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Sunday 19 May 2024

इंतजार लायक लंबी कतार है जगन्नाथ मंदिर पुरी , उड़ीसा यात्रा भाग 21, Jagannath Temple Orissa Yatra Part 21 नीलम भागी Neelam Bhagi

  


पंडित जी मुझे मंदिर से संबंधित प्रचलित कहानी सुनाते जा रहे थे  और मैं उन्हें ध्यान से सुनते हुए कलिंग स्थापत्य,शिल्प कला  में बनाए आश्चर्यजनक मंदिर को देख रही थी। मुख्य मंदिर में पहुंचते हैं। वहां भीड़  बाहर की तरह पंक्तियों में नहीं थी। इतने श्रद्धालुओं को देखकर  मुझे लगता है बच्चों को और बुजुर्गों का ध्यान रखना होगा। क्योंकि कोई किसी को नहीं देख रहा था। सबको दर्शन की लालसा थी।  पंडित जी  ले गए और मैंने बहुत अच्छे से दर्शन किए। यहां तीन  लकड़ी से निर्मित बड़े भाई बलभद्र, बहन सुभद्रा और जगन्नाथ जी के दर्शन के बाद,  हम बाहर आए। मुझे बहुत अच्छा लगा।  अगर यह पंडित जी न मिलते तो इतनी जल्दी मैं कैसे दर्शन  कर पाती! यहां छोटे छोटे 30 मंदिर हैं। मुख्य मंदिर के बाईं ओर, जगन्नाथ जी की रसोई है। यहां मिट्टी के बर्तन में और लकड़ी पर भोग बनाया जाता है। 500 रसोइए और उनके 300 सहयोगी 56 भोग बनाते हैं। जिसका भगवान को 6 बार भोग लगता है। 250 चूल्हों पर 7 बर्तन घेरे में लगते हैं। सबसे पहले ऊपर वाले का प्रसाद बनता है और क्रम से नीचे की ओर बनता जाता है। सदियों से वही स्वाद है। प्रतिदिन 20,000 के लिए और विशेष दिनों पर 50000 तक के लिए बनता है। भगवान को छह बार भोग लगता है। प्रवेश से पहले आनंद बाजार में यहां से बना महा प्रसाद ले सकते हैं। महाप्रसाद खाने के लिए भी यहां जगह दी गई है। मंदिर में प्रतिदिन 800 से अधिक साल से सूर्यास्त के समय झंडा बदला जाता है। और आश्चर्य यह है कि झंडा हवा की विपरीत लहराता है। मंदिर सुदर्शन चक्र जहां से भी देखो, आपको अपनी ओर सामने नजर आएगा। शिखर के आसपास पक्षी उड़ते, बैठते नहीं दिखते हैं और ना ही उसकी परछाई दिखती है। मंदिर के चार द्वार सिंहद्वार, अश्वद्वार, हाथीद्वार, व्याघ्रद्वार हैं। मंदिर देखने में मुझे एक घंटा लगा। पहले मन में भगवान  के दर्शन करने की लालसा थी। अब  पंडित जी की कहानियां बहुत  दिलचस्प लग रही थीं।  

  यह मंदिर हमारे हिंदू धर्म के चार धाम में से एक है। विष्णु के आठवें अवतार यहां जगन्नाथ  कहलाते हैं। बद्रीनाथ में भगवान ने स्नान किया था। गुजरात के द्वारका से राज श्रृंगार  किया। प्राचीन नगरी पुरी में भोजन किया और रामेश्वरम में विश्राम किया। 11वीं शताब्दी में  4 लाख वर्ग फीट में बनना शुरू हुआ। इसकी ऊंचाई 214 फिट है। यह  अनंग भीमदेव तृतीया के शासनकाल में 1230वीं शताब्दी में पूरा हुआ। मंदिरों में देवताओं की स्थापना की गई। विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ जी का मंदिर, रथ यात्रा के लिए मशहूर है। जो आषाढ़ माह के दूसरे दिन निकलती है। उस समय यहां पर 10 लाख के करीब देश दुनिया भर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। भारत में सभी देवी देवताओं के मंदिरों में भगवान  गर्भ ग्रह में स्थापित रहते हैं पर हमारे जगन्नाथ जी मंदिर से बाहर गुढ़िचा  मंदिर मां मौसी घर जाते हैं। वहां 8 दिन रहते हैं। दसवे दिन वापस जिसे  बोहुडा यात्रा कहते हैं। ऐसा मानते हैं  जैसे भगवान  मथुरा से वृंदावन गए थे। भगवान तो सबके हैं लेकिन मंदिर में प्रवेश केवल हिंदुओं को दिया जाता है। अब जगन्नाथ जी की रथ यात्रा में बहन भाई के  तीन सुसज्जित रथ  बाहर आते हैं। भाग्यशाली लोग उनका दर्शन कर सकते हैं।  मंदिर का इतिहास और मूर्ति निर्माण की कथा बहुत दिलचस्प है। विश्ववसु  राजा जगन्नाथ की नीलमाधव के रूप में नीलांचल पर्वत की गुफा में सबसे छुपा कर, रख कर पूजा करता था। ब्रह्मांड के स्वामी विष्णु ने राजा इंद्रधुम्न  को सपने में कहा कि एक भव्य मंदिर बनाकर उसमें मेरे रूप में नीलमाधव को स्थापित करो। राजा के सेवकों ने मिल नीलमाधव को ढूंढा पर सफल नहीं हुए। राजा ने एक ब्राह्मण पुजारी विद्यापति से  अनुरोध किया। वह इस प्रयास में लग गया पर सफलता हाथ नहीं लगी लेकिन उस विद्यापति ने विश्ववसु राजा की पुत्री ललिता से प्रेम कर, विवाह कर लिया। विवाह के बाद उसने अपने ससुर से नीलमाधव के दर्शन की इच्छा प्रकट की। विश्ववसु दामाद की आंखों पर पट्टी बांधकर उसे दर्शन कराने ले गया। चतुर विद्यापति मार्ग में सरसों के दाने बिखेरता गया। बाद में वह मूर्ति चुराने में सफल हो गया और मूर्ति जाकर अपने राजा इंद्रधुम्न को दे दी। मूर्ति चोरी से राजा विश्ववसु बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त को दुखी देखकर भगवान भी उसके पास लौट गए और जाते हुए इंद्रधुम्न से कहा कि वह उनके लिए बहुत सुंदर मंदिर बनवाए वे जरूर आएंगे। राजा ने मंदिर बनवाया और विष्णु जी को उसे पवित्र करने के लिए आग्रह किया पर विष्णु जी ध्यान में थे। 9 साल लगे। मंदिर रेत में दबता गया फिर इंद्रधुम्न को नींद में भगवान ने कहाकि द्वारका से दिव्य वृक्ष का लट्ठा पुरी तट पर आ गया है। उससे  मूर्ति बनवाओ। राजा अपने सेवकों सहित  उठाने गया वह तो किसी से हिला भी नहीं। राजा समझ गए कि इसे उनके भक्त राजा विश्व वसु ही उठा सकता है। विश्ववसुदेव से आग्रह किया। वह तुरंत आ गए और वे अकेले ही लट्ठे को उठाकर, राजा के भवन ले गए। अब सवाल था मूर्ति बनाने का। बड़े-बड़े कारीगर आए पर कोई इसमें छेनी भी नहीं ठोक सका। एक दिन बूढ़े के रूप में तीनों लोक के इंजीनियर भगवान विश्वकर्मा आए। राजा ने उनसे अनुरोध किया कि मुझे इस दिव्य लट्ठ से मूर्तियां बनवानी हैं। बूढ़े ने कार्य करने की शर्त रखते हुए कहा,"मैं 21 दिन में मूर्तियां बना दूंगा लेकिन कोई भी झांकने नहीं आएगा अगर किसी ने अंदर देखा तो मैं काम बंद कर दूंगा।" कमरा बंद हो गया, सबको  ठक ठक सुनाई दे रही थी। अब कुछ दिन बाद अंदर से छैनी हथौड़ी की आवाज बंद हो गई। इंद्रधुम्न की रानी गुड़ींचा ने बाहर से कान लगाया। कोई आवाज नहीं। उसने अपने पति से कहा कि काम करते हुए वह बूढ़ा  कारीगर मर तो नहीं गया। राजा ने तुरंत दरवाजा खोला बूढ़ा गायब! वहां तीन अधूरी मूर्तियां थी। भगवान नीलमाधव और बलभद्र के छोटे-छोटे  हाथ बने थे, टांगे नहीं। सुभद्रा के हाथ पांव भी नहीं। राजा ने इसे प्रभु की इच्छा मानकर तीनों भाई बहनों को इसी रूप में स्थापित किया और वे आज तक वैसा ही है।

 सुनते हुए  कब वहां पहुंच गए! जहां मेरी चप्पल और मोबाइल रखा था। पंडित जी को दक्षिणा देकर प्रणाम किया। उनके कारण मेरा यहां आना सफल हुआ। पंडित जी मुझे बैटरी गाड़ी में बिठाकर लौटे। मंदिर प्रातः 5:30 बजे से रात्रि 9:00 तक खुलता है। यहां से पूरे देश से रेलवे लाइन जुड़ी हुई है। मंदिर का कोई प्रवेश शुल्क नहीं है। इंतजार लायक लंबी कतार है। स्टेशन से मंदिर की दूरी 2.8 किमी और बस अड्डे से 1.9 किमी है। यहां से खूब ऑटो टैक्सी रिक्शा मिलते हैं।

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क्रमशः







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