साह बढ़ाया है। वैसे भी यह त्यौहार खर्च और निवेश का है। दिवाली का त्यौहार धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर मनाया जाता है। लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से ही होती है ताकि गरीब अमीर सब करें। लेकिन मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है। उपहार का लेनदेन चलता है। भारतवासी दुनिया के किसी भी कोने में रहें। सज धज कर परिवार के साथ मंदिर जाना और बाजारों में घूमने का लोभ नहीं छोड़ते इसलिए जाते ही हैं। आप बच्चों को ऑन लाइन कुछ भी दिलाएं लेकिन अगर घूमने नहीं लेकर गए तो उनको त्यौहार नहीं लगता। उत्कर्षनी राजीव भी गीता दित्त्या को दिवाली पर मंदिर और वहीं अमेरिका के मॉल में घुमाने लेकर गए हैं। त्योहार, उत्कर्षनी भारत की तरह ही मनाती है।
उत्कर्षिनी वशिष्ठ (इस वर्ष दो राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार, जी सिनेमा अर्वाड, फिल्म फेयर अर्वाड, दो आइफा अर्वाड से सम्मानित अंर्तराष्ट्रीय लेखिका) का कहना है कि हम जहाँ भी जाते हैं,अपनी भारतीय संस्कृति नहीं छोडते हैं। अमेरिका में रहती हूँ पर दिवाली में घर में फैली पकवानों की महक दिमाग पर छाने लगती है। वही महक मैं यहाँ पकवान बना कर फैलाती हूँं। मेरी बेटियाँ मदद करती हैं। दिवाली पर सुनी कहानियाँ गीता अपने मित्रों को सुनाती है और उन्हें बुलाती है। हमारी दिवाली का मित्र इंतजार करते हैं। गीता दित्त्या के नन्हें मित्र भी दिवाली त्यौहारों का इंतजार करते हैं।