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Wednesday, 5 October 2022

व्यस्त और रंगीन सांस्कृतिक गतिविधियों का अक्तूबर! भाग 2 उत्सव मंथन नीलम भागी Utsav Manthan October Part 2 Neelam Bhagi

 


आज हर रामकथा के मूल में भगवान बाल्मीकि की रामायण है।

पहले महाकाव्य ’रामायण’ के रचयिता महाकवि महर्षि वाल्मिकी जयंती अश्विन महीने की पूर्णिमा(9 अक्तूबर) को मनाई जाती है। जगह जगह जुलूस और शोेभायात्रा निकाली जाती है। लोगों में बहुत उत्साह होता है। 

कंगाली बिहु(13 अक्टूबर) इस समय धान की फसल लहलहा रही होती है। लेकिन किसानों के खलिहान खाली होते हैं। इसमें खेत में या तुलसी के नीचे दिया जला कर अच्छी फसल की कामना करते हैं यानि यह प्रार्थना उत्सव है। भेंट में एक दूसरे को गमझा(गामुस) देते हैं।


कोंगाली बिहू से ये भी युवाओं को समझ आ जाता है कि मितव्यवता से भी उत्सव मनाया जाता है।

 सौभाग्यवती महिलाएं पति की लम्बी आयु के लिए निर्जला करवाचौथ(13 अक्टूबर) का व्रत रखती हैं। महिलाएं श्रृंगार करके रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देकर पति के हाथ से पानी पीतीं हैं और व्रत का पारण करतीं हैं।   


अहोई अष्टमी(17 अक्तूबर)पुत्रवती महिलाएं पुत्र की लम्बी आयु और उसके सुखमय जीवन की कामना के लिये यह निर्जला व्रत रखती हैं। शाम को तारे को अर्ध्य देकर व्रत का पारण करतीं हैं।


मेरी अम्मा ने परिवार में इस व्रत को पुत्र की जगह संतान के लिए कर दिया है। पोती के जन्म पर अम्मा ने भारती से व्रत यह कह कर करवाया कि बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं है। यह व्रत संतान के अच्छे स्वास्थ लिए करो। मेरी भाभी दोनों बेटियों शांभवी, सर्वज्ञा के लिये करती हैं। मेरी बेटी उत्कर्षिणी अपनी दोनों बेटियों गीता और दित्या के लिए करती है। 93 साल की अम्मा, दूसरी पीढ़ी में भी बेटियों के लिए अहोई का व्रत उत्कर्षिणी को रखते देख बहुत खुश हैं।




धनतेरस को खूब खरीदारी की जाती है। जिससे शुभ लाभ होता है और यह चार दिवसीय दिवाली का त्यौहार सब उल्लास से मनाते हैं।

दीपावली उत्सव धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर मनाया जाता है। लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से ही होती है ताकि गरीब अमीर सब करें। लेकिन मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है।





दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार या सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं।


 यम द्वितीया का त्यौहर, भाई दूज है। मथुरा में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। कथा है सूयदेव की पत्नी संज्ञा की दो संताने यमी और यमुना हैं। यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसा ली। वहां वह पापियों को दण्ड देने का काम करते थे। यमराज का ये काम यमुना को अच्छा नहीं लगता तो वह गोलोक चली गईं। यमराज और यमुना में बहुत स्नेह था। यमुना जी उन्हें बार बार आने का निमन्त्रण देतीं, पर काम में बहुत व्यस्त होने के कारण, वे बहन का निमंत्रण स्वीकार नहीं कर सके। अचानक एक दिन उन्हें बहन की बहुत याद आई। उन्होंने यमुना जी को ढूंढने के लिए दूतों को भेजा, वे पता नहीं लगा पाए। फिर वे स्वयं ढूंढने आए। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को विश्राम घाट पर यमराज और यमुना का मिलन हुआ था। यमुना जी भाई को मिल कर बहुत प्रसन्न हुईं। उनके लिए स्वयं भोजन बनाया। यमराज बहन के व्यवहार से प्रसन्न होकर बोले कि वह उनसे कोई भी वरदान मांगे। यमुना जी ने छूटते ही मांगा कि जो नर नारी उनके जल में स्नान करें, वे यमपुरी न जाएं। सुनकर यमराज सोच में पड़ गये कि ऐसे तो यमपुरी का महत्व ही खत्म हो जायेगा। भाई को सोच विचार में पड़ते देख, यमुना जी बोली,’’नहीं नहीं, जो बहन भाई आज के दिन यहां स्नान करेंगे या आज के दिन भाई, बहन के घर जाकर भोजन करेगा, उसे यमपुरी न जाना पड़े। यमराज तुरंत प्रसन्न होकर बोले,’’ठीक है, ऐसा ही होगा।’’

  कहते हैं कि विवाह के बाद कृष्ण भी पहली बार सुभद्रा से यहीं मिले थे। भाई बहन का त्यौहार भइया दूज कहलाता है। भाई बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भाई बहन को उपहार देता है।

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति,  सूर्योपासना, निर्जला व्रत के इस पर्व को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। 


पौराणिक और लोक कथाओं में छठ पूजा की परम्परा और महत्व की अनेक कथाएं हैं। देवता के रुप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सृष्टि पालनकर्ता सूर्य को, आरोग्य देवता के रुप में पूजा जाता है। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। रोगमुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई। एक मान्यता के अनुसार भगवान राम ने लंका विजय के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सीता जी के साथ उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को पुनः सूर्योदय पर अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आर्शीवाद प्राप्त किया था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई। कर्ण प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में अर्घ्य देने की यही पद्धति प्रचलित है। इन सब से अलग बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के जन सामान्य द्वारा किसान और ग्रामीणों के रंगों में रंगी अपनी उपासना पद्धति है। सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु सबसे जो कुछ उसे प्राप्त हैं, उसके आभार स्वरुप छठ मइया की कुटुम्ब, पड़ोसियों के साथ पूजा करना है, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। 

चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्य अस्त पर चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्रत शुरु होता है निर्जला व्रत , दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्या अस्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।

हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करना, परिवार और सामाजिक समारोहों, खरीदारी करना और उपहार देना, भण्डारे करना, पंडाल का भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन और पर्यटन के लिए छुट्टियां भी हैं।

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित केशव संवाद पत्रिका के अक्टूबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।