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Monday, 4 March 2024

अयोध्या कैंट स्टेशन, श्री रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र, अयोध्या धाम की यात्रा भाग 10 नीलम भागी

 


  15 मिनट चाय पीते हुए इंतजार किया। फिर  5.20 पर मैं अकेले ही स्टेशन के लिए निकल गई। दो ऑटो वालों में मेरे लिए बहस होने लगी। एक ₹400 मांग रहा था। दूसरा 350₹ मांग रहा था। पहला  कह रहा था। मैंने  इनकी अटैची को पहले पकड़ा था। पर अब अटैची मेरे हाथ में थी। एक तीसरा ऑटो सवारी लेकर आया, सवारी उतरी। यह दोनों बहस में लगे थे। उसने मुझसे पूछा," स्टेशन जाना है। मैंने कहा," हां, कितने पैसे में।" वह बोला," ₹200।" मैं झट से बैठ गई। उन्होंने बहस में मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया। ये  चल पड़ा। स्टेशन से कुछ पहले, हमारे पहुंचते ही फाटक बंद हो गया। इस ऑटो वाले ने कहा," सामने स्टेशन है, मैं आपका लगेज उठा लेता हूं। आपको प्लेटफार्म पर पहुंचा देता हूं। मैंने कहा ,"फाटक खुलेगा तब जाऊंगी।" काफी देर बाद एक गाड़ी निकली। फाटक नहीं खुला। उसने कहा," मैं दूसरे रास्ते से जाऊंगा तो बहुत लंबा चक्कर है और मेरी पर्ची कटेगी ₹100 देना पड़ेगा।"  बेचारे का नुकसान ना हो, मैं ऑटो से उतरी। उसने पास में ज़मीन पर बैठी  महिला से मूंगफली खरीदी और उसे कहा,"बहिन गाड़ी का ध्यान रखना, मैं मां को छोड़कर आता हूं।" उस बेटे ने मेरा लगेज उठाया, मैं उसके पीछे चल दी। पाइप के नीचे से झुक कर, मैं भी बड़ी मुश्किल निकली।  वह मुझे दो लाइनों से क्रॉस करवा के तीसरी पर ले गया। साइड में मिट्टी थी। कोई पटरी नहीं थी, जिस पर मैं चल नहीं सकती थी। अब एक ही रास्ता था, कूद कूद के जो लकड़ी के फट्टे दोनों पट्रियों को जोड़ते हैं , उन पर पैर रखकर चलने का, चलने लगी। अब मैंने पूछा," बेटा गाड़ी आ गई तो!" उसने जवाब दिया,"इस लाइन पर गाड़ी नहीं आएगी, वह देखो सामने लाइन पर वेल्डिंग हो रही है न, वर्ना मैं आपको नहीं लाता।" अब मैं गिर ना जाऊं, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। जो स्टेशन पास लग रहा था। कठिन डगर पर  चलने से, काफी दूर लग रहा था। पत्थर पर चलने से पैर मुड़ने का डर था। यह तो अच्छा हुआ, मैंने जूते पहने हुए थे। भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि आगे से ऐसी बेवकूफी कभी नहीं करूंगी, बस इस बार ठीक से पहुंच जाऊं। मेरे बच्चे  पढ़ेंगे तो मुझ पर गुस्सा करेंगे। फिर भी लिख इसलिए रही हूं ताकि और कोई ऐसी नेकी न करें। जब मेरे बाजू से दूसरी ट्रेन निकली तो बस मेरी जान नहीं निकली! सिर्फ दूर लाइन पर काम करने वालों को देखकर मेरे अंदर हिम्मत थी कि इस लाइन पर गाड़ी नहीं आएगी। अब मेरे इस बेटे ने मुझे प्लेटफार्म पर एक बेंच पर पहले बिठाया और  टी टी से पूछा, "गाड़ी कौन से प्लेटफार्म पर आएगी"। टी टी ने कहा," एक नंबर पर , लेकिन अनाउंसमेंट ध्यान से सुनना, 20 मिनट पहले ठीक पता चलेगा।" इस बेटे ने कहा कि अंडरग्राउंड से प्लेटफार्म दो पर जाया जा सकता है। अगर बदला तो सीढ़ी से मत जाना। मैंने उसे भाड़ा दिया। वह बेटा खुशी खुशी चला गया। मैं स्टेशन पर ध्यान देने लगी, बहुत ही साफ स्टेशन बहुतायत में बैंच लगे थे। पोचे ऐसे लग रहे थे, जैसे स्टेशन न होकर प्राइवेट नर्सिंग होम हो। खूब बंदर थे पर किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। लोग उनको खाने को देकर पुण्य कमा रहे थे। वे बिस्कुटों से अघाये हुए थे। फिर भी बिस्कुट का पैकेट खोल कर फैला देते थे। कुछ लोग जो बिना नीचे देख चलते हैं उनके पैरों के नीचे से बिस्किट्टों का पाउडर बन जाता तो कुछ ही देर में वह साफ हो जाता।  इतनी यात्रा की हैं पर मैंने ऐसी सफाई कहीं नहीं देखी! लोकनायक एक्सप्रेस गाड़ी आधा घंटा लेट थी और प्लेटफार्म भी बदल गया। अब मैं अंडरग्राउंड से दूसरे प्लेटफार्म पर आ गई। यहां भी वैसे ही प्लेटफार्म का सीन था। आधा घंटा करते-करते हमारी गाड़ी दो घंटा लेट हो गई। अचानक कुछ देर पहले स्टेशन पर हलचल मच गई। पुलिस वालों ने बड़ी नम्रता से सबको थोड़ा पीछे किया और हाथों में टॉर्च पकड़े,  रोशनी वाले प्लेटफार्म पर भी, पुलिस ने टॉर्च दिखानी शुरू कर दी। ऐसा क्या हो गया! मन में प्रश्न उठा, पता चला कि आस्था गाड़ी गुजरेगी। आस्था गाड़ी  इस स्टेशन पर नहीं रुकी। आस्था गाड़ी के ठंड की वजह से खिड़कियां दरवाजे सब बंद थे। पर जो भी दो , चार खिड़कियां खुली थी, वहां पर सवारियां एक सी  डिस्पोजल प्लेट में खाती हुई दिखाई दीं। अंदर से महिलाओं ने जोर से नारा लगाया, "जय श्री राम"  गाड़ियों के इंतजार में खड़ी सवारियों ने भी उसी जोश से जवाब दिया  "जय श्री राम।" आस्था के जाते ही, अब रुकी हुई दो गाड़ियां 20 ,20 मिनट के अंतर पर  आई। ऐसा सीन मैंने कभी नहीं देखा। मेरे सामने जो डिब्बा था। उसके दरवाजे बिल्कुल नहीं खुले। अंदर बैठी सवारियां खिड़की से समोसे आदि खरीद रही थीं। दरवाजा न खुलने से सावरियां आगे चलती। बाजू के डिब्बे में दरवाजा खुला था और इतनी सवारियां थी बड़ी मुश्किल से चढ़ रही थी। पुलिस भी मदद कर रही थी पर बड़ा मुश्किल था, डिब्बे में प्रवेश करना था। इस गाड़ी के बाद शायद फरक्का एक्सप्रेस थी। उसमें भी चढ़ने का यही सीन था पर दो लड़के आए एक गाड़ी में चढ़ने की कोशिश कर रहा था। दूसरा एक डिब्बे में एक खिड़की में ग्रिल नहीं थी उसमें सामान फेकता जा रहा था। अंदर बैठी सवारियां शायद खुद ही अपना बचाव कर रही होंगी। मेरी तो सांसे अटक गई अगर यह चढ़ नहीं पाया तो इसके सामान का क्या होगा! पर गाड़ी के चलने के समय तक वह चढ़ गया। प्लेटफार्म पर बैठे  दर्शकों ने तालियां बजाईं। जिसने डब्बे में सामान भरा था। वह तो बहुत ही खुश था। अब हमारी गाड़ी के आने का समय हो गया और। देखा कि   बी 6 डिब्बा कहां खड़ा होगा? ताकि मैं वहां पहुंच जाऊं। अब ध्यान आया कि यहां तो किसी भी गाड़ी  के डिब्बे का डिस्प्ले ही नहीं किया, तभी तो सावरिया गाड़ी के साथ भागती थीं। अब बड़ी समस्या 🥺, 2 मिनट के लिए तो गाड़ी खड़ी होती है। स्टॉल वाले से पूछते कि बी 6 कहां खड़ा होगा? वह कहता कि उसे नहीं पता। फिर तो एकदम दौड़ना होगा।  यह थोड़ा सा समय सीनियर सिटीजन के लिए तो बहुत ही परेशानी वाला था। आप रात में पोचेे कम लगवा लो पर यह तो पता होना चाहिए कौन सा डिब्बा स्टेशन में कहां खड़ा होगा पर ऐसा नहीं हुआ। गाड़ी आई मैंने उस पर आंखें गड़ा रखी थीं ये सोच कर कि बी6 को देखकर  उसके साथ-साथ चलना शुरू कर दूंगी। गाड़ी आई रुक गई। बी डिब्बा शुरू ही नहीं हुआ, जहां मैं खड़ी थी। अब लगेज उठाया फटाफट पीछे की ओर दौड़ने लगी। बी 6 तक पहुंच कर लगेज अंदर किया और चढ़ी। अब बुरी तरह हाफ रही थी। कुछ देर सांस नॉर्मल होने पर मैं अपनी  सीट पर गई । वहां लेटी महिला को उठाया, उसने मेरी टिकट चेक की। तसल्ली होने पर मिडिल सीट पर जो पुरुष लेटा था। उसके सिर की तरफ टांगे करके लेट गई यानि एक सीट पर दो। अपनी लोअर सीट पर मिडिल सीट खुली होने के कारण, मैं बैठ तो सकती नहीं थी, लेट गई। उसकी जुराबों से इतनी दुर्गन्ध थी कि बड़ी मुश्किल से नींद आई। गाड़ी ने लेट होने पर भी समय पर गाजियाबाद प्लेटफार्म नंबर 3 पर उतारा। यह प्लेटफॉर्म भी बहुत साफ था। अंकुर मुझे लेने आ गया था और  बड़ी उत्सुकता से राम मंदिर, अयोध्या जी यात्रा के बारे में प्रश्न करता जा रहा था। अपने घर ले जाने लगा तो मैंने मना कर दिया। पहले अम्मा के पास जाना है। क्योंकि अम्मा को तीर्थ यात्रा से लौटने पर मेरा बहुत इंतजार रहता है। प्रसाद लेकर खुश होती है। अम्मा को दर्शनों के बाद जो मंदिर से प्रसाद मिला था, वह दिया। अम्मा ने जय सियाराम करके खाया। समाप्त








Monday, 19 February 2024

बंदरों को भगाने का अनोखा उपाय! श्री राम लला तीर्थ क्षेत्र अयोध्या धाम की यात्रा भाग 1 नीलम भागी

 





 अखिल भारतीय साहित्य परिषद दिल्ली प्रांत प्रतिनिधि मंडल की सदस्य श्री राम लला प्राण प्रतिष्ठा में कुछ ही समय बाकि था। हमें 19 जनवरी को एबीपी चैनल में डिबेट में बुलाया था। स्टूडियो के अंदर मंदिर का छोटा रूप रखा था। उसे देख रही थी, इतने में श्री प्रवीण आर्य राष्ट्रीय मंत्री अखिल भारतीय साहित्य परिषद का फोन आया कि दिल्ली  प्रांत से 5 प्रतिनिधि सदस्य , 10 तारीख को 10:00 बजे दर्शन के लिए जाएंगे, जिसमें मैं भी हूं। आप जल्दी से टिकट करा लीजिए। थोड़ा  समय निकल गया। अब जहां भी टिकट कराया, सब में वेटिंग! ऐसा लग रहा था सबको अयोध्या जी जाना है। खैर  लौटने का कंफर्म एक लंबी दूरी की गाड़ी में टिकट मिल गई गाजियाबाद तक। अंकुर ने कहा," मैं आपको गाजियाबाद से पिक अप कर लूंगा।" अब जाने का वेटिंग में मिला पर वह कंफर्म हो गया। हमारे प्रवीण जी की विशेषता है कि सूचना देकर  बैठते नहीं हैं। जब तक जाओगे तब तक संज्ञान लेते हैं। फिर उनका फोन आया," संजीव सिन्हा जी आपकी प्रवेशिका बनवाएंगे, उन्हें जो डिटेल चाहिए, भेज दो।" संजीव सिन्हा जी  प्रवेशिका ले आए। उन्होंने बताया कि एक ट्रेन चली है आस्था, जो रात 11: 55 को  8 तारीख को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से जाएगी।  मैंने उनकी आगे बात ही नहीं सुनी। यही कहा कि हमारी तो टिकट हो चुकी है जबकि उन्होंने भी दूसरी ट्रेन में रिजर्वेशन करवा रखा था। जाने से पहले मेरी 95 वर्षीय  अम्मा बताने लगी कि वे मेरी बड़ी बहन डॉ.शोभा जो 3 वर्ष की थी, उसे लेकर राम जन्मभूमि गए थे। पंडित जी ने शोभा के गले में माला डाल दी वह घुटने तक की माला पहने बड़ी खुशी से चल रही थी। एक मोटा सा बंदर आया उसकी माला खींची और कंधों से पकड़ कर  झटके दिए और माला  लेकर चला गया । बंदर सुनकर मैं भी थोड़ा सावधान हो गई। हमारी रात की गाड़ी गरीब नवाज थी। हमारे आसपास कर्नाटक का एक मुस्लिम परिवार था जो भाषा वह बोल रहे थे, वह नवाओथ थी जो नौ भाषाओं  का मिश्रण है। और दक्षिण पश्चिम भारत में बोली जाती है, मैंने पहली बार  सुनी थी। वह भी यात्राएं करते आ रहे थे और अब लखनऊ जा रहे थे इसलिए सब जल्दी सो गए। गाड़ी ने हमें सुबह, समय से अयोध्या कैंट स्टेशन पहुंचा दिया था। बहुत साफ सुथरा स्टेशन! स्टेशन से बाहर भी सफाई, बंदर थे पर किसी से कोई छीना झपटी नहीं  कर रहे थे। कोई आगे रिक्शा, टेंपो, ऑटो, गाड़ियां नहीं। चालक  सवारी पकड़ के दूर बैरिकेड से बाहर खड़ी, अपनी गाड़ियों पर बैठा कर ले जाते थे। मैंने डॉक्टर विनोद बब्बर जी( कार्यकारी अध्यक्ष ) को फोन पर पूछा है,"आप कहां है?" उन्होंने जवाब दिया, "गाड़ी में और हमारी गाड़ी 1:00 बजे पहुंचेगी और पिकअप करने के लिए गाड़ी आएगी और जहां स्टे है, वहां पहुंचा देगी? प्रवेशिका पर  एड्रेस लिखा है, आप वहां पहुंचे।"  प्रवेशिका पर लिखा था 'तीर्थ क्षेत्र  श्री राम जन्मभूमि अयोध्या धाम।' बैरिकेड पर बैठी पुलिस से पूछा कि हमें यहां जाना है। उन्होंने कहा कि सामने चौराहे से बस जाएगी और यहां से ऑटो, ई रिक्शा जाते हैं। उनसे बात कर लीजिए और यह एरिया फैजाबाद कहलाता है। वहां शेयरिंग ऑटो  थे और ई रिक्शा थे। पर एक ऑटो में बैठें, उसमें और सांवरिया भी बैठी हुई थीं उन्होंने उसी एरिया के होटल में जाना था। दूसरा  ऑप्शन था कि हम अयोध्या धाम के स्टेशन पर जाकर, एक बजे तक इंतजार करें, जब दिल्ली  से आस्था गाड़ी आयेगी तो जो बस लेने आएगी उसके साथ ही स्टे पर पहुंच जाएंगे। पर मेरे सर पर तो वास्कोडिगामा सवार हो गया था और मैं जल्दी से स्टे खोज कर, सामान टिका कर अयोध्या धाम घूमना चाहती थी। यहां से तीर्थक्षेत्र की ई रिक्शा की सवारी 40₹ है और शेयरिंग ऑटो 50₹ मांग रहे थे। उस समय ऑटो कोई नहीं था इसलिए मुझे रेट नहीं पता। इस बहाने से थोड़ा सा फैजाबाद से भी परिचय हो गया। ऑटो चालक शहर के बारे में कुछ न कुछ  बताता जा रहा था और बहुत  खुश था। उसकी खुशी का कारण उसने बताया, रामलाल के टिक कर बैठने से है अब 'जितने चक्कर लगाओ, उतना कमाओ'। हमें पतली पतली गलियों से ले जाकर वहां ले गया, जहां से कोई सवारी नहीं जाती थी। अब पैदल चलना था।  पर हमें तो पहले स्ट पर जाना था। उसे कहा तो उसने जवाब दिया कि इन सवारियों को होटल में पहुंच कर फिर आपको पहुंचता हूं। बस इनका होटल 1 किलोमीटर के अंदर है। मैं तो वैसे ही हैरान सी देख रही थी। सब जगह भगवान राम के केसरिया झंडे लहरा रहे थे। बंदर किसी को कुछ नहीं कह रहे थे। ऐसे घूम रहे थे जैसे उनके लिए राम राज्य है। श्रद्धालुओं की भीड़ चलती ही जा रही थी। यह सब देखना भी अपने आप में बहुत सुखद था। ऑटो वाला उनके होटल का एड्रेस लेकर उतर उतर कर ,जगह-जगह से पूछ रहा था और लोग बहुत कोऑपरेटिव अच्छे से समझ रहे थे। आखिर उनका होटल मिल गया। होटल के रिसेप्शन पर न कोई महिला, न ही महिला का पोस्टर। एक बहुत ही भीभत्स पोज़ में लंगूर का पोस्टर लगा हुआ था!! मैं झट से ऑटो से उतर कर रिसेप्शन पर गई, उससे पूछा," भैया यह पोस्टर होटल के रिसेप्शन पर क्यों लगाया है?" उसने जवाब दिया, "वृंदावन में बंदर चश्मा, मोबाइल सामान छीन लेते हैं तो बाहर से जो श्रद्धालु यहां आते हैं, वह बंदरों के कारण डरे रहते हैं। ये बंदर तो किसी को कुछ कहते नहीं, बड़े सीधे हैं। पोस्ट देखते ही भाग जाते हैं। तो जो यात्री यहां रुकते हैं आसपास घूमने से बंदरों से डरना बंद कर देते हैं।  नोएडा के बंदर तो बहुत उत्पाति हैं। उनके लिए एक लंगूर वाला आता था सुबह 9 से 5 बजे तक। लंगूर उसकी साइकिल के पीछे बैठा घूमता था। बंदर नहीं आते थे फिर बंदरों ने 9 से पहले और 5:00 बजे के बाद आना शुरू कर दिया।  अयोध्या जी के बंदर, लंगूर के पोस्टर से भाग जाते हैं!! क्रमशः