मैंने पहली बार वंदे भारत में यात्रा करनी थी। संगोष्ठी स्थल से मेरे साथ डॉ. देवी प्रसाद तिवारी थे। सुबह में स्टेशन के लिए निकले, धमेंद्र पांडे सामने से आए और हमें चाय के लिए आग्रह करने लगे कैंटीन अभी बंद थी। वे बोले," मैं फटाफट बाजार से ले आता हूं।" हमने मना किया। बाहर आते ही हमें ऑटो मिला और हम समय से काफी पहले स्टेशन पर पहुंच गए। गाड़ी भी समय पर आई। इस गाड़ी की सबसे अच्छी विशेषता थी पायदान!
जिस पर सीनियर सिटीजन आराम से चढ़ सकते हैं और उतर सकते हैं। दरवाजे गाड़ी के रुकने पर ही मेट्रो की तर्ज पर खुलते हैं। सब डिब्बे आपस में अच्छे से जुड़े हैं। आप पूरी गाड़ी में घूम सकते हैं। दो डिब्बों के बीच में चलती गाड़ी में आवाज नहीं आई। उन्हें इस प्रकार सील किया है।
चेयर कार में C में मेरी 9 नंबर विंडो सीट थी। 10 खाली थी। प्लेन की तरह सीट है। मैंने बीच का हैंडल उठा दिया सीट अच्छी हो गई। पैरों के लिए फुट्रेस्ट है। चार्जिंग के लिए सीट के नीचे की तरफ सॉकेट है।
आधा लीटर की पानी की बोतल सीट पर ही थी। नाश्ता आया, जिसमें दो पिचकी हुई इडली। और कहते हैं कि चुल्लू भर पानी में डूब मरो। यहां सांभर इतना नहीं था की दोनों इडलियां डूब जाए, एक कटलेट और जूस। इसके बाद गर्म पानी और मिक्स टी सैशे।
मेरा एक हाथ ठीक से चलता नहीं है। मैं सैशे खोल नहीं सकती थी। कोई बैल नहीं थी। अटेंडेंट सबको नाश्ता देने में बिजी थे। जब मेरे पास से गुजरा तो मैंने उससे कहा कि आप मेरी चाय बना दीजिए। उसने बना दी पर इतनी देर में पानी गुनगुना हो चुका था। मैंने गुनगुनी चाय पीकर उससे कहा कि इतनी देर में पानी ठंडा हो चुका था। आप चेंज कर देते। तुरंत मेरे लिए भाप उड़ती हुई दूसरी चाय आ गई। अब चाय पी कर मुझे तसल्ली हुई और मैंने अपने आसपास नज़र दौड़ाई। यहां पर बाजू वाले से बात कर सकते हैं। वहां कोई था ही नहीं। बाकि अपनी कई यात्राओं में खाखरा, थेपला और कई तरह के घर के बने स्वादिष्ट स्नैक्स बर्तनों में ले जाने वाले, राजधानी में भी खाना नहीं लेते थे। वैसा ही ग्रुप मेरे आगे साइड में काम से कम 15 लोगों का था। अल्युमिनियम फॉयल के बॉक्स में सैंडविच आदि घर से लेकर आए थे!! और अपनी मातृभाषा में खा और खूब बतिया रहे थे। चाय के बाद अब मैं गाड़ी का राउंड लगाने चल दी। अपने आप दरवाजे खुलते थे। पहली बार इंडियन टॉयलेट बिल्कुल साफ था। उस पर गुटके पान मसाले के निशान नहीं थे, न ही पानी भरा था। अंदर हवा थी, बाल उड़ रहे थे।
सीट के ऊपर ही सामान रखने के प्रोविजन थे। बीच का रास्ता बिल्कुल खुला 2 by 3 सीट सिस्टम था। वेस्टर्न टॉयलेट मैंने देखना था। एक यात्री सहारनपुर के बाद उसमें गया था। मेरठ तक बाहर नहीं निकला। मैंने अटैंड से कहा," कोई काफ़ी देर से अंदर गया है। सब ठीक तो होगा न।" उसने कहा," कुछ लोग ज्यादा समय लेते हैं।" अब जब मेरा मन बदल गया। मैं अपनी सीट पर आ गई तब वह निकला। दूसरे डिब्बों में भी तो जा सकती थी पर पता नहीं क्यों नहीं गई! मेरठ में 10 नंबर सीट पर एक महिला आई। अब मैंने सीट का हैंडल, नीचे कर दिया और अपनी 9 नंबर सीट पर बैठकर गई। 11:45 पर आनंद विहार भी पहुंच गई। सफर पता ही नहीं चला। पायदान ठीक हैं। उतरने में भी कोई परेशानी नहीं हुई। अटेंडेंट ने मेरा लगेज नीचे रख दिया। आनंद विहार रेलवे स्टेशन तो वैसे ही बहुत बढ़िया है। जैसे ही मैं बाहर आई, मुझे नोएडा के लिए ऑटो मिल गया और मैं घर की ओर चल दी। क्रमशः
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