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Friday, 3 January 2025

अध्यात्म, कला के साधकों, सांस्कृतिक गतिविधियों का जनवरी नीलम भागी

संगीत में आत्मा को सुकून देने की क्षमता होती है। इसलिए लोगों को संगीत के प्रति जागरूक करने के लिए हिन्दू धर्म में संगीत महोत्सवों का आयोजन किया जाता है। सबसे बड़ा वार्षिक सांस्कृतिक संगीत कार्यक्रम मद्रास संगीत महोत्सव एक महीने तक चल कर 15 जनवरी को समापन होगा। इस महोत्सव के दौरान पूरे चेननई में पारंपरिक नृत्य, दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत और संगीत से जुड़े कई सेमिनार, प्रदर्शन और चर्चाएं होतीं हैं। इनकी संख्या 1000 से ज्यादा होती है। 3 से 9 जनवरी तक मद्रास एकादमी, मद्रास द्वारा 18 वां नृत्य महोत्सव का आयोजन है।  

गुरू गोविंद सिंह जयंती(6 जनवरी) सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरू गोविंद सिंह जी का जन्मोत्सव दुनिया भर के गुरूद्वारों में मनाया जाता है।

गंगा सागर मेला ’’सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार’’ मकर संक्राति (14 जनवरी) को गंगा जी जहाँ सागर (बंगाल की खाड़ी) में विलीन होती हैं, वहीं उनके सागर में समाने से पहले, वहाँ गंगा जी में पवित्र डुबकी लगाने के लिए तीर्थयात्री देश विदेश से गंगासागर पहुँचते हैं। यहाँ 8 जनवरी से 16 जनवरी को लगने वाले मेले को गंगा सागर मेला कहते हैं। लेकिन डुबकी मकर संक्राति को ही लगाई जाती है।

 बीकानेर ऊँट महोत्सव(11 से 12 जनवरी) इसकी शुरूवात जूनागढ़ किले के परिसर से ऊँटों के एक रंगीन जुलूस से होती है। राष्ट्रीय युवा महोत्सव पर 12 जनवरी( स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस ) को आयोजित किया जा रहा है। जिसमें स्वामी विवेकानन्द जो युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं उनके विचारों और दर्शन को अपनाने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया जाता है। 

अंतर्राष्ट्रीय पतंग महोत्सव(11 -14 जनवरी) साबरमती रिवरफ्रंट अहमदाबाद में पतंगबाज पहुंचेंगे। और देशभर में मसलन अमृतसर में छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। यहां लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। घरवालों को पतंगाजों खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे, वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। शाम को लोहड़ी जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज, लोहड़ी मनाने, ढोल पर नाचने के लिए नीचे उतरकर आते हैं। बाकि बची पतंगे संक्रांति को उड़ाते हैं। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकर सक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ, खाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहंू, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहलहा रही होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल, चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर, थोड़ा अग्नि को अर्पित कर, प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। भोज भी करते  हैं। कडा़के की सर्दी में आग के पास ढोलक पर उत्सव के अवसरों पर गाये जाने वाले अलिखित और अज्ञात रचनाकारों द्वारा रचित अनेकानेक लोकगीत सुनने को मिलते हैं। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परांपरा से सुरक्षित है। अगले दिन मकर संक्राति को खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी और तिल के लड्डू खाये जाते हैं। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी, पापड,़ दहीं, अचार’। क्योंकि देशभर में कई शहरों में पतंगे मकर संक्रांति को उड़ाने की परंपरा है इसलिए इसे पतंग उत्सव भी कहते हैं। कुछ राज्यों तेलंगाना, गुजरात, राजस्थान, पंजाब में ’पतंग महोत्सव’ मनाया जाता है। उत्तर भारत में इन दिनों कड़ाके की ठंड पड़ती है। इस दिन पतंगें उड़ाते हुए, कई घंटे सूर्य के प्रकाश में बिताना शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक और त्वचा व हड्डियों के लिए बेहद लाभदायक होता है।

शाकंभरी देवी जयंती उत्सव(13 जनवरी) माँ शाकंभरी देवी मंदिर सहारनपुर में मेले का आयोजन किया जाता है। इस दिन लाखों भक्त दर्शन के लिए आते हैं। 

धार्मिक तीर्थ यात्रा महाकुंभ महापर्व मेला प्रयागराज में 13 जनवरी को आयोजित होने जा रहा है। यहां चारों आचार्यों, रामानुज, मध्व, निर्म्बाण और वल्लभ संप्रदाय से जुड़े सन्यासी और अखाड़े भी एकत्रित होते हैं। आज भारत मे मान्यता प्राप्त अखाड़ों की संख्या 13 हो गई है। हर अखाड़े का अपना इतिहास है। पहले इन्हें साधू संयासियों का जत्था कहा जाता था। मुगलकाल में इन्हें अखाड़ा नाम दिया गया। यह शैव, वैष्णव एवं उदासीन पन्त के सन्यासियों के अखाड़े हैं। जोे शास्त्र विद्या में भी महारती होते हैं। सन्यासी तप साधना र्माग से आगे बढ़े हैं। उनका शास्त्रज्ञ होना आवश्यक नहीं है। शास्त्रज्ञ की भूमिका में अखाड़े के आचार्य होते हैं। आचार्य नये सन्यासियों को दीक्षा देते हैैं। महन्त और आचार्य पद सामान महत्व के पद हैं।  अखाड़े तप साधना में लीन सन्यासियों का संगठन होता है। इनके शीर्ष पर महन्त विराजमान होते हैं। हर अखाड़ा शास्त्रज्ञ सन्यासियों को अपने महामंडलेश्वर के पद पर अभिषिक्त करता हेै। प्रचार प्रसार के इस युग में  महामंडलेश्वर का पद वैभवपूर्ण हो गया है। कुम्भ में नये सन्यासियों को दीक्षा दी जाती है। स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। देश दुनिया के लोग कुम्भ स्नान के साथ साधू महात्माओं के दर्शन की लालसा लेकर आते हैं। देश की जनसंख्या के लगभग एक प्रतिशत सन्यासी है। इनका  आध्यात्मिक जीवन ही नहीं इनका आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रख रहें है। दूर दूर से करोडों की संख्या में देशवासी, विभिन्न संस्कृतियों भाषा के साधू संतों को देख कर हेैरान रह जाते हैं और इनके चरण छूकर आर्शीवाद लेना अपना सौभाग्य समझते हैं। इस अवसर पर प्राचीन काल से कौन अखाड़ा पहले स्नान करेगा इसका विधान है।

पूर्वोत्तर भारत में भोगाली बिहू मनाते हैं। यह मकर संक्राति का उत्सव, माघ बिहू एक सप्ताह तक मनाया जाता हैं। मकर संक्रातिं की पूर्व संध्या को लकड़ी बांस, फूस आदि से मेजी बनाई जाती हैं। वहां पारंपरिक भोज बनाये और खाए जाते हैं। मकर संक्रातिं को सुबह मेजी की प्रदक्षिणा करके उसमें आग लगा दी जाती है। एक दूसरे को गमुछा(गमछा) भेंट करके प्रणाम करते हैं। चिड़वा, दहीं, गुड़ खाया जाता है। हुरुम(परमल), नारियल, तिल के लड्डू बनाते हैं। दावत में तिल नारियल का पीठा जरुर  बनता है। भोगाली बिहू यानि माघ बिहू में अलाव जलाने और भोज खाने और खिलाने की परंपरा है। नये कपड़े  पहनते हैं पर युवाओं का दूसरे के बाड़े से सब्जी चुरा कर तोड़ना शगल है।   

 नवान्न और सम्पन्नता लाने का त्यौहार पोंगल(13 से 17 जनवरी) का इतिहास कम से कम 1000 वर्ष पुराना है। दक्षिण भारतीय देश विदेश में जहां भी रहते हैं। पोंगल उत्साह से मनाते हैं। इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए है क्योंकि सूर्यदेव को जो प्रसाद अर्पित करते हैं, वह पगल कहलाता है। तमिल भाषा में पोंगल का एक अर्थ है, अच्छी तरह उबालना। चार दिनों तक चलने वाले पोंगल में वर्षा, धूप, खेतिहर मवेशियों की अराधना की जाती है। जनवरी में चलने वाले पहली पोंगल को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र( जो भोग विलास में मस्त रहते हैं) को समर्पित है। शाम को अपने घरों का पुराना कूड़ा, कपड़े लाकर आग लगा कर, उसके इर्द गिर्द युवा भोगी कोट्टम(एक प्रकार का ढोल जिये भैंस के सींग से बजाते हैं) बजाते हैं।

दूसरा पोंगल सूर्य देवता को निवेदित सूर्य पोंगल है। मिट्टी के बर्तन में नये धान, मूंग की दाल और गुड़ से बनी खीर और गन्ने के साथ, सूर्य देव की पूजा की जाती है।

 तीसरा मट्टू पोंगल तमिल मान्यताओं के अनुसार माट्टु भगवान शंकर का बैल हैं जिसे उन्होंने पृथ्वी पर हमारे लिए अन्न पैदा करने को भेजा है। इस दिन बैल, गाय और बछड़ों को सजा कर उनकी पूजा की जाती है। कहीं कहीं इसे कनु पोंगल भी कहते हैं। बहने भाइयों की खुशहाली के लिए पूजा करतीं हैं। भाई उन्हें उपहार देते हैं। 

चौथा दिन कानुम पोंगल मनाया जाता है। इस दिन दरवाजे पर तोरण बनाए जाते हैं। महिलाएं मुख्यद्वार पर रंगोली बनाती हैं। नये कपड़े पहनते हैं। रात को सामुदायिक भोज होता है।

 तमिल की तन्दनानरामयाण के अनुसार श्री राम ने मकर संक्रातिं को पतंग उड़ाई थी और उनकी पतंग इन्द्रलोक में चली गई। अब सागर तट पर लोग पतंग उड़ाते और धूप से मुफ्त में प्राप्त विटामिन डी का सेवन करते मिलेंगे।

टुसू महोत्सव(टुसू परब, मकर परब, पूस परब)(14दिसम्र से 15 जनवरी) झाड़खंड के कुड़मी और आदिवासियों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। एक महीने तक नाच गानों, कर्मकांडों से मनाया जाता है। अंतिम दिन मकर संक्राति को मनाए जाने वाले इस लोक उत्सव में सुबह नदी में स्नान करके उगते सूरज की प्रार्थना की जाती है। और कुवांरी कन्याओं द्वारा बनाई टुसू देवी की मूर्ति, एक माह तक प्रतिदिन शाम को पूजने के बाद विसर्जित कर दी जाती है।

तिरूवल्लूर दिवस तमिलनाडु सरकार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के प्रसिद्ध तमिल कवि दार्शनिक, तिरूवल्लुर के सम्मान में 15 जनवरी को तिरूवल्लूर दिवस के रूप में मनाती है।

जयदेव केंडुली 15 जनवरी को कवि जयदेव की जयंती पर, केंडुली गाँव पश्चिम बंगाल में संगीत मेला आयोजित किया जाता है। जो घूमंतू गायकों द्वारा बाउल संगीत के लिए प्रसिद्ध है।

मोढेरो नृत्य महोत्सव 17 जनवरी गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर में शास्त्रीय नृत्य उत्सव है। यह संस्कृति और परंपराओं को बढ़ावा देने वाला उत्सव पर्यटकों को बहुत आकर्षित करता है। 

तैलंग स्वामी जयंती(21 जनवरी) तैलंग स्वामी अपनी योग शक्तियों और लंबे जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती(23 जनवरी) हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, आज़ाद हिंद फ़ौज को गठने वाले, देश को राष्ट्रीय नारा ’’जय हिन्द’’ देने वाले नेताजी को इस दिन देश याद करता है।  

गणतंत्र दिवस(26 जनवरी) सुबह परेड देखना और दिन भर जगह जगह देशभक्ति के कार्यक्रमों में शिरकत करके राष्ट्रीय त्यौहार को मनाते हैं। 

फ्लोट फैस्टिवल 26 जनवरी  भक्ति और संस्कृति को दर्शाता फ्लोट उत्सव तमिलनाडु के मदुरै में यहाँ की समृद्ध सांस्कृतिक झलक को पेश करता है। भगवान सुंदरेश्रवर और देवी मीनाक्षी की मूर्तियों को विशेष श्रृंगार करके फूलों और रोशनी से सजे फ्लोट पर रख कर मरियम्मन तेप्पाकुललम तालाब में चारों ओर घुमाया जाता है। इसका दर्शन करने दूर दूर से श्रद्धालू पहुँचते हैं।

नागौर महोत्सव 28 जनवरी यह भव्य पशु मेला के कारण भी राजस्थान के ससे जीवंत त्योहारों में है। चार दिन राजस्थानी संगीत, लोक नृत्य और स्थानीय व्यंजनों का आनन्द लिया जाता है। तरह तरह की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जातीं हैं। हस्तशिल्प और आभूषणों की जमकर खरीदारी होती है। तीन महीने का रन उत्सव तो चल ही रहा है।  

  मौनी अमावस्या 29 जनवरी को माघी अमावस्या भी कहते हैं। इस दिन गंगा स्नान या अपने आस पास की पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करने के साथ भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और दान का महत्व है। इस दिन मौन व्रत रखा जाता है इसलिए इसे मौनी अमावस्या कहा जाता है। महाकुंभ के कारण इस दिन का विशेष स्नान है।

साहित्य कला संस्कृति का 30 से 3 फरवरी को जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल है जिसमें देश विदेश की कई मशहूर हस्तियाँ हिस्सा लेंगी।

 तमिल नाडु से जुड़े होने से यही दिन आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है। केरल में राजा राजशेखर ने अयप्पा को देव अवतार मान कर सबरीमालाई में देवताओं के वास्तुकार विश्कर्मा से डिजाइन करवा कर अयप्पा का मन्दिर बनवाया। ऋषि परशुराम ने उनकी मूर्ति की रचना की और मकर संक्रातिं को स्थापित की। आज भी यह प्रथा है कि हर साल मकर संक्रातिं के अवसर पर पंडालम राजमहल से अयप्पा के आभूषणों को संदूक में रख कर एक भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है। जो 90 किलोमीटर तीन दिन में सबरीमाला पहुंचती है। इस प्रकार मकर संक्राति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक हमें अलग अलग रुपों में दिखाई देती है। सर्दियों की विदाई और लंबे दिनों की शुरूआत है। तिल, गुड, अलाव, ढोल की थाप, नाच गाना, खिचडी और पोंगल है। जिसमें प्रकृति के साथ मवेशियों का भी उपकार माना जाता है।     

यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से पकाशित

 प्रेरणा विचार पत्रिका के जनवरी अंक में प्रकाशित है।