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Monday, 10 February 2020

भारतीय वांग्मय में कुम्भ नीलम भागी Bhartiye Vangmaye Mein Kumbh Neelam Bhagi


                                                 
                                                   
 टी. वी. डिबेट में राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर कई चैनल में गई। डिबेट में जो हमारे धर्मगुरू आते थे।  उनसे एक बात हमें सुनने को मिलती थी कि कुम्भ में हम इस पर विचार विमर्श करेंगे, इस पर कुम्भ में चर्चा होगी, देखो हमारे मनीषी क्या र्निणय निकालते हैं। ये सुन कर विश्वास और दृढ़ होता है कि साधू सम्मेलन ही कुम्भ मेला की जीवन शक्ति है। कुम्भ मेला कब से शुरू हुआ ? इतिहासकारों के अपने अपने विचार हैं। प्रसिद्ध प्राचीन या़त्री चीन के हव्ेन सांग पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कुंभ मेले का उल्लेख अपनी डायरी में किया है। हिन्दु महीने माघ(जनवरी फरवरी) के 75 दिनों के उत्सव का उल्लेख किया है। जिसमें उसने लाखों साधुओं, आम आदमी, अमीर और राजाओं को देखा है। भागवत पुराण के सागर मंथन कथा के अनुसार असुर और देवताओं ने मिलकर समुद्र मंथन किया था। उनमें समझौता हुआ कि रत्नाकर से जो भी रत्न निकलेगें, उसे वे दोनों आधा आधा बांट लेंगे। भगवान विष्णु कछुए का रूप धर सागर तल में फैल गये। मंदराचल पर्वत मथनी बना और वासुकी नाग ने अपने आप को रस्सी के लिये प्रस्तुत कर, मंदराचल पर लिपट गया। देवताओं ने नाग को पुंछ की ओर से पकड़ा और दानवों ने मुंह की ओर से और कच्छप की पीठ पर सबके प्रयास से मथनी चलने लगी। सबसे पहले सागर मंथन से विष निकला। जिसके प्रभाव से सब  जलने से लगे। तब देवाधिदेव शिव जी ने उस हलाहल को अपने गले में उतार लिया और नीलकंठ कहलाये। उसके बाद अमृत निकला। जो भी उसको पीता, वह अमरत्व को प्राप्त होता और असुर तो बुराई के प्रतीक हैैं। अब अमृत कलश को पाने की होड़ लग गई। देवताओं के इशारे से इन्द्र पुत्र जयंत अमृत कलश लेकर आकाश में उड़़ गया। दैत्यों ने जयंत का पीछा किया। छिना झपटी में अमृत कुम्भ से कुछ बूंदे अमृत की गंगा जी प्रयागराज(उ.प्र.) , गंगा जी हरिद्वार(उत्तराखण्ड), उज्जैन शिप्रा(मध्य प्रदेश) और गोदावरी नासिक(महाराष्ट्र) में गिरीं। इस युद्ध में बारह दिन लगे। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के 12 साल के बराबर होते हैं। कलह शांत करने के लिये भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर लिया। असुर उन पर मोहित हो गये। मोहिनी ने यथाधिकार सबको अमृत बांट कर पिला दिया। इस प्रकार देव दानव युद्ध का अंत किया।  अतः कुम्भ इन चारों स्थानों पर बारह साल बाद होतो हैं। प्रयागराज में विशेष दिन मकर संक्रांित, पौष पूर्णिमा, एकादशी, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी, रथ सप्तमी, माघी पूर्णिमा, भीष्म एकादशी, महाशिवरात्रि विशेष है। इस पर विशेष स्थान होता है। विभिन्न पुराणों और प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में चार स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख है। कुम्भ के लिये नियम निर्धारित हैं। उसके अनुसार प्रयाग में कुम्भ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य ओर चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है। इस कारण अगला कुंभ 2025 में होगा। कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरू कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में 2022 में लगेगा। सूर्य और गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं। तो नासिक में गोदावरी तट पर कुम्भ मेला लगता है। यहां 2015 को लगा था। गुरू जब कुम्भ राशि में प्रवेश करता है तब उज्जैन में शिप्रा तट पर कुम्भ मेला लगता है। 2016 में यहां लगा था। कुम्भ के आयोजन में नवग्रह में से सूर्य, चंद्र, गुरू और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इन ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंम्भ का आयोजन होता है। चंद्र ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने छिपा कर रखा, सूर्य ने फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से बचाया। प्रयाग में 144 साल बाद महाकुंभ लगता है। समुद्र मंथन का अमृत यदि कुछ बुूंदे ही होता तो इन नदियों के अनवरत बहते प्रवाह में कब का बह चुका होता पर इस अमृत में ही कुम्भ के आयोजन का रहस्य छिपा है। आदि शंकराचार्य ने तपस्वियों सन्यासियों को कुम्भ पर ज्ञान यज्ञ के लिये एकत्रित होने की परंपरा शुरू की।   
 महाभारत, भागवत , पुराण आदि से ज्ञात होता है कि अनादिकाल से भारत में ऐसे सम्मेलन  होते आएं हैं। नैमिषासण्य, कुरूक्षेत्र, प्रभासादि पुण्य क्षेत्रों में असंख्य ऋषि मुनि, साधू सन्यासी, महात्मा शास्त्राथर््ा करते रहें हैं। देश तथा समाज की स्थिति, रीति प्रकृति पर विचार विर्मश करते रहें हैं। कुंभ योग पर चारों दिशाओं से महापुरूष यहां हाते हैं। 1780 ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिये व्यवस्था की स्थापना तभी तो की गई होगी। आज यहां चारों आचार्यों, रामानुज, मध्व, निर्म्बाण और वल्लभ संप्रदाय से जुड़े सन्यासी और अखाड़े भी वहां एकत्रित होते हैं। आज भारत मे मान्यता प्राप्त अखाड़ों की संख्या 13 हो गई है। हर अखाड़े का अपना इतिहास है। पहले इन्हें साधू संयासियों का जत्था कहा जाता था। मुगलकाल में इन्हें अखाड़ा नाम दिया गया। यह शैव, वैष्णव एवं उदासीन पन्त के सन्यासियों के अखाड़े हैं। जोे शास्त्र विद्या में भी महारती होते हैं। सन्यासी तप साधना र्माग से आगे बढ़े हैं। उनका शास्त्रज्ञ होना आवश्यक नहीं है। शास्त्रज्ञ की भूमिका में अखाड़े के आचार्य होते हैं। आचार्य नये सन्यासियों को दीक्षा देते हैैं। महन्त और आचार्य पद सामान महत्व के पद हैं।  अखाड़े तप साधना में लीन सन्यासियों का संगठन होता है। इनके शीर्ष पर महन्त विराजमान होते हैं। हर अखाड़ा शास्त्रज्ञ सन्यासियों को अपने महामंडलेश्वर के पद पर अभिषिक्त करता हेै। प्रचार प्रसार के इस युग में  महामंडलेश्वर का पद वैभवपूर्ण हो गया है। कुम्भ में नये सन्यासियों को दीक्षा दी जाती है। स्नान के साथ यहाँ ज्ञान यज्ञ भी होता है। देश दुनिया के लोग कुम्भ स्नान के साथ साधू महात्माओं के दर्शन की लालसा लेकर आते हैं। देश की जनसंख्या के लगभग एक प्रतिशत सन्यासी है। इनका  आध्यात्मिक जीवन ही नहीं इनका आर्थिक दृृष्टि से भी बहुत महत्व है। ये आदरणीय लोग स्वेच्छा से न्यूनतम भौतिक साधनों पर जीवन निर्वाह करते हुए पूरे समाज के सामने सादगी और त्याग का आदर्श रख रहें है। दूर दूर से करोडों की संख्या में देशवासी, विभिन्न संस्कृतियों भाषा के साधू संतों को देख कर हेैरान रह जाते हैं और इनके चरण छूकर आर्शीवाद लेना अपना सौभाग्य समझते हैं। इस अवसर पर प्राचीन काल से कौन अखाड़ा पहले स्नान करेगा इसका विधान है। लेकिन शाही स्नान की परम्परा 14वीं से 15वीं शताब्दी के बीच शुरू हुई। तब देश में मुगलों के आक्रमण की शुरूआत थी। र्धम और संस्कुति की रक्षा के लिए हिन्दु शासकों ने साधुओं विशेषकर नागाओं से मदद मांगी थी। सन्यासियों के लिए वैभव का कोई अर्थ नहीं है फिर भी उनको दिए गये उपहारों का साधू सन्यासी ख़ास अवसरों पर उपयोग करते हैं। कुम्भ में बड़ी सज्जा के साथ उनकी सवारियां निकलती हैं। सोने चांदी की पालकी, रथों हाथीं घोड़ों पर चढ़ कर, नगाड़े, बड़े बड़े डमरूओं को बजाते, साधू सन्यासियों की शाही सवारी निकलती है।  पहला शाही स्नान नागा साधुओं द्वारा किया जाता है। उनके बाद अन्य अखाड़ो का, उनके स्नान का अद्भुत दृश्य होता है। स्नान के लिये उत्साहित साधू बच्चों की तरह बाजू फैला कर  पवित्र नदी में प्रवेश करते हैं। जल में खेल करते हैं। इस अद्भुत द्श्य को देखना लोग अपने जीवन में सौभाग्य समझते हैं। नदी का जल ठहर गया लगता है। सूर्य नारायण का रथ भी ठहर गया लगता है। मेरे मित्र का परिवार हैदराबाद से प्रयागराज का 2012 में लगा महा कुंभ में शाही स्नान का नजा़रा देखने और स्नान के लिये 36 घण्टे का सफ़र करके प्रयागराज पहुंचा। स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले बुक किये गये होटल के कमरे में सामान रक्खा और ऑटो करके घाट पहुंचे। मैंने उनसे शाही स्नान के बारे में पूछा तो जवाब मुझे हैदराबादी शैली में मिला ,’’ शाही स्नान देखा जी और स्नान किया भी। उस दिन चालीस लाख लोगां ने स्नान किया। घाट पर कोई लफड़ेबाजी नहीं हुआ जी। सब कुछ इंतजाम, एकदम मस्त। कुम्भ स्नान करके एनर्जी लेवल बढ़ जाता जी, अजीब सा वाइब्रेशन होता, ख़्याल अच्छा आता जी। तब लौट कर होटल में दो घण्टे सोया। फिर दिन भर अखाड़ा घूमा और प्रयागराज घूमा जी। रात का गाड़ी पकड़ कर 36 घण्टे का सफर कर वापिस हैदराबाद पहुंचा जी। अब शाही स्नान का देखना बोत अच्छा लगता, नासिक कुम्भ गोदावरी का भी देखा। यहां आठ घण्टा सफ़र किया और पहुंचा। 2016 में उज्जैन कुंभ में 24 घण्टे का सफर करके गया। वहां तो तीन दिन रहे भी। शाही स्नान के  अद्भुत दृश्य को आँखों में भर कर लोग जीवन को धन्य मानते हैं। उनके चरणों की धूल लेने के लिए भीड़ आतुर रहती है। प्रयाग में तो बडी संख्या में लोग संगम तट पर कल्पवास करते है। साधू महात्माओं के दर्शन की लालसा लेकर आते हैं। अपना समय स्नान, पूजा, साधूओं के दर्शन, उनके प्रवचन सुननंे, सायंकाल आरती दीपदान में बिताते है। इस बार तो पिछले कुंभ स्नानों के रिर्काड टूट गये हैं। हिन्दू विचारधारा सदैव से सर्वे भवन्तु सुखिना एवं विश्व शांति में विश्वास रखती है। ये तो चिंतनपर्व है। यहाँ वैचारिक चिंतन होते हैं। श्रमनिष्ठा, सद संकल्प का महापर्व है। जहाँ प्रकृति, समाज और विकास पर चर्चा होती है। समय के साथ बदलाव को भी स्वीकार किया जाता है। प्रसिद्ध समाज सेवी , आध्यात्मिक गुरू अजय दास ने किन्नरों को अपने आश्रम में स्थान देकर किन्नर अखाड़ा बनाया। इनके माता पिता को इन्हें अपना कहने और इनका पालन पोषण करने में र्शम आती थी। ऋषिवर ने किन्नर अखाड़े के दस पीठ बनाये। हर पीठ का एक किन्नर ही मण्डलेश्वर होता है। देश के लगभग 500 किन्नरों ने सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन में शिप्रा नदी के गंदर्भ घाट पर नाचते गाते ढोल मजीरों के साथ शाही स्नान के लिये यात्रा निकाली। किन्नर ई रिक्शा पर सवार थे। इसे उन्होंने देवत्व यात्रा का नाम दिया। इस यात्रा को देखने के लिये जन समूह उमड़ पड़ा। साधू संतों के समान इनका भी लोगों ने फूल मालाओं से स्वागत किया। वे इनके चरण छू रहे थे और किन्नर उन्हें दिल से आशीष दे रहे थे। अखाड़ों में नाराज़गी थी लेकिन विरोध भी नहीं किया गया। लेकिन अखाड़ा परिषद ने इन्हें अखाड़े के तौर पर मान्यता देने से इन्कार कर दिया। अखाड़ा परिषद के इन्कार से मेला परिषद ने भी इनको फंड देने से इन्कार कर दिया। आगे आये लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भारत नाट्यम में एम. ए. और सामाजिक कार्यकता एवं गुरू अजयदास। आखिर इनके अखाड़े को 13 अखाड़ों के साथ खड़ा कर दिया गया।
   प्रयागराज में अर्द्ध कुम्भ के अवसर पर सुर्ख जोड़े में किन्नर अखाड़े के आचार्य महामण्डलेश्वर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी सबसे आगे ऊँट पर हाथ में तलवार लिए किन्नर समाज का नेतृत्व कर रहे थे। उनके पीछे देश के कोने कोने और विदेशों से आए किन्नर, अखाड़े के पदाधिकारी, महन्त, पीठाधीश आदि रथ पर सवार होकर चल रहे थे। पीछे चल रहा था अपार जनसमूह। ठाठ बाट से रथों पर सवार होकर देवत्व यात्रा निकाली गई। इनकी पेशवाई अलोपी बाग़ में शंकराचार्य आश्रम में पूजा करने के बाद आगे बढ़ी। किन्नर अखाड़ों की शोभा अनोखी थी। अधिकतर का लिबास सुर्ख था। वह नृत्य कर रहे थे। कुछ वाद्य यंत्रों के साथ बड़े बड़े डमरू बजा रहे थे।े किन्नर महाकाल के उपासक हैं। शंखनाद के साथ किन्नर सन्यासी माँ भागीरथी के संगम में उतरा। मानों किन्नरों की आत्मा परमात्मा से मिलने को आतुर हो। सदियों से परिवार और समाज से ठुकरायों को अपने धर्म में स्थान मिला। रामचरित मानस के रचियता गोंसाई जी ने वर्षों र्पूव किन्नरों को भी देवता दनुज मनुष्य की श्रेणी में सबके समान मान का महत्व दिया था
’’देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी’’अब कई अखाडे़ उन्हें अपने साथ मिलाना चाहते हैं। तीर्थयात्रियों की नजरें उन पर थीं। गंगा में डुबकी लगाने के बाद सूर्यनारायण को जलांजली दी। कुम्भ के इतिहास में इस र्स्वणिम क्षण को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। कुंभ के अवसर पर साधू सन्यासियों ने घोषणा की है कि वह देहदान की नई परम्परा की शुरूवात करेंगे। उनकी देह मैडिकल के छात्रों की पढ़ाई में सहायक होगी। वे तो सन्यास लेने से पहले ही पिंडदान कर चुके हैं। प्रयागराज में आयोजित कुम्भ को यूनेस्को ने विश्व की सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिया है।