1000 से ज्यादा देशभर से साहित्यकार रीवा, अखिल भारतीय साहित्य परिषद के 17वें राष्ट्रीय अधिवेशन रीवा में पहुंचे हुए थे. और इतने लोगों की व्यवस्था वाले अन्य भी. विशाल पंडाल में खानपान की व्यवस्था थी. यहां सभी लाइन में लगने का नियम अपना रहे थे इसलिए सब कुछ व्यवस्थित था. कोई भी व्यंजन कम नहीं होता था. इतने में मुझे पीछे से आवाज आई, लाइन में लगी एक महिला दूसरी महिला जो अपनी खाली प्लेट में कुछ और लेने आई थी. तो वहां खड़ी महिला ने उसे ज्ञान बांटा, "देखिए आप जूठी प्लेट में, जूठे हाथों से खाने को छू रही हैं और ले रहीं हैं. आपके छूने से यह भोजन भी जूठा हो गया. मैंने खाना लेना छोड़ दिया और उनका संवाद सुनने के लिए लाइन से बाहर आकर खड़ी हो गई. जूठी प्लेट वाली महिला ने बहुत ही अजीब नजरों से, ज्ञानवती महिला को देखा और मुस्कुराई, बोली कुछ नहीं. जवाब दो महिलाओं ने दिया. एक ने कहा," आप शायद पहली बार अधिवेशन में आई हो, ऐसे नियम कायदे कहीं नहीं चलते, आपकी रसोई आपकी होती है वहां जो मर्जी चलाइए." दूसरी बोली, " एक बार में थाली में सब भर लो खाया जाए, या न खाया जाए, फिर जो बचे उसे डस्टबिन में डाल दो. यानि खाना बर्बाद! अगर भूख और है तो दोबारा लेना है, इस प्लेट को डस्टबिन में डालो. फिर. दोबारा हाथ धोकर प्लेट लो फिर लाइन में फिर से लगो 😄. उनके संवाद सुनकर मैं फिर अपनी लाइन में लग गई. मेरे पीछे वाली महिला बोली, "आई बड़ी, अयोध्या जी की बामणी." लाजवाब डायलॉग बोलने वाली को मैंने मुड़ कर देखा, वह मुझे हमेशा साहित्य परिषद के किसी न किसी प्रोग्राम में जरूर मिलती है. अपने साहित्यकार पति के साथ घूमने के लिए आती है. कई बार मेरे साथ रूम भी शेयर किया है. सत्र के समय वह कमरे में रेस्ट करती है क्योंकि उससे उसका कुछ लेना देना नहीं . उसका मज़ेदार जवाब सुनकर मैं हंस दी. वह मुझे समझाने लगी, " दीदी पंगत में बिठाकर खिलाना आसान नहीं है. खिलाने वालों की झुके झुके कमर दुखने लगती है. ऐसे खाना लेने से खाना बर्बाद नहीं होता है. सब उतना ही लेते हैं, जितना खाया जाए और जरूरत हो तो और ले लो. "
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