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Tuesday 11 February 2020

जात पात ने रानो रामसरन को किस्सा बना दिया नीलम भागी Jaat paat ne Rano Ramsarn ko Kissa Bana diya Bhartiye Sahitya mein Samajik Samrasta Neelam Bhagi

बहुमत मध्य प्रदेश एवम छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित है

"तेरी जात क्या है?" ये प्रश्न सुनते ही दादी को दवा देने आई नर्स ने पहले घूर कर मेरी नब्बे साल की दादी को देखा, फिर न जाने क्या सोच कर, मुस्कुराकर बोली,’’ ऊँची जात की मुसलमानी पर माता जी, मैंने दवा को तो छुआ नहीं है।’’ दादी बोली,’’जिस कागज पर गोलियां हैं, उसे तो छुआ है न। मैं नहीं खाती दवा।’’नर्स भली थी, मुझसे बोली,’’चलो मेरे साथ तुम अपने हाथ से दवा ले लेना।’’ बाहर आकर वही दवा नर्स से लेकर, मैंने माफी मांगते हुए, उसे बताया कि ये बहुत छुआछूत ,जात पात मानती हैं। अब अशक्त हो गईं हैं। पहले जब घर से बाहर जाती थीं तो घर आते ही चाहे जितना भी जाड़ा हो, कपड़े समेत खड़ी, अपने ऊपर पानी की बाल्टी डलवाती थीं। जवाब में नर्स बोली कि इनकी ये आदत तो चिता के साथ ही जायेगी। अब जो भी नर्स आती, वह अपने को ऊँची जात की मुसलमानी, दादी के पूछने पर बताती। दादी पढ़ना जानती थी सिर्फ धार्मिक किताबें ही पढ़ती थी। भारतीय साहित्य में हमेशा सामाजिक समरसता का भाव रहा है। समरसता की प्रतीक रामायण, दादी सुबह नहा कर चौकी पर बैठ कर पढ़ती थी। आस पास की हम उम्र महिलाएं नीचे बैठ कर सुनतीं थीं। दादी के उपदेश साथ साथ चलते कि भगवान राम साधारण इनसान बन कर, हमें रास्ता दिखाने आये थे। जितनी मरजी परेशानी आये हमें जीवन से हार नहीं माननी है। जब आयोध्या से परिवार उन्हें वन में मिलने आया था तो लक्ष्मण केकई को देख कर भला बुरा कहने लगे उनका साथ भरत और शत्रुघ्न देने लगे पर श्रीराम ने उन्हे ऐसा करने से रोका क्योंकि वे परिवार में समरसता चाहते थे। निशादराज को गले लगा कर सामाजिक समरसता चाहते थे। शबरी के झूठे बेर खाकर उन्होंने संसार को ये संदेश दिया कि सब मनुष्य मेरे बनाये हुए हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है। केवट की नाव से पार हुए तो उसे मेहनताना दिया, मतलब किसी की मेहनत का हक न मारो ताकि समाज में समरसता बनी रहे। बालि का वध सामाजिक समरसता के लिये किया और इस पर कहा कि बालि वध न्याय संगत है क्योंकि छोटे भाई की पत्नी पुत्रवधु के सामान होती है। शरणागत विभीषण को भी अपनाया। राजधर्म, मित्रधर्म और प्रतिज्ञा सबके बारे में साधारण बोलचाल की भाषा में समझाती थीं। रामराज्य की कामना करतीं थीं। पर छुआछूत और जातिप्रथा की बुरी तरह से पक्षधर थीं। उनकी कथा सुनने वालियां इसे उनकी योग्यता मानते हुए प्रचार करतीं थीं कि माता जी राजपुरोहित की बेटी हैं न। छोटी जात वालों को नहीं छूती और छोटी जात वालियां उनसे दूर रह कर कथा सुनती पर उनसे र्तक नहीं करतीं थीं। जबकि वाल्मिकी रामायण में भी भेदभाव को महत्व न देकर सामाजिक समरसता को महत्व दिया गया है। भारतीय साहित्य में वासुधैव कुटुम्बकम से सामाजिक समरसता की बातें स्पष्ट होतीं हैं। जिसमें बंधुता का भाव स्पष्ट है। बंधुता आने से समता आयेगी और समता से समरसता आयेगी। साहित्य परंपरागत मूल्यों की पुर्नव्याख्या करता है और आधुनिक विमर्शों को स्वीकार करता है। नवीनता को स्वीकारना, आत्मसात करना हमारे समाज के हित में है। समाज में फैली व्याप्त कमियां, जिन्हें दूर करने का प्रयास किया गया है। वह आज भी कहीं न कहीं विद्यमान है।   
 पिताजी के असमय देहान्त पर एक जज साहब सपत्नी अम्मा के पास दुख प्रकट करने आये थे। एक एक करके उन्होंने हम सब बहन भाइयों की शिक्षा के बारे में पूछा। पिता जी की खूब तारीफ़ की और कह गये कि उनके लायक कोई सेवा हो तो बतायें। तेहरवीं तक परिवार, को  बैठना होता है। पड़ोसी मित्र भी आते हैं दुख बांटते हैं। हर वक्त तो रोया नहीं जाता। उसमें किस्से कहानियां भी सुनाये जाते हैं। जज रामचरण के जाते ही उसकी कहानी शुरू हो गई। ये पिताजी के डिर्पाटमेंट में लोअर डिवीजन र्क्लक भर्ती हुआ थे। हमारे पास के मौहल्ले में रहता थे। वहीं चार घर छोड़ कर एक पंजाबी रफ्यूजी परिवार भी रहता था और उनकी जाति वही थी, जो देश के एक नामी उद्योगपति घराने की थी। पर ये बेचारे बहुत मामूली दुकानदार थे। उनकी अर्पूव सुन्दरी बेटी रानो थी। रानो और रामचरण में प्यार हो गया। दोनो घर से भाग गये। लेकिन स्टेशन पर ही पकड़े गये। सबने कहा कि रानों की अब इससे शादी कर दो। रानो के बाप ने कहा,’’ इस दलित से शादी!! कभी नही, पाकिस्तान में ये हमारी हवेली में घुस नहीं सकते थे और मैं इसे बेटी दूंगा! न न हर्गिज़ नहीं।’’ उन दिनों टी. वी. तो होता नहीं था, रेडियो पर ही नाटक, कहानी सुनते थे। अब रानो और रामचरण के प्रेम की सत्यकथा को सुनाने में सब बहुत बड़े किस्सागो हो गये। इस किस्से को बार बार कहना सुनना, उन दिनों का सबसे बड़ा मनोरंजन था। रामचरण को इस अपमान से बहुत चोट पहुंची। पिताजी उसको समझाते और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते क्योंकि वह बहुत अच्छा लड़का था। जातिगत आरक्षण से वह समयानुसार अधिकारी तो बन ही जाता पर उसे भी न जाने कैसी लगन लगी थी। 10 से 5 ऑफिस फिर शाम को लॉ में एडमिशन लिया और बाकि समय पढ़ना। पड़ोसियों को उसकी शक्ल भी न दिखती थी। बिरादरी ने रानो की शादी सजातीय युवक से करवा दी। वो युवक अपनी शादी की खुशी में इतनी शराब पी कर आया था कि जयमाला के समय उससे खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था। रामचरण जज बन गया था। रानो की शादी के बाद, उसने शादी के लिये वैवाहिक विज्ञापन दिया और अपने स्टेटस के साथ लिखा हिन्दू ,जातिबंधन नहीं। बेटी वालों ने जात, गोत्र, जन्मपत्री सब छोड़ कर बस रामचरण के पद को देखते हुए रिश्ते की बात चलाई। रामचरण ने रानों की जाति की लड़की से शादी की। अब हमारे सामने पाँचवा वर्ण आ गया, जिसे अभिजात वर्ण या धनिक वर्ण कहा जा सकता है। जिसे समय ने बनाया है और इस वर्ग में स्टेटस देखा जाता है। मुझे दादी याद आने लगी। जो कहती थी वेदों में जाति के आधार पर वर्ण व्यवस्था है। जबकि वेदों में र्कम के आधार पर वर्ण व्यवस्था थी जिसमें समय के साथ कुरीतियां और विकृतियां आ गईं। कुप्रथाओं में जातिगत भेदभाव, छुआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। जो आगे जाकर उच्च वर्ग और निम्नवर्ग में भेदभाव शुरू हो गया। उच्च वर्ग तो निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है। रामचरण के इलीट वर्ग में आते ही, वह सम्पन्न और अपने से दो पायदान ऊंचे वर्ण का दामाद बन गया। और कर्म के आधार पर पांचवा वर्ण बन गया। जाति भेद के दोष से ही समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। देश के विकास के लिए सामाजिक समरसता की जरूरत होती है। हमारा देश विविधताओं का देश है। भाषा, खानपान, देवी देवता, पंथ संप्रदाय न जाने क्या क्या है? और तो और जाति व्यवस्था में भी विविधता है पर हम एक हैं। पंजाब में अपनी भानजी तिवारी परिवार की बेटी की शादी मंे गई। लेकिन पंजाबी परिवार की कन्या को हरे कांच की चूड़ियां पहनाई गईं थी। ये देखते ही मैं समझ गई कि जीजा जी के र्पूवज उत्तर भारतीय हैं पर अब तो पंजाबी ब्राहमण हैं। सप्तपदी के बाद भानजी की सास ने तुरंत उसे चूड़ा पहनाया ताकि वह पंजाबी दुल्हन लगे। चूड़ा लाल रंग का लड़की का मामा लाता है। चूड़े का लॉजिक ये है कि पहले छोटी उम्र में लड़कियों की शादी होती थी। नये घर के तौर तरीके समझने में समय लगता है इसलिये जब तक चूड़ा बहू की बांह में है, उससे काम नहीं करवाया जाता था। अगर चूड़े का रंग उतर गया तो उस परिवार की बातें बनाई जातीं थीं कि बहू को आते ही चूल्हे चौंके में झोंक दिया। सवा महीना या सवा साल बाद बहू मीठा बना कर चूड़ा उतारती थी और सास गृहस्थी के काम बहू को हस्तांतरित कर देती थी। भानजी की चूड़े वाली बांह देखते ही उसकी सास ने कहा कि जो भी घर में मुंह दिखाई के लिये आयेगा, उसे बताना नहीं पड़ेगा कि यह बहू है। उसकी दादी बोली अब तुम्हारी बहू है जो मरज़ी पहनाओ। दूसरी भानजी की शादी पर उसकी होने वाली सास ने कहा कि जयमाला ये चूड़ेवाली बाहों से डालेगी। दादी ने क्लेश कर दिया कि हमारे यहाँ तो बेटी को हरे काँच की चूड़ियों में विदा करते हैं। समधन ने जवाब दिया कि हमारी होने वाली बहू तो चूड़ा पहनकर ही जयमाला पहनाती है। बेटी की शादी बहुत धनवान परिवार में हो रही थी। सब दादी को समझा रहे थे वो तर्क दे रही कि कन्यादान यज्ञ होता है। पूर्वजों के नियम तोड़ने पर अनिष्ट का डर था। समझदार पंडित जी ने ऐसे मौके पर कहा कि शास्त्रों में विधान है कि नया रिवाज कुटुम्ब के साथ करो तो अनिष्ट नहीं होता। तुरंत कई जोड़े चूड़े के मंगाये गये।  पंडित जी के मंत्रों के साथ, बाल बच्चे वाली बहुओं ने पहने। दादी बोलीं कि अब हमारे घर में बहु चूड़ा पहन कर आयेगी और बेटी चूड़ा पहन कर विदा होगी। वहाँ पता नहीं कोई वेदपाठी था या नहीं , पर पण्डित जी ने वेदों के नाम पर सब में समरसता पैदा कर दी। जब बॉलीवुड में दुल्हन को चूड़े में दिखाया तो अब चूड़ा फैशन में आ गया। किसी भी पंथ, संप्रदाय, समाज सुधारकों और संतों ने मनुष्यों के बीच भेदभाव का सर्मथन नहीं किया। इसलिये र्धमगुरूओं के अनुयायी सभी जातियों के होते हैं। वे कभी अपने गुरू की जाति नहीं जानना चाहते, वेे गुरूमुख, गुरूबहन, गुरूभाई होते हैं। बापू ने अपने लेखन और र्कम में जाति, र्धम, लिंग, वर्ग और श्रम जैसे विषयों पर बेबाक टिप्पणियां लिखीं। उन्होंने विचारों से और कार्यों द्वारा सामाजिक समरसता के लिये प्रयास किया। वे र्धमशास्त्रीय आधारों पर भी छुआछूत और जाति व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद 25 मई 1915 में बापू ने कोचरब में जीवन लाल के बंगले में सत्याग्रह आश्रम खोला था। सामाजिक समरसता लाने के लिये आर्थिक, राजनीतिक क्रान्ति की जो प्रयोगशाला उनके मस्तिष्क में थी वो वहाँ पर उस बंगले में सम्भव नहीं था। खेती बाड़ी, पशु पालन का प्रयोग भी मुश्किल था। बापू को तो समानता के सिद्धांत पर महान प्रयोग करना था जो साबरमती में सम्भव  था। चालीस लोगों के साथ सामुदायिक जीवन को विकसित करने के लिये बापू ने 1917 में यह प्रयोगशाला शुरू की यानि साबरमती आश्रम। यहाँ के प्रयोग विभिन्न धर्मावलंबियों में एकता स्थापित करना, चरखा, खादी ग्रामोद्योग द्वारा जनता की आर्थिक स्थिति सुधारना और श्रमशील समाज को सम्मान देना था। पेंटिंग गैलरी में आठ अनोखी पेंटिंग हैं। एक पर लिखा था ’’मैंने जात नहीं पानी मांगा था।’’यहाँ रहने वाले सभी जाति के देशवासी बिना छूआछूत के रहते थे। छूआछूत को सफाई पेशा से जोड़ कर देखा जाता है। महात्मा गांधी इस अति आवश्यक कार्य को निम्न समझे जाने वाले काम कोे और इसे करने वाले समाज को सम्मान प्रदान करते हैैं। इस सम्मान का उद्देश्य श्रमशील समाज का सम्मान है। वे सभी को सफाई कार्य में अनिवार्य रूप से भागीदार बनाकर श्रमशील समाज के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते हैं।  नागपुर के हरिजनों ने बापू के विरूद्ध सत्याग्रह किया। उनका तर्क था कि मंत्रीमंडल में एक भी हरिजन मंत्री नहीं है। साबरमती आश्रम वह प्रतिदिन पाँच के जत्थे में आते, चौबीस घंटे बापू की कुटिया के सामने बैठ कर उपवास करते, बापू उनका सत्कार करते थे। उन्होंने बैठने के लिये बा का कमरा चुना, बा ने निसंकोच दे दिया, उनके पानी आदि का भी प्रबंध करतीं क्योंकि वह पूरी तरह बापूमय हो गईं थीं। किसी भी कुरीति को जड़ से खत्म करना बहुत मुश्किल है। लेकिन असंभव नहीं है। बापू समाज में समरसता लाने के लिये शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच की खाई को समाप्त करने की बात कहते रहे। इसके लिये साबरमती में, उद्योग भवन को उद्योग मंदिर कहना उचित है! जाने पर, देखने और मनन करने पर पता चलेगा। वहाँ जाकर एक अलग भाव पैदा होता है। यहीं से चरखे द्वारा सूत कात कर खादी वस्त्र बनाने की शुरूआत की गई। देश के कोने कोने से आने वाले बापू के अनुयायी यहाँ से खादी के वस्त्र बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे। तरह तरह के चरखे, धागा लपेटने की मशीने, रंगीन धागे, कपड़ा आदि मैं वहाँ देख रही थी। कताई बुनाई के साथ साथ चरखे के भागों का निर्माण कार्य भी यहाँ होने लगा। इससे महिलाओं में भी आत्मनिर्भता की शुरूवात हो गई। इस तरह के लघु उद्योग गांवों में किए जा सकते हैं जिससे नगरों की बढ़वार रूके। ये भी देश की समरसता में योगदान है।