अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा सर्वभाषा साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन 19, 20, 21 दिसंबर को भुवनेश्वर उड़ीसा में किया गया। पहले कार्यक्रम नवंबर में होना था लेकिन माननीय मोहन भागवत जी की व्यस्तता के कारण बदलना पड़ा। हमने रिजर्वेशन भी कैंसिल करा कर, बदला। खैर मुझे तेजस राजधानी में 15 दिसंबर का रिजर्वेशन मिल गया। मैं 16 तारीख की शाम को पहुंच रही थी। वहां मेरी बेटी उत्कर्षनी की सहेली संचिता मोहंती के घर रुक रही थी। और 2 दिन जितना घूमा जा सकता था, घूमना था। 19 से लेकर 21 तक सभी सत्रों को अटेंड जो करना था। समारोह स्थल के पास ही, हम सबके रहने की व्यवस्था थी। 15 को 5:00 बजे से मेरी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से गाड़ी थी। मैसेज आया की प्लेटफार्म नंबर वन पर गाड़ी मिलेगी। कोई सवारी छोड़ने आया ऑटो गेट पर ही दिख गया, मैंने उसे रोक लिया। प्लेटफार्म नंबर 1 पहाड़गंज की तरफ से पड़ता है। मैंने ऑटो लिया उसे कहा कि मुझे पहाड़गंज की तरफ से स्टेशन में पहुंचना है। बहुत समय पहले ही हम निकल गए। जिसका मुझे फायदा मिला। स्टेशन से काफी दूर पहले चींटी की चाल से रुक रुक कर गाड़ियां चल रही थी। ड्राइवर बोला, "बहुत टाइम लग जाएगा, इतनी देर में तो आप पैदल ही पहुंच जाती।" पर मुझे तो पता था। मेरे पास बहुत टाइम है। दूसरा सर्दी के कारण और रिजर्वेशन के कारण दो दिन ज्यादा रुकने से सामान अधिक था। इतना उठाकर मैं वहां तक नहीं जा सकती थी। इतनी दूर से कुली भी नहीं मिलता है। स्टेशन पहुंच गई। प्लेटफार्म नंबर 16 था। बाद में पता चला कि मैसेज में प्लेटफार्म नंबर एक लिख देते हैं, जो पहाड़गंज के पास होने से वहां खूब जाम लगा रहता है। समय पर गाड़ी आई। उसमें चढ़ने का प्रावधान बहुत ही बकवास सीनियर सिटीजन तो बड़ी मुश्किल से चढ़ते हैं। खैर ऐसी बोगी, जिसने अप्रूव की होगी उसको कोसते हुए चढ़ी। जब सेलेक्ट करते हैं तो दिखते नहीं है कि चढ़ने में क्या परेशानी होगी? लेकिन साफ सुथरी गाड़ी थी। सफाई का ध्यान रखा जा रहा था। सवारियां दूर तक की थी, भुवनेश्वर के आसपास की। एक 5 साल की बच्ची थी। थोड़ी देर में उस बच्ची ने सबको व्यस्त कर दिया। वह टिक कर बैठी ही नहीं रही थी। बार-बार सीढ़ियां चढ़ती। अपर सीट पर बैठकर कूदने लगती है फिर नीचे उतरती। उसे जबरदस्त खांसी थी। सब चिंतित रहते की गिर ना जाए। लड़की थी या तूफान! हमारे यहां ऐसी शैतान लड़की को प्यार में, परकाला कहते हैं। जिसका मुझे मतलब नहीं पता। दो लड़के थे उन्होंने बिना कहे ड्यूटी ले ली थी। जब परकाला चढ़ने लगती, उसे उठाकर ऊपर रख देते हैं, जब नीचे उतरने लगती तो उसे उठाकर नीचे रख देते। और वह इधर-उधर वह खुद आती रहती। सबकी नजर परकाला पर रहती कि नजरों से ओझल न हो जाए। बहुत कम स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी। उस समय उसकी मां सुधा परकाला को हाथ पकड़ कर बिठा लेती थी। मेरे सामने बैठी महिला को सुधा बहू बोलती थी, परकाला भी बहू बोलती। मैंने सुधा से पूछा कि ये आपकी कौन है? उसने जवाब दिया," सास।" मैं हैरान! मैंने सुधा से फिर पूछा कि तुम्हारे यहां सास को बहू बोलते हैं। वो बोली," हां।"अपर्णा मोहंती से पूछा यहां सास को बहू क्यों बोलते हैं? उन्होंने जवाब दिया," बेटा मां को बहू बोलता है तो बहू भी सास को बहू बोलती है।" इतने में कानपुर स्टेशन आ गया गाड़ी रुकी। मैंने अपर्णा जी को कहा, "मुझे बड़ा अजीब लग रहा है बहू जब परिवार में आएगी तो सास अलग से नजर आएगी, उसे बहू कहा जाएगा।"
वे बोली बहू नहीं बऊ, उड़िया में मां को बऊ कहते हैं। शायद गाड़ी के शोर में बऊ को बहू सुना जा रहा था। मैंने उनकी सांबलपुरी साड़ी की तारीफ की।
परकाला की खांसी की परवाह न करके जो भी वेंडर आता, सुधा उसे लेकर देती। परकाला उसे थोड़ा खाकर दादी को पकड़ा देती। चाय इवनिंग स्नैक्स, डिनर सर्व हो गया, खा लिया। अब बतियाने लगे। मैंने सुधा की तारीफ में कहा कि आप को तो इनाम मिलना चाहिए। इतनी शैतान बच्ची को संभालती हैं। सबने मेरी हां में हां मिलाई। शायद सुधा को बुरा लग गया। उसने परकाला की इतनी तारीफ की कि लिख नहीं सकती। स्कूल में पैरंट टीचर मीटिंग में जाती हूं तो सब टीचर उसकी तारीफ करते हैं। घर में बिल्कुल शांत रहती है। लोग दूर-दूर तक तारीफ करते हैं कि इसके जैसा कोई बच्चा नहीं है। अब सुधा एक डिब्बा निकाल कर बोली, "गर्म पानी मिल जाय तो।" एक लड़का बऊ से बोतल लेकर पैंट्री से गर्म पानी ले आया। सुधा ने चमचमाते डिब्बे में से एक पाउडर सा, गिलास में डाला और उसमें गर्म पानी मिलाया। इस घोल को जल्दी-जल्दी परकाला के मुंह में भरती जा रही थी और वह निगलती जा रही थी। बेबी फूड के बारे में पूछा तो उसने मुझे बताया कि सारे मेवे और चने का सत्तू, कुछ बिस्किट पीसकर यह बनाया था। इसमें घर में दूध मिला दो, बाहर गर्म पानी, बच्चों का खाना तैयार हो जाता है जबकि बच्ची के अच्छे भले दांत थे। उसने मां दादी के साथ खाना भी खाया था। मैंने कहा आप आराम से खिलाओ, जल्दी-जल्दी क्यों खिला रही हो। वह बोली," यह पानी डालते ही फूलने लग जाता है। मैं जल्दी-जल्दी इसलिए खिला रही हूं ताकि इसके पेट में जाकर फूले और यह ज्यादा खा ले। परकाला रोने लगी और चम्मच नहीं ले रही थी पर उसकी मां उसका मुंह भरे जा रही थी। इधर हमें आइसक्रीम सर्व हुई। उधर परकाला ने इतनी भयानक उल्टी की कि सुधा मेरे बराबर बैठी थी इसलिए उसने हाथ से मेरी तरफ उल्टी आने को रोक रखा था। बऊ की साड़ी, अपर्णा की साड़ी, आधा मेरा लगेज और बीच के रास्ते में सब की चप्पल उल्टी की बाढ़ में डूब गई थी। मैं जल्दी-जल्दी जो भी अखबार मिल रही थी ऊपर डाली। सुधा ने दोनों की साड़ियां साफ करनी शुरू की, पर गीली तो रही। अब उसने मेरा लगेज पोछा उसके बाद जो गंदा था, मैंने सैनिटाइजर की बोतल निकाल चप्पल में धोकर लगेज के ऊपर सब पर डाला। सफाई हो गई। आइसक्रीम के ऊपर कोई छीटा नहीं था और वहां कोई खा नहीं सकता था। मैं दूसरे केबिन में गई उनसे कहा, "आप खा लीजिए।" बेड लगे शुरू हो गए। सुधा की मेरे सामने अपर बर्थ थी। उसे चिंता सताने लगी कि परकाला ने जो खाया था, वह तो सब निकल गया, अभी भूखी होगी। मैंने कहा, "सुधा कोई भूखा नहीं रहता, वह बेबी फ़ूड खा नहीं रही थी। तुम जबरदस्ती खिला रही थी। अब इससे पूछो कि भूख लगी है तब इसको देना क्योंकि ऊपर से अगर यह उल्टी करेगी तो सबका नाश हो जाएगा। और खांसी उसे वैसे ही है।" एक बात मैंने देखी कि बऊ कुछ बोलती नहीं थी। उल्टी कांड के बाद मिडिल सीट खुल गई। सबने बिस्तर लगा लिया, लाइट बंद हो गई। परकाला और सुधा सो गई। मैंने अपर्णा जी से कहा कि आप किसी तरह साड़ी बदल लो। वे बोली साड़ी पैकिंग हो रखी है। बदलूंगी भी कहां? मैं सारा गीला हिस्सा बाहर को करके सो जाऊंगी। सुबह तक यह सूख जाएगी। हम दोनों ने कुछ देर तक खूब बातें की। मैंने उनसे कहा आप सोने से पहले, मुझे ठीक से कंबल उड़ा देना भारी है। मेरे एक हाथ से ढंग से ओढ़ा नहीं जाएगा। सोने से पहले वॉशरूम गई देखा 7 नंबर सीट पर तीन पुलिस वाले बिल्कुल तैनात बैठे हैं। आकर सीट पर लेटी अपर्णा जी ने बहुत अच्छे से कंबल में मुझे पैक कर दिया। मैं इतनी गहरी नींद सोई कि सुबह बैड टी वाले ने चाय को पूछा और मेरी नींद खुली। क्रमशः
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