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Friday 5 February 2021

भारतीय संस्कृति को अपना रहें विदेशी-मानव कल्याण की संस्कृति नीलम भागी

हांगकांग में तीन घण्टे लाइन में खड़े होकर, 25 मिनट की केबल कार यात्रा करके मैजेस्टिक ब्रांज बुद्धा के दर्शन करने गई। बिग बुद्धा की ये विश्व में खुले मैदान में 250 टन, 34 मीटर की कांस्य की प्रतिमा है इनके मुख पर 2 किग्रा सोना जड़ा है। मैंने भी 260 सीढ़ियां चढी, बुद्ध के दर्शन किए। लोग बुद्ध को देख रहे थे और मैं दुनियाभर से आये पर्यटकों के चेहरों से टपकती हुई श्रद्धा देख रही थी। अब मुझे अपने पर गर्व होने लगा क्योंकि ’’मेरा देश हिन्दुस्तान, जहां जन्में बुद्ध महान’’ सबसे हैरान किया पूजा करने के तरीके ने नीचे लाइनों में हवन कुण्ड की तरह आयताकार बड़े बड़े बर्तन लगे थे। गुच्छों में अगरबत्तियाँ श्रद्धालु खरीद कर, हमारे देश की तरह दूर से दिखने वाली बुद्ध की प्रतिमा की ओर मुहँ करके जलाकर प्रार्थना कर रहे थे। अगरबत्ती की राख उन बर्तनों में गिर रही थी। सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री संघमित्रा भी बौध भिक्षु और भिक्षुणी थे। उन्होंने  बौध धर्म का प्रसार दक्षिण पूर्व एशिया तक किया। भारत की धरती से बौध धर्म मंगोलिया तक फैला। बौध भिक्षु और भिक्षुणियों ने दूर दूर तक बौध धर्म का प्रसार किया। उस समय समुद्री यात्रायें करना आसान नहीं था। कई बौद्ध भिक्षुक तो रास्ते में समुद्र में ही डूब गए। आज यहां बुद्ध धर्म का प्रसार ही नहीं तथागत की मूर्तियां भी मन को मोहती हैं। जहां भी बौध धर्म (इनमें सनातन धर्म की परंपराएं भी मिश्रित हैं) प्रभाव रहा है। वहां भारतीय संस्कृति की झलक भी दिखी।

मकाउ में मकाउनिस की आस्था का प्रतीक, अमा टैम्पल गई। जो समुद्र की देवी, मछुआरों की रक्षक का टैम्पल है। यहाँ भी अगरबत्तियाँ जला कर लोग, हमारी तरह हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहे थे। लेकिन जलाने की जगह फिक्स थी। मुझे भी तो सागर के रास्ते मकाउ से हाँग काँग एयरपोर्ट लौटना था। मैंने भी दिल से देवी की प्रार्थना की।  

यानि हमारी संस्कृति का प्रभाव दूसरे देशों पर भी पड़ता है। ये देखकर ही तो कहते हैं कि भारत सभ्यताओं का नहीं, संस्कृति का राष्ट्र है। सभ्यताओं में संघर्ष हो सकता है पर संस्कृति हमें जोड़ती है। सिंगापुर में साउथ ईस्ट खाने के रैस्टोरैंट हैं। उनके प्रवेश द्वार पर सजावट की गई थी। स्टेज़ पर बड़े बड़े मजीरों और ड्रम से संगीत बज रहा था। लोग शांति से बैठ कर सुन रहे थे। आगे की सीटें पूर्वजों की आत्माओं के सम्मान में खाली रखी जाती हैं मान्यता है कि वे उन पर आकर बैठ कर संगीत सुनतीं हैं। इसे यहां हंगरी घोस्ट फैस्टिवल कहते हैं। ये सातवें महीने की पंद्रवीं रात को होता है। इस महीने को घोस्ट मंथ कहते हैं। पित्रों का विर्सजन रात को किया जाता है। कागज की नाव में दिया जला कर पानी में बहाते है। आसमान में टिमटिमाते तारे और पानी में तैरते हुए दिए बहुत सुन्दर लगते हैं। मानना है कि रास्ते के अंधेरे मे ये दिए उन्हे राह दिखाते हैं। श्राद्धों की तरह यहां पितरों की याद में घोस्ट फैस्टिवल मनाया जाता है। हमारे देश की तरह यहां  र्पूवजों को सम्मान दिया जाता है। पितरों की याद में  हंगरी घोस्ट फैस्टिवल  त्यौहार मनाया जाता है। मान्यता है कि साल में एक बार स्र्वग नरक के दरवाजे खुलते हैं, और आत्माएं धरती पर आती हैं। इसे ओबोन कहते हैं। उनके स्वागत के लिए घर से बाहर  कंडील लगा कर रास्ता दिखाने के लिए उसमें दिया जलाया जाता है। शाकाहारी भोजन मंदिरों में या घर के बाहर रक्खा जाता है। सिंगापुर में मेरे लौटने से 5 दिन पहले इंडोनेशियन मेट यूनी आई। यूनी को इंडियन खाना बनाना नहीं आता था। मैं उसे भारतीय खाना बनाना सिखाती रही। शौक के कारण बाकि वह बेटी से सीख ही लेगी। मेरे सिखाने का मकसद था कि दुनिया में भारतीय खाना बहुत पसंद किया जाता है। भारतीय खाना बनाने के कारण इसकी बहुत डिमाण्ड रहेगी।

42 साल की अविवाहित जर्मनी की कात्या मुलर दुबई में हमारे घर की मकान मालकिन थी। कई बार भारत आ चुकी थी। गीता के अंग्रेजी में अनुवाद को अण्डर लाइन करके पढ़़ती थी। बहुत अच्छी बांसुरी वादक और बहुत योग्य कन्सल्टेंट थीं। मुझसे बतियाने को रात आठ से नौ एक घण्टा निकाल लेती थीं। उसे हिंदी नहीं आती थी, मुझे जर्मन। वो इस समय डिनर से पहले लाॅन में वाइन पीती थी और मैं अपना मसाला छाछ लेकर जाती। वो मुझसे अंग्रेजी में बात  बहुत आसान शब्द खोज कर बहुत कम स्पीड से बोलती थी। मैं तो थी ही स्लो मोशन में। अब उसने मुझसे पूछा कि मेरा वाइन न पीना क्या धार्मिक कारण है? मैंने कहाकि नहीं। उसने फिर प्रश्न किया कि फिर क्या कारण है वाइन न पीने का। मैंने कहाकि जहाँ तक मैं समझती हूँ इसका कारण पारिवारिक और भौगोलिक हो सकता है। मैं ब्राह्मण हूँ। कपूरथला के जिस घर में मेरा जन्म हुआ, वहाँ मंदिर  है। जो बनता है वह ठाकुर जी को भोग लगता, वही सब परिवार खाता है। जो उनकी पसंद होती है। वो हमारी आदत बन जाती है। हम खाने के साथ मट्ठा पीते हैं। ये भी फरमेंटेशन  और बैक्टिरिया प्रोडक्ट है। हमारे यहाँ बर्फ नहीं पड़ती इसलिये शायद हमें ये सूट करता है। हम जहाँ भी जाते हैं दूध, दहीं, लस्सी की आदत साथ लेकर जाते हैं। ऐसा क्यों? कभी प्रश्न ही नहीं मन में उठता। जो बचपन से देखते हैं शायद यही परंपरा बन जाती है। आप जो पीते हैं, ये शुगर का फरमंटेशन है, जो एल्कोहल में बदल जाता है। र्जमनी में माइनस में तापमान हो जाता है। वनस्पतियाँ भी इतनी ठण्ड में कम होती होंगी, हो सकता है इसलिये आपके खाने में वाइन और मांस अवश्य होता है। तुम्हें हैरानी होगी कि मैंने अपने जीवन में पहली बार अपने सामने किसी को शराब पीते देखा है। उसने एक सांस में पता नहीं कितनी बार सॉरी कहा। मैंने हंसते हुए उसे समझाया कि ये कहने का मेरा कोई मतलब नहीं था क्योंकि हमारे परिवारों में कोई पीता नहीं है। इसलिये  वाइन घर में नहीं होती। तो देखती कहाँ से? हमारे बुर्जुग रिश्ता करते समय बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे यहाँ पीने खाने(मांस मदिरा शब्द का भी प्रयोग नहीं करते) का रिवाज़ नहीं है। अपने बारे में मैं यह कह सकती हूँ कि बचपन से ये शब्द सुनते, मेरे लिये ये शायद संस्कार बन गया। मेरे सामने चाहे कैसा नानवेज, कीमती वाइन रख दो, मैं चख भी नहीं सकती। जब वह अपने घर में पार्टी रखती तो जिस भी देश की सहेली होती जैसे फ्रैंच सहेली एंजिलक्यू पहले आयेगी, दो डिश वो बनायेगी उसका पति बाद में ऑफिस से आयेगा, दो कात्या मुलर  बनायेगी दो मैं। एंजिलक्यू के आने पर हम तीनों किचन में गये। मैंने दालमक्खनी और पालक पनीर बनाया। एंजिलक्यू और कात्या मुलेे तो छौंक की ही खूशबू को ही लंबी लंबी सांसो से सूंघ कर खुश होती रही। जब वे नान वेज बनाने लगी तो मैं तैयार होने आ गई। पोचमपल्ली साड़ी पहन कर जब मैं गई, दोनों बहुत खुश हुईं, एंजिलक्यू इंगलिश नहीं जानतीं थीं। उन्होंने मेरे लिए कहा कि ये डिनर क्वीन है ये काम नहीं करेगी। साड़ी का इतना सम्मान!!जबकि उनके विश्व के नामी ब्राण्ड के कपड़े थे। कुछ ही देर में एंजिलक्यू के पति भी आ गये। कात्या मुले ने सबका परिचय करवाया। लॉन में ही खाना लगाया। इण्डियन, र्जमन और फैंच खाने की तस्वीरें ली गई। हमेशा की तरह मेरे परिचय में उसने कहाकि इण्डिया से नीलम, ये सिग्रेट, शराब नहीं पीती है, न ही नॉनवेज खाती है। तब सब बड़े हैरान होकर मुझे देखते। मेरी साड़ी की खूब तारीफ की जाती। तीन महीने तक हम दोनों ने खूब बातें कीं। मैं तो घूमने गई थी। शाम को जैसे ही वह मुझे आवाज लगाती मैं छाछ का गिलास पकड़े दौड़ी जाती। फादर डे पर उसने तीन र्काड खरीदे और दुखी होकर बोली कि अगर वह जर्मनी में होती तो उन्हें गिफ्ट देती, किसी को डिनर पर ले जाती। उसने मुझसे पूछा,’’तुम्हारे यहां फादर डे होता है?’’मैंने कहा,’’हमारे यहां तो रोज फादर को विश करते हैं।’’मेरे परिवार का सुनकर बहुत हैरान होती थी कि इतने सारे लोग एक घर में रहते हैं। क्योंकि जर्मनी में एक ही शहर में उसकी अविवाहित बहन परिवार से अलग रहती थी। तीन बार कात्या मुले लिव इन में रही, ये सोच कर कि वह शादी अपने बराबर के आई क्यू वाले से करेगी पर तीनो उसके लिए सूटेबल नहीं थे। जब मैं इण्डिया लौटने लगी तो उसने मेरा हाथ पकड़ कर पूछा,’’जब मैं बूढ़ी हो जाउंगी, तुम मुझे अपने परिवार में रख लोगी न।’’मैंने जवाब में कहा कि तुम रहोगी मुझे अच्छा लगेगा।        

 संस्कृति सैंकड़ों हजारों सालों में स्वरूप लेती है। ये प्रकृति से लेकर हमारी जीवन शैली व विचारों में हुई उथल पुथल का परिणाम होती है। भारत में विविधता को बनाये रखते हुए अन्य से ग्रहण करने की संस्कृति है। विश्व की पहली बीस भाषाओं में छ भाषाएं भारतीय हैं। हिंदी तीसरे स्थान पर है। लिपि से भाषा, भाषा से संस्कृति, संस्कृति से धर्म और धर्म से इंसान। भौगोलिक स्थिति और कई धर्मों के कारण भारतीय संस्कृति बहुआयामी है। विश्व के अलग अलग हिस्सों को यह प्रभावित करती है। आज विश्व में चार हजार के करीब विदेशी हिंदी सीख रहें हैं, भारतीय संस्कृति को जानने के लिए। संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा है और भोजन महत्वपूर्ण हिस्सा है। दोनों ही विश्व प्रसिद्ध हैं। संस्कृति साहित्य का प्राण है तभी तो साहित्य का अनुवाद हो रहा है। शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास ही संस्कुति की कसौटी है इसलिए विश्व ’योग दिवस’ मनाता है। सैलीब्रेटी हाॅलीवुड सुपर स्टार विल स्मिथ, जूलिया रार्बट को यहां शांति सकून लगता है। जापान की मायूमी कालबेलिया नृत्य करती है। जार्ज हैरिसन के लिए हरे कृष्णा है। रसेल ब्राण्ड की हिन्दू शादी।

मानव कल्याण की संस्कृति है तभी तो इतनी प्राचीन है। मानव जाति के कल्याण की कामना करती है न की किसी देश या जाति की क्योंकि  विश्व को परिवार मानती है। काल के क्रूर थपेड़े खाते हुए जीवित है हमारी भारतीय संस्कृति।         


यह लेख केशव संवाद के फरवरी 2021 अंक में प्रकाशित हुआ है।

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