डॉ. अशोक भारद्वाज(पूर्व डॉक्टर भारत सरकार और ईरान)
कई वर्ष ईरान में
रहा हूँ। मेरे पास एक आगा(भद्र पुरूष) जरअली अपने बीमार पुत्र मुहम्मद राघव
सलवती(सलवताबाद) को इलाज के लिए लाए। राघव सुन कर मैं चौंका तो काका जरअली ने
बताया कि अस्पताल के नीचे से पहले एक कच्ची सड़क तेहरान की तरफ जाती थी। जहाँ दूसरे
विश्व युद्ध में भाग लेने एक हिंद की सेना (ब्रिटिश इंडिया) की टुकड़ी यहाँ ठहरी
थी। इस टुकड़ी का नायक फारसी जानता था। बिटिश काल में हमारे यहाँ बहुत से लोग अरबी,
फारसी पढ़ना लिखना जानते थे। उस टुकड़ी के नायक
से काका को बहुत प्रेम था। काका बताते उस नायक
के सिर के पीछे बड़े बालों का गुच्छा था(चोटी), जिसमें वे गाँठ बांध कर रखते थे। वह अपना खाना खुद बनाते
थे। किसी को अपनी रसोई छूने नहीं देते थे। पकाने के बाद अपना पका खाना मुझे भी
खिलाते थे। खाने में मिर्च ज्यादा होती थी पर मुझे खुश मजेे़(स्वाद) लगता था। मेरी
बेगम ’नान’(ईरानी रोटी) बहुत बारीक़ बनाती है। मैं जब भी
उनके लिए लेकर गया वे एक टुकड़ा तोड़ कर, माथे से लगा कर पेड़ की जड़ के पास रख देते। हाँ, मेवे व फल ले लेते। मेरे इस पुत्र का जन्म हुआ तो वह हमारे
घर आए। मैंने अपना बेटा उनकी गोद मंे दिया और कहा कि आप दानिशमंद(विद्वान) हैं।
इसका नाम रख दीजिए। उन्होंने खुदाई जुबान(संस्कृत) में कुछ कहा, बच्चे के भाल पर केसर लगा कर, फिर खुदाई जुबान में एक छोटा सा तराना गाया और
इसका नाम राघव रखा। मैंने उनसे पूछा,’’आप राघव का मतलब जानते हैं!’’ उसने जवाब दिया,’’हाँ, हिन्दुओं के खुदा को कहते हैं।’’उस आगा ने मुझसे कहा था कि तुम्हारा बेटा बहुत फरमाबदार होगा। मेरे बेटे जैसा
बेटा पूरे खुर्दीस्तान में नहीं है। राघव का स्वभाव आर्दश बेटे का था। काका जरअली
की मृत्यु के बाद वह हमारे परिवार का ध्यान अपने परिवार की तरह रखता था। इधर लोग
हिंदी के शौकीन थे। सिनेमा समाज़ का दर्पण हैं। शायद उसका असर था। वहाँ ऐसे महसूस
होता था कि अपने देश में डॉक्टरी कर रहा हूँ। सास बहू बहुत मजे़दार था। पहले सास आती
सिर पकड़े हुए। मैं पूछता,’’क्या हुआ
अडूस(बहू) से लड़ाई हो गई?’’सास कहती बहू
अच्छी नहीं मिली। दूसरी ले आऊँ पर क्या करूँ, बेटा उसे बहुत प्यार करता है, मानता नहीं है। सास जाती तो सिर पर पट्टा बाँधे बहू आती,
मेरा वही पुराना सवाल,’’सास ने तंग किया?’’ बहू का भारतीय महिलाओं वाला उत्तर कि बेटा माँ की सुनता है, मेरी नहीं। वहाँ बहु विवाह प्रथा थीं लेकिन
भारतीयों के संपर्क में आने से वे बदल रहे थे और समझ गए थे कि बच्चों के लिए माँ
बाप दोनों जरूरी हैं। वहाँ के खुर्दी लोग हर चीज महल्ली पसंद करते थे। हमारे यहाँ
भी देसी का रिवाज है। एक बार एक महिला का अप्रेशन होना था। परिवार का कोई खून देने
को तैयार नहीं था। एक भारतीय सर्जन ने पहले उसे अपना खून दिया फिर अप्रेशन कर
महिला की जान बचाई। वहाँ के सभी लोग हैरान थे। उन्हें समझ आ गया था कि इंसानियत से
बड़ा कुछ नहीं है। वहाँ के पढ़े लिखे पूछते,’आपका दीन क्या है?’’वही जो 1400 सौ साल पहले तुम्हारा था। हमारे यहाँ आतिश(यज्ञ) होते थे। आप भी आतिश परस्त थे।’’
वे दबी जुबान से कहते आप बदल गए, हम नहीें बदले। हिंदू रेस बहुत मजबूत है। उनके
दिल में भारत की बहुत इज्जत थी। भारत को हिंद और भारतीयों को हिंदी कहते थे।
संस्कृत को खुदाई जुबान। हिंद शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में शरफुद्दीन यजदी की
पुस्तक ज़फर नामा में मिलता हैं। जिसे 1424 में लिखा गया था।
हम तेरहवीं को भोज करते हैं। आगा आयतुल्ला खुमैनी के स्वर्गवास के 40वें दिन हर घर में हलुआ बना और बाँटा गया। हिंदवाना(तरबूज) भारत से वहाँ गया था। इसीलिए वहाँ उसे हिंदवाना कहते हैं। क्रमशः
यह आलेख मध्य भारतीय हिंदी साहित्य सभा द्वारा प्रकाशित इंगित पत्रिका के राष्ट्रीय संगोष्ठी विशेषांक से भारतीय जीवन शैली का वैश्विक रूप से लिया गया है।
यह लेख ग्वालियर से प्रकाशित इंगित पत्रिका के राष्ट्रीय संगोष्ठी विशेषांक में प्रकाशित हुआ है।
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