कल हमारी शहडोल से हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन दिल्ली तक, उत्कल एक्सप्रेस में रिर्जेवेशन था। थ्री ए.सी. में अभी भी वेटिंग थी। ये तो अच्छा हुआ कि हमने स्लीपर में भी रिर्जेवेशन करवाया हुआ था, जो कंर्फम हो गया था। शाम साढ़े छ बजे की ट्रेन थी। हमने शरद से तय कर लिया कि वह हमें एरण्डी संगम और माई की गुफा दिखा कर, शहडोल स्टेशन छोड़ देगा। पाण्ड्रा रोड से गये थे, लौटेंगे दूसरे रास्ते से क्योंकि यहाँ तो रास्ता भी दर्शनीय है यानि खूबसूरत। सुबह पैकिंग कर, सामान रिसेप्शन में देकर, नाश्ता करके हम योगीराज सीताराम गुफा और एरण्डी संगम गये। ये एरण्डी और पूरब से आती हुई नर्मदा और पुष्कर का संगम हैं। पुजारी जी ने बताया कि योगीराज सीताराम यहाँ एक सौ साठ साल रहे हैं। तीर्थयात्रियों का मेला लगा हुआ था। यहाँ से हम माई की बगिया की ओर चल दिये। रास्ते में शरद ने नर्मदा जी और सोन की असफल प्रेम कहानी सुनाई, जो मैं सोनमुड़ा में नर्मदा जी के पश्चिम की ओर मुड़ने के कारण, पुजारी जी से सुन चुकी थी। रास्ते में आम के पेड़ बहुतायत में थे। अब हम पैदल माई की गुफा की ओर चले। एक सन्यासी हमारे पीछे से आये और आगे निकल गये। कमर से नीचे तक उनकी जटायें थीं। वे बिना किसी सहारे के माई की गुफा में चले गये और हम सहारे से जा रहे थे। माई की गुफा में प्रवेश किया, वहां वही सन्यासी कुँवर गिरी कलहरी बाबा जी वहाँ बैठे हुए थे। पूजा करने के बाद कार्तिक ने बाबा के चरणों में माथा टेक, उनसे आर्शीवाद लिया और हम प्रणाम करके बैठ गये। मेरे प्रश्नों के जवाब में उन्होंने नर्मदा जी के विवाह की कहानी को जो मैं कई बार सुन चुकी थी, बड़े ही सुन्दर ढंग से नर्मदा जी के मोह से उनके कई नाम लेकर सुनाई।
मैकाल की कन्या के योग्य तो सोन ही उपयुक्त वर थे न, और नर्मदा जी को भी वे पसंद थे| उनसे रेवा का लग्न तय हो गया। ये सारा जो आप देख रहीं हैं, पाँच किमी का जनवासा था। रूद्र कन्या भी बहुत खुश थी, उनका मनपसंद वर जो था न। बारात नाचती गाती आ रही थी इसलिये थोड़ा लेट हो गई। नर्मदा जी अपनी प्रिय सखी जोहिला के साथ यहाँ बैठी बारात का इंतजार कर रहीं थी। उन्हें तो नहीं पता न देरी का कारण, वे मन की राजदार सहेली से बोली,’’ जोहिला, जाओ पता लगाओ, बारात की देरी का कारण।’’ जोहिला बोली,’’मेरा बारात में जाने लायक श्रृंगार पोशाक नहीं है।’’ नर्मदा जी बोली,’’तुम मेरा लेलो न।’’ जोहिला उनकी नाइन भी थी। पहले जमाने में नाइन के पास ही दुल्हिन का सब कुछ रहता था। वह नर्मदा जी की पोशाक, जेवर श्रृंगार पहन ओढ़ के चली गई। लगन का समय हो चला था, सब जोहिला को समझे कि वे ही नर्मदा जी हैं। श्रृंगार जो उनका दुल्हन वाला था। उन्हें फेरों पर बिठा दिया। बराती घराती भी भंवर देखने बैठ गये। जब काफी देर हो गई ,जोहिला नहीं आई तो नर्मदा जी खुद गई। सारा माजरा देख कर वे तो सन्न रह गई। उन्होंने गुस्से से श्राप दिया। सारा दहेज पत्थर में तब्दील हो गया। वो देखो ,जो काली काली चट्टाने हैं। वो बारातियों के नीचे बिछाने के कंबल थे। सामने बड़े पत्थर थे, वो ढोल नगाड़े थे। अब वे ध्यान से देखने पर ढोल नगाड़े नज़र आ रहे थे और भी बहुत कुछ बताया। नर्मदा जी पश्चिम की ओर तेरह सौ दस किमी. चल कर, बिना मुहाने पर डेल्टा बनाये ,खम्बात की खाड़ी में मिल जाती हैं। और लोगों की माँ, देवी कहलाती हैं। सोन पूर्व दिशा में और जोहिला आगे जाकर सोन में मिल जाती है। क्रमशः