श्री मोहंती ड्राइविंग कर रहे थे, मैं और मीताजी बतिया रहे थे। लेकिन मेरी आंखें भुवनेश्वर से परिचय कर रही थीं। बहुत साफ सुथरा चौड़ी सड़कों वाला शहर है। सड़क के दोनों और पेड़ है और सेंट्रल वर्जेज पर भी पेड़ पौधे हैं । इससे शहर और भी जीवंत लगता है।
ताजी फल सब्जियां बिक रही हैं। मार्केट में सामान से भरी दुकाने हैं और ग्राहक भी खूब हैं। मंदिर खूब है तभी तो इसे 'मंदिरों का शहर' #City of Temples कहते हैं। खंडगिरि, स्टेशन से काफी दूर है। घर पहुंचने पर मीताजी ने पूछा," आप खाना खाएंगी या चाय?" मैंने कहा," लंच तो ट्रेन में हो गया था, अब चाय।" मैं फ्रेश होने चली गई। चाय पीते हुए मैंने बताया कि मैं 17 और 18 को घूम सकती हूं 18 की शाम को चली जाऊंगी। फिर उन्होंने पूछा," खाना कितने बजे?" मैंने कहा, "जब आप खाते हैं तब।" तभी मेरे दिमाग में जो कई साल पहले 10 दिन परिवार के साथ पुरी में बिताए थे, खाने के नाम पर अपने पिताजी की याद आने लगी कि वहां पर जगन्नाथ जी का महाप्रसाद बिकता है। मेरे पिताजी ने पंडा जी को कह दिया था कि जो भी यहां के खाना हो, सब दस दिनों में हमें खिलाना। तीनों टाइम वह लाता। मुझे याद है रात में भी कोई ना कोई भगवान की भोग की मिठाई लाता था। हम पूछते," पंडित जी यहां भगवान खाते ही रहते हैं?" पंडा जी ने हंसते हुए बताया कि यह सब कुछ खेती बाड़ी जगन्नाथ जी की है। 'जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ' उसने जब हमें जगन्नाथ जी की रसोई घुमाई थी तब हमें और भी यहां के खाने पर श्रद्धा आने लगी, बिना लहसुन प्याज का बना खाना, बहुत स्वाद लगता था बिल्कुल अलग सा, जो हमने अब तक खाया था। चावल में भी अलग स्वाद शायद मिट्टी के बर्तनों में बनने से और प्रसाद में भगवान का आशीर्वाद और बनाने वाले की श्रद्धा शामिल होने से बहुत अच्छा लगता था। हम खूब खाते थे पर किसी की तबीयत नहीं बिगड़ी थी। सुबह धूप से पहले और शाम को धूप के बाद समुद्र तट पर रहते थे। पंडा जी एक टोकरी में तीन-चार हंडिया लेकर आते थे और केले के पत्ते, चम्मच तो हम लेकर गए नहीं थे प्रसाद के चारों तरफ गोल घेरे में बैठ जाते, अम्मा परोसती। मेरे पिताजी जिन्हें मैंने कभी हाथ से खाते नहीं देखा, उन्होंने भी 10 दिन तक हाथ से ही खाया। मैंने मीताजी से कहा कि मैं नॉनवेज नहीं खाती हूं, जो भी खाना आप रेगुलर खाते हैं, वही मैं खाऊंगी। मुझे शौक भी है, मैं जहां जाती हूं वहां का स्थानीय खाना खाती हूं। विदेश में भी मैं कभी भारतीय खाना नहीं ढूंढती क्योंकि अपने देश में तो मैं भारतीय खाती हूं ना। जहां आई हूं, वहां का खा कर क्यों न देखूँ! यहां मैं वही पुराना स्वाद मन में महसूस कर रही थी, जिसका मुझे आज नाम नहीं पता था। तब खाने का नाम था 'महाप्रसाद' मीठा हो या नमकीन बस हमें एक ही नाम याद है। मीता जी ने इस बात का बहुत ध्यान रखा। अब मैं खाना देखते ही मीताजी से उसका नाम पूछती। डिनर में सांतुला(कई सब्जियों का मिश्रण), छेनापोडा, पीठा, शायद परमल की सब्ज़ी और पहली बार मैंने लच्छों में कटी सीताफल की उड़िया विधि से बनी सब्ज़ी खाई। पंच फोरन में बनी सब्जियों में हर सब्जी का अपना स्वाद आ रहा था। वरना हर सब्जी के स्वाद को प्याज लहसुन रूपी गुंडे दख़ल कर लेते हैं।
छेनापोडा बहुत ही लज़ीज़ मिठाई है, खाते हुए मुझे गीता बहुत याद आई। वो मेरे साथ मिठाई बहुत खुश होकर खाती है। जब भारत आएगी तो उसे खिलाऊंगी।
देखने में केक की तरह लगता है जिसकी बाहरी लेयर भूने छैने की बेहद स्वाद होती है। पीठा मीता जी ने खुद बनाया था। ये गुझिया की तरह होता है लेकिन इसका कवर चावल के आटे को गर्म पानी में मिलाकर हल्का सा नमक, घी मिलाकर कर गूंथ लेते है। फिर इसकी लोई में नारियल और ड्रायफ्रूट इलायची को भून कर मीठा मिला कर, उसमें भर कर मनपसंद शेप देकर कर तल लेते हैं।
डिनर के बाद हम कल के प्रोग्राम के चर्चा के लिए बैठे। श्री मोहंती तो घर पहुंचने के बाद ही इस काम में लग गए थे, कागज पेन और मोबाइल लेकर। बीच-बीच में मीताजी उन्हें टोकती रहती क्या हुआ? कैसे जाना है घूमने और साथ में मीताजी मेड से खाना भी बनवा रहीं थीं। दोनों इस काम में बहुत व्यस्त थे। मुझे उनकी व्यवस्थता देखने में बहुत आनंद आ रहा था। मैं बड़े परिवार में रहने वाली और जो बहने हैं वह भी 1 किलोमीटर की दूरी पर रहती हैं। घर में हमेशा रौनक रहती है। यह मेरे जीवन का पहला अनुभव होगा कि बच्चों को बहुत लायक बनाने के बाद, जीवन संध्या में माता-पिता कैसे रहते हैं ? बच्चों की दूर रहकर, पूरी कोशिश रहती है कि इन्हें किसी तरह की तकलीफ ना हो। बच्चे अपनी जड़ों से जुड़े हैं, वह आते हैं। बीच बीच में ये भी बच्चों के पास कुछ दिन रह कर आते हैं क्योंकि वे अपने बनाए घोंसले में ही रहना चाहते हैं। क्रमशः
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