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Saturday 28 November 2020

खूबसूरत चुकन्दर का पौधा और रंगीन स्वाद नीलम भागी Beetroot Neelamm Bhagi


 

मैंने पालक बोई थी उसमें एक पौधा चुकन्दर का निकल आया। लाल तना और हरि पत्तियों में गहरी लाल शिराएं बहुत सुन्दर लगतीं। पालक का कंटेनर कम गहरा होने से चुकन्दर आधा मिट्टी से बाहर रहता और पत्तियां फैली रहतीं। 80 दिन का होने पर मैंने निकाल दिया। खुद से उगाया इसलिए इसकी पत्तियों से भी मोह होना लाज़मी है। पत्तियां मैंने पालक की सब्जी़ में डाल दीं। सब्जी़ में थोड़ी मिठास आ गई और रंग सुन्दर हो गया।

मुझे तो चुकन्दर औरनामैंटल प्लांट लग रहा था। मैंने इसके बीज मंगवाए। गमलों में किचन waste भरती रही हूं। फिर इस पर 60% मिट्टी में 30%वर्मी कम्पोस्ट, 10% कोकोपिट मिला कर, 10’’ के गमलों में डेªनेज होल पर ठिकरा रख कर इसे मिट्टी से भर दिया। 6’’ की दूरी पर अंगुली से एक इंच की गहराई में एक गमले में 3 बीज लगाए। एक महीने बाद हलकी गुड़ाई कर एक एक मुट्ठी वर्मी कम्पोस्ट डालती हूं। अभी तो इन्हें देखने का सुख उठा रही हूं। आयरन, कैल्शियम, मिनरल से भरपूर अब जो व्यंजन सब्जी़वाले से खरीदे चुकन्दर से बनाती हूं फिर अपने उगाये से बनाऊंगी मसलन

चुकन्दर का रायता


चुकन्दर को अच्छी तरह धोकर छीलकर, कद्दूकस कर लेती हूं। पैन में देसी घी या तेल में सरसों, लाल मिर्च कैंची से बड़ी बड़ी कटी और करी पत्ते डाल कर जब धुआं उठने लगे तो इसे कसे हुए चुकन्दर से छौंक को ढक कर तुरंत गैस बंद। मथे हुए काला नमक मिले दहीं में छौंक लगे चुकन्दर को ठंडा होने पर मिला देती हूं। संयुक्त परिवार है इसलिये ज्यादा बनाना होता खाने का समय भी अलग होता है इस रायते का स्वाद समय के अनुसार बदलता रहता है। चुकन्दर मिठास छोड़ता है, दहीं खट्टा होता जाता है। खट्टा मीठा नमकीन, तीखा(बारीक कटी हरी मिलाने पर)

 पालक चुकन्दर सूप

दो गड्डी पालक, चार देसी टमाटर, एक चुकन्दर, 6 कलियां लहसुन, दो हरि मिर्च सबको अच्छी तरह धोकर मोटा मोटा काट कर प्रेशर कूकर में स्वादानुसार नमक डालकर गैस पर रख देती हूं। जब सीटी नाचने लगती है। तो बजने से पहले गैस बंद। प्रेशर खत्म होने पर जिसे फाइबर नहीं पसंद वो छान कर सूप पी ले। लेकिन मैं इसे हैंड ब्लैंडर या मिक्सी में एक सार कर लेती हूं इसको पीने या खाने से पेट भरा रहता है।

सलाद और गाजर के जूस में तो ये इस्तेमाल होता ही है।

चुकन्दर की सब्जी

मीठा होने के कारण इसमें मिर्च, मसाले तीखे और देसी टमाटर इस्तेमाल करती हूं। इसे आलू की तरह नहीं गलाती। न ही पानी डालती क्योंकि इसमें अपना पानी बहुत होता है। अच्छी तरह धोकर ही, छोटे स्क्वायर में काटना है। काट कर धोने से इसके गुण पानी में बह जायेंगे। अगर देसी टमाटर नहीं हों तो अमचूर का प्रयोग कर सकते हैं।

गुजरात यात्रा में वहां दाल सब्जी सब में मिठास थी। अब कभी मैं भी अरहर की दाल या जिस सब्जी में खटाई पड़ती है उसमें एक चुकंदर डाल देती हूं। रंग और स्वाद बदल जाता है। वैज पुलाव, मिक्स वैजीटेबल का रंग और स्वाद अच्छा हो जाता है।  

कई बार फ्रिज में कई दिन के रखे चुकंदर सूखे, बदसूरत से हो जाते हैं पर उनका हलुआ और परांठा बहुत अच्छा बनता है।  



चुकंदर का हलुआ

जैसे दूध में गाजर का हलुआ बनता है। वैसे ही बनाती हूं। इसमें चीनी चुकंदर की आधी मात्रा में पड़ती है। दूध सूखने पर देसी घी में भून लेती हूं।      

  चुकंदर का परांठा

चुकन्दर को अच्छी तरह धोकर छीलकर, कद्दूकस कर लेती हूं। नमक मिला कर आधे घण्टे के लिए रख दिया। हाथों से कस के निचोड़ लिया। इसमें बारीक कटा हरा धनिया, प्याज़ लाल मिर्च धनिया पाउडर, अमचूर और सूखा भूना बेसन, स्वादानुसार नमक मिला भरावन तैयार किया। जो पानी निकला उसे नमक अजवाइन मिलेे आटे में मिला कर आटा गूंध लिया। इस भरावन को इस आटे की लोई में भर कर मूली के परांठों की तरह बनाती हूं। परांठों का रंग बहुत सुंदर कवर गुलाबी, अंदर से गहरे लाल।  


Thursday 26 November 2020

लाजवाब सरसों का साग, अब उगाने भी लगी नीलम भागी Sarson Ka Saag Neelam Bhagi









मुझे अपने घर के लोग बहुत अजीब लगते थे जब वे सरसों के साग की खूब तारीफ करके खाते थे। मैं हर सब्ज़ी स्वाद से खाती हूं पर सरसों के साग को देख कर मेरा मूड खराब हो जाता था। मैं रोटी पर नमक मक्खन लगा कर लस्सी के घूंट भर भर के खा लेती। जब मै कपूरथला अपने मामा स्वर्गीय निरंजन दास जोशी जी के यहां रही तो सुषमा भाभी के गांव से सीजन का बहुत  बड़ा गट्ठर साग का आया। भाभी साग देखकर चहक रहीं थीं और मैं साग को घूर रही थी। भाभी ने लहलहाते ताजे सरसों के साग में से पता नहीं किस डिजाइन की गंदलें और पत्ते निकाले। बाकि जैसा हम यहां खरीदतें हैं, वो अच्छा नहीं बनता कह कर गाय को खाने को दे दिया।  लेकिन बथुआ पालक को वैसे ही देखा, उसमें से कुछ नहीं फैंका। अब सब को बहुत अच्छे से थपथपा कर धोया ताकि मिट्टी नीचे बैठ जाये। चारपाई पर कपड़ा फैला कर उस पर सारा साग डाल दिया। नानी के समय की बहुत बड़ी मिट्टी की हण्डिया को साफ किया गया। किचन से बाहर बना चूल्हा इस सीजन में पहली बार जला। दराती से भाभी फटाफट बारीक साग काटती जा रही थी हण्डिया भरती जा रही थी पता नहीं कितनी बार वह हण्डिया साग से भरी फिर उसमें नमक अदरक, हरी मिर्च काट कर डाल दी। उसमें उपले लगते रहे, शाम तक वो पकता रहा। शाम को भाभी ने घोटने से उसमें थोड़ा थोड़ा मक्के का आटा डाल कर घोटा फिर हण्डिया चूल्हे पर। डिनर में हाथ से फूली फूली मक्के की रोटी, साग में कोई छौंक नहीं। कटोरे में पहले मक्खन, उस पर साग और साग पर देसी घी और मक्का की रोटी। मैंने बड़े बेमन से पहला कौर साग के साथ मुंह में डाला। इतना ग़जब का स्वाद!! मैंने भाभी से हैरानी से पूछा,’’साग भी इतना स्वाद होता है!!’’ उन्होंने हथेलियों मे मक्का की रोटी बनाते हुए जवाब दिया कि साग तो ऐसा ही होता है। लंच में साग प्याज़ का छौंक लगा कर मिला। उसका स्वाद बिल्कुल अलग। मैंने कह दिया कि डिनर में भी मैं साग खाउंगी। डिनर में उसमें सरसों के तेल, मेथी, हींग और अक्खा(साबुत) लाल मिर्च का छौंक लगा कर दिया। ये तो बहुत ही लजीज़। एक ही साग तीनों बार स्वाद अलग और लाजवाब। अब साग मेरी मनपसंद डिश हो गई। भाभी की साग पर इतनी मेहनत करने के कारण मैं रोज साग की डिमाण्ड नहीं कर पा रही थी। थोड़ा समझाने से वह प्रेशर कूकर और मिक्सी की मदद से साग बनाने लगी। भाभी के हाथ का साग स्वाद तो बनता ही था। ताजा आता और तुरंत बनता। घर पर मैंने चिट्ठी लिखी कि जितनी सरसों उसका आधा पालक और पालक का आधा, बथुआ सरसों के साग की रेशो है। और खेत से प्लेट में


अपने हाथ से उगाई सरसों से तो वैसे ही मोह हो जाता है। नवंबर से मैं  गमलों में रसोई का कचरा जमा करते हैं, एक टब में 50%मिट्टी, 30% वर्मी कम्पोस्ट और बाकि कोकोपिट और रेत मिलाकर, इसे कचरे वाले गमलों पर 6" भर कर इसमें सरसों बो देती हूं। दो दो इंच की दूरी पर अंगुली से 1’’ का गड्डा करके उसमें 2 दाने सरसों के डाल कर मिट्टी से ढक देती हूं और धूप में रखती हूं। 40 दिन तक तोड़ने लायक हो जाता है। जब थोड़े पत्ते होते हैं तब सरसों के तेल में मेथी, साबुत लाल मिर्च और लहसून सुनहरा करके उसमें इसकी भुजिया बनाती हूं। बनाने से पहले ही तोड़ती हूं। स्वाद में बहुत अच्छी लगती है। और गमलों में इन्हें लगे देखना मन को भाता है। लोहड़ी पर हमारे यहां सरसों का साग जरुर बनता है। कम कैलोरी के कारण इसे खाने से वजन बढ़ने की चिंता नहीं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, खनिज़, फाइबर प्रोटीन से भरपूर सरसों का साग भाभी से बनाना तो सीख लिया पर उनके जैसी हाथ से पतली पतली मक्का की रोटी नहीं बना पाती। मैं चकले पर ही थपथपा के बना लेती हूं।    

 #रसोई के कचरे का उपयोग

 किसी भी कंटेनर या गमले में किचन वेस्ट फल, सब्जियों के छिलके, चाय की पत्ती आदि सब भरते जाओ और जब वह आधी से अधिक हो जाए तो एक मिट्टी तैयार करो जिसमें 60% मिट्टी हो और 30% में वर्मी कंपोस्ट, दो मुट्ठी नीम की खली और थोड़ा सा और बाकी रेत मिलाकर उसे  मिक्स कर दो। इस मिट्टी को किचन वेस्ट के ऊपर भर दो और दबा दबा के 6 इंच किचन वेस्ट के ऊपर यह मिट्टी रहनी चाहिए। बीच में गड्ढा करिए छोटा सा 1 इंच का, अगर बीज डालना है तो डालके उसको ढक दो।और यदि पौधे लगानी है तो थोड़ा गहरा गड्ढा करके शाम के समय लगा दो और पानी दे दो। पर सरसों के बीज छिड़ककर उसे मिट्टी से ढक दिया।



            



Tuesday 24 November 2020

गुणों की खान बथुआ , रायता वजन कम करे,उगाया नहीं, उग गया है नीलम भागी Chenapodium album Bathua Neelam Bhagi





 

कुछ साल पहले हमारी छत के कोने में हमने थोेड़ी सी मिट्टी चूल्हा बनाने के लिए रखी थी कि सर्दी में धूप में उसमें शकरकंदी आदि भूनेंगे। सर्दी शुरु होने पर मैं छत पर गई। वहां चूल्हा तो नहीं बना था उस मिट्टी पर अपने आप बथुआ उग गया था। अपने आप उगे इस बथुए को देखकर मैं खिल गई क्योंकि  मेरे परिवार के नब्बे प्लस बुर्जुग जितने भी थे या हैं, उनमें एक ही समानता है बथुआ खाना और उसके बारे में बखान करना। जो मुझे भी याद है कि बाथु(पंजाबी नाम) रबी की फसल के साथ अपने आप उगता है और गुणों की खान है। मैंने बड़े से,  6’’ऊचें कंटेनर में 60 मिट्टी, 20  गोबर की खाद, थोड़ी रेत और वर्मी कम्पोस्ट, नीम की खली मिलाई और  मिट्टी तैयार करके उसके बीच में बथुए समेत चूल्हे की मिट्टी रख दी। जब वो जम गया तो जब सब्जीवाला नहीं लाता तो वहां से तोड़ लेते। मेरी दादी के समय बथुआ बाजार में आते ही हमारे घर जरुर आता था। दिन में एक बार वे बाथु की वैराइटी जरुर खातीं और खाने के बाद 93 साल की उम्र तक एक ही डॉयलाग बोलतीं कि इसको खाने से कब्ज़ नहीं रहती, पेट साफ रहता है। लेकिन मेरी 92 साल की अम्मा बाथु खाते समय, अपने बाउजी को याद करते हुए बतायेंगी कि उनके बाउजी सुबह कि सैर के लिए अपने गांव की ओर ही जाते थे। कभी हाथ में पकड़ कर कुछ नहीं लाते थे। लेकिन बाथु के मौसम में अंगोछे में अपनी जमीन से थोड़ा सा बाथु जरुर लाते। उनके आने पर नानी सर्दियों में खाए जाने वाले मोटे अनाज में मिला कर बथुए के परांठे बनाती जिसे वे मक्खन और लस्सी के साथ खाते। छत का बथुआ अपने आप मौसम जाने पर सूख जाता। अगले साल फिर उग जाता। हमने कभी उसके बीज इक्ट्ठे करने की या और फैलाने की ज़हमत ही नहीं उठाई। बाकि साल वह कंटेनर खाली रहता। जब एलोवेरा का रिवाज़ चला तो उसे खाली देख कर उसमें भी एलोवेरा लगा दिया। उसमें पूरे में एलोवेरा भर गया। उस दिन मैंने एक पॉट में एलोवेरा के नीचे दो बथुए के पौधे देखे। उसी समय एलोवेरा को हटाया। आज उसमें छोटे छोटे और पौधे निकल आए।


अब इस पर ध्यान दे रहीं हूं। क्योंकि ये थोड़े समय के लिए आता है पर हमारे खाने में रोज रहता है। अबकी फ्लावर शो में बथुआ के बीज खोजूंगी| 
बथुए को अच्छी तरह धोकर, जब पानी टपकना बंद हो जाए तब बारीक बारी काट कर जिस भी आटे के परांठे बनाने हों उसमें डाल कर बारीक कटी हरी मिर्च और नमक मिलाकर रख दो। बथुआ पानी छोड़ देगा। 30 मिनट बाद आटे को अच्छी तरह मिलाकर गूंध लो और परांठे बना लो।

बथुए का रायता वजन कम करे

बथुए को अच्छी तरह से धोकर, कूकर में डाल कर बथुए के लायक नमक डाल कर गैस पर रख दा, पानी नहीं डालना। जब सीटी नाच नाच कर बजने वाली हो तब गैस बंद कर दो। प्रेशर खत्म होने पर, उबले बथुए को बारीक काट कर काला नमक मिले दहीं में मिला दो। इसमें भुना जीरा काली मिर्च पाउडर डाल दो। तीखा पसंद है तो बारीक कटी हरी मिर्च मिला लो। हैल्दी रायता खाओ। उबालने पर जो थोड़ा सा पानी बचा उसे रायते में मिला लो या आटे में लगा लो। 

 बथुए का सूप

  एक छोटी गड्डी बथुए को साफ करके धोकर कूकर में, दो मोटे टमाटर, 4 कली लहसून, थोड़ा सा अदरक, 1 हरी मिर्च और नमक डाल कर प्रेशर कूकर गैस पर रख दा, पानी नहीं डालना। जब सीटी नाच नाच कर बजने वाली हो तब गैस बंद कर दो। प्रेशर खत्म होने पर, उबले बथुए को काट कर इसे हैंड ब्लैण्डर से या मिक्सी में पीस लो। फाइबर नहीं पसंद तो छान लो। जितना पतला करना है करो स्वादानुसार नमक मिला कर देसी घी से जीरे का तड़का लगा कर पियो। 

बथुए की भुजिया से कई व्यंजन

कड़ाके की सर्दी में रोज बथुआ साफ करके धोना, फिर ठंडा ठंडा काटना!! 

मैं ढेर बथुआ धूप में साफ करके, धोकर काट लेती हूं। सरसों के तेल और जीरे का तड़का डाल कर अच्छी तरह सूखा लेती हूं। फिर नमक डाल कर भून कर, इस भुजिया को ठंडा होने पर फ्रिज में रख लेती हूं। 5 दिन निकल जाते हैं।

 आलू बथुए की सब्जी -सूखे आलू की सब्जी में बनाते समय बथुए की भुजिया मिलाते ही आलू बथुए 

की सब्जी बन गई।   

बथुए की कढ़ी-कढ़ी में पकौड़े की जगह बथुए की भुजिया डाल कर हैल्दी बथुआ कढ़ी खाओ।

इस भुजिया से परांठे, पूरी जो चाहती हूं, बनाती हूं।        

कबाड़ में जाने वाले टूटे-फूटे कंटेनर , डिब्बों में अब बथुआ उगा हुआ है।

Sunday 22 November 2020

एलोवेरा उगाना और उपयोग नीलम भागी Aloe Vera Neelam Bhagi




बचपन से अपने घर के आंगन में एक कंटेनर में क्वारगंदल लगी रहती थी। जब दो चार उसके तने फालतू हो जाते थे तो दादी उन्हें पौधे से काट लेती थी और किनारे की दोनों ओर की बाहर निकली नोंकें ऊपर से नीचे तक काट कर फेंक देती थी।

बाकि के बिना छिले टुकड़े काट कर थाल में फैला कर उसमें नमक और अजवाइन डाल कर मलमल के कपड़े से ढक कर धूप में रख देती थी।

जब तक वह सूख कर कड़कड़ आवाज़ करता। तब तक पौधे में दूसरी गंदल उग आती और ये काट कर उसी तरह सूखाने को रखी जातीं। पहली सूखी ग्वारपाठा बोतल में रखी जाती थी। मौहल्ले में जिसके भी पेट में दर्द होता, उसे ये सूखे क्वारगंदल खाने को मिलते। साथ ही दादी का लेक्चर पीने को। जलने पर इसका जैल लगाया जाता। घुटने सूजने पर इसके जैल से मालिश की जाती थी। डिमाण्ड बढ़ने से एक कोने पर जमीन में लगा दिया  था। सर्दियों में इसके बढ़ने की गति बहुत कम हो जाती थी। गर्मी में और बालुई मिट्टी में ये खूब बढ़ता। मेरठ से नौएडा शिफ्ट हुए तो अम्मा इसकी एक गंदल ले आई। 

 एक गमले के ड्रेनेज़ होल पर ठिकरा रख कर उसमें सामने पार्क से बालुई मिट्टी भरी, थोड़ी गोबर की खाद मिलाई और गंदल को उसमें लगा दिया और वो लग गई। कम पानी और अच्छी धूप, बस ये दो चीजे इसके लिए होनी चाहिए। यहां यह सिर्फ परिवार में इस्तेमाल होती थी। अब कुछ सालों से इसका बहुत नाम हो गया है। पता नहीं कब से हम भी इसे एलोवेरा कहने लगे हैैंं। कोई हमारे घर में इसे देख कर इसके गुण बताने लगता तो हम उसे पौधा दे देते थे। हमारी छत पर तो इसके बहुत पौधे और फूल हो गए।




आस पड़ोस में भी सबके घर लगा हुआ है। कोई इसे घृतकुमारी तो कोई इसे संजीवनी पौधा कहता है। हरे भाग को छील कर इसके जैल को मॉइस्राइजर की तरह इस्तेमाल करते हैं। खाने में चिकित्सक की सलाह से ही उपयोग में लाते हैं। 


Saturday 21 November 2020

लड़ाकी कृष्णा नीलम भागी Ladaki Krishana Neelam Bhagi गोपाष्टमी की हार्दिक बधाई




 लड़ने मारने में हमारी कृष्णा की ख्य़ाति दूर दूर तक थी। उसकी हरकतें जो देख लेता था वह ’गऊ की तरह सीधी’ कहना छोड़ देता था। मेरी दादी गाय का नाम नदियों के नाम पर रखती थी। ये काली रंगत की थी, माथे पर तिलक था तो इसका नाम कृष्णा रखा। ये तीन ही लोगो से काबू में रहती थी, मेरे भाइयों और राजू ग्वाल से। राजू उसे 10 से 4 घुमाने ले जाता था। राजू को जब पैसे बढ़वाने होते थे तो इसकी शिकायत करता कि गायों के झुण्ड में सबसे आगे चलती है। कोई इससे आगे चले या बराबर तो उसे मारती है। पुरानी गायें तो इसकी आदत समझती हैं। नई गाय को ये मार के समझाती है। किसी धर्मात्मा ने बडी़ हौद पानी की बना रखी हैं। लौटते समय पहले कृष्णा पानी पियेगी फिर बाकि सब गायों का झुंड बाद में। पर कृष्णा दूध बहुत देती थी और उसके दूध में मक्खन बहुत निकलता था। भाई उसकी पिछली टांगों में रस्सी बांध कर दूध निकालता और मैं आगे बैठ कर उसकी सानी में थोड़ा थोड़ा दाना मिलाती जाती। वो खाने और बछडे़ को चाटने में व्यस्त रहती। भाई बहुत सावधानी से दूध निकालता क्योंकि किसी दिन वह ऐसे कूदती कि दूध गिर जाता। दूसरी बार वह सर्दियों में ब्याही। रात को हम उसके पहले दूध की गुड़़ वाली खीस खाकर, कृष्णा और बछड़े को ओढ़ा कर, उनके पास तसले में उपले जला कर सोये थे। रात भर बरसात होती रही। बछड़ा ठंड खा गया और मर गया। हमेशा हमारे घर में गाय रही है, ऐसा पहली बार हुआ था। कृष्णा के थन दूध से अकड़े हुए, वह बड़े कष्ट में थी। भाई ने दूहने की कोशिश की, उसने नहीं छूने दिया। राजू ने दूध दुहने वाले भेजे वो किसी को हाथ नहीं लगाने दे रही थी। राजू जिन गायों के छोटे बछड़े बछिया थे उन्हें कृष्णा के थनों में लगाता, वह लात मारती, किसी को थन पर मुंह नहीं मारने दे रही थी। उसके थनों की अकड़न बढ़ती जा रही थी। रात को राजू एक आदमी को लेकर आया। उसने कहा कि वह डायरी फार्म के बछड़े को इसका बछड़ा बनाने की कोशिश करेगा। वहां दूध मशीन से निकालते हैं। बछड़ा वे छोड़ देते हैं। आप जाकर डायरी फार्म से बछड़ा ले आओ, लेकिन कृष्णा उसे देखे नहीं न ही उसकी आवाज सुने। पिताजी ने उसे बताया कि यह किसी बछड़े बछिया को पास नहीं आने देती। उसने कहा कि पशुओं में सूंघने की शक्ति बहुत होती है। यह उसमें अपनी गंध सूंघती है। पैदा होते ही यह उसे चाटती है। उसमें मैं वही गंध दूंगा। आगे ऊपरवाले की मर्जी। एक नया मलमल का उबाला कपड़ा, कूटा गुड़ और आजवाइन चाहिए। कल आने का बोल गया। इसी घर में जन्मी कृष्णा को कष्ट में देखकर पिताजी तड़के ही बछड़ा लेने चले गये। उसे दो घर छोड़ कर रखा गया। वह भला आदमी दो साथी लेकर सुबह ही आ गया। हममें से किसी को बाहर आने की इजाज़त नहीं थी। आधे घण्टे बाद बधाई देने की आवाज़ आई और साथ ही दूध निकालने की बाल्टी मंगवाई। पिताजी बोले,’’पीने दो इसे, कृष्णा को बछड़ा मिला है। देखो कैसे इसे चाट रही है!! सुनते ही वह बोला,’’छोटा है ज्यादा दूध पीने से इसका पेट चल जायेगा।’’उस समय का सब दूध और इनाम देकर उन तीनों को पिताजी ने भेजा। बछड़े का नाम लकी हो गया। कृष्णा उसे छोड़ कर राजू के साथ भी नहीं जाती थी। उसे बस लकी दिखना चाहिए था। पर लकी खुला होने पर सड़क पर गुजरती किसी भी गाय का दूध पीने दौड़ता था। हमारा आठ महीने दूध पीते बीते। कृष्णा लकी को अलग करने का पिताजी का मन नहीं था और मेरठ में घर छोटा था। लकी नहीं रख सकते थे, वो बहुत तगड़ा था। पिताजी के ऑफिस के साथी का गांव पास में था। उसे लकी के साथ कृष्णा इस शर्त पर दी कि इन्हें अलग नहीं करना। गोपा अष्टमी पर अब तक सब पाली गायों में से कृष्णा लकी बहुत याद आते हैं।             


Thursday 19 November 2020

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ नीलम भागी Chhath Utsav Neelam Bhagi



नीलम भागी
पिछले साल दिवाली से पहले मैं दस दिन बिहार यात्रा पर थी। जिस भी कैब में बैठती ड्राइवर छठ के गीत लगाता, गीतों को सुनते ही अलग सा भाव पैदा हो जाता। दीपावली से छठे दिन चार दिवसीय छठ पर्व मनाया जाता है और यहां इसकी जगह जगह तैयारी दिख रही थी। इतना हराभरा प्रदेश! जमीन हरियाली ये ढकी हुईं। जहां हरियाली नहीं वहां इकड़ी जिसे भुआ भी कहतेें हैं वो प्रदूषण रहित हवा के साथ लहरा रही थी। सड़क के दोनो ओर हरे भरे पेड़ थे। छठ पर्व में प्रकृति पूजा हैं। सर्वकामना पूर्ति,  सूर्योपासना, निर्जला व्रत के इस पर्व को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ  अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं।  पंजाबी ब्राह्मण मेरी भतीजी मीना जोशी डिब्रूगढ़ असम में छठ व्रती रहती हैं| 

मीना जोशी

पौराणिक और लोक कथाओं में छठ पूजा की परम्परा और महत्व की अनेक कथाएं हैं। देवता के रुप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सृष्टि पालनकर्ता सूर्य को, आरोग्य देवता के रुप में पूजा जाता है। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। रोगमुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई। एक मान्यता के अनुसार भगवान राम ने लंका विजय के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सीता जी के साथ उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को पुनः सूर्योदय पर अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आर्शीवाद प्राप्त किया था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई। कर्ण प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में अर्घ्य देने की यही पद्धति प्रचलित है। इन सब से अलग बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के जन सामान्य द्वारा किसान और ग्रामीणों के रंगों में रंगी अपनी उपासना पद्धति है। सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु सबसे जो कुछ उसे प्राप्त हैं, उसके आभार स्वरुप छठ मइया की कुटुम्ब, पड़ोसियों के साथ पूजा करना है जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। मैंने दिल्ली, मुम्बई और नौएडा में छठ उत्सव देखें हैं। इस यात्रा में मेरा विश्वास दृढ़ हो गया कि छठ उत्सव प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। क्योंकि जो छठ का सामान वहां बिक रहा था वही यहां बिकता है। अन्तर है तो सिर्फ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में क्योंकि ये समितियां बजट के अनुसार कलाकार बुलाती हैं।  

 चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। इस दिन व्रतीघर की साफ सफाई करता है। सूर्य अस्त पर चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्र्रत शुरु होता है निर्जला व्रत , व्रर्ती गेहूं के आटे और गुड़ से ठेकुआ और चावल के आटे के लड़डू जिसे कचवनिया कहते हैं बनाते हैं।

मीना जोशी प्रशाद बनाते हुए



व्रती मीना ने ठेकुआ बनाये

दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। इस समय मैं सनातन धर्म मंदिर 19 सेक्टर जरुर जाती हूं।

                                                        नीलम भागी
वहां घाट बनाया जाता है। भक्ति और श्रद्धा से इतनी भीड़ में भी जो वहां उस समय महौल होता है उसे मैं लिखने में असमर्थ हूं। सूर्या अस्त के बाद सब घर चले जातें हैं। वहां दिए जलते रहते हैं।


मैं वहां काफी देर तक बैठी रहती हूं। घर आकर भी श्रद्धालु व्यवस्थित भीड याद में रहती है। रात को देर से साने और देर से उठने की आदत है। ये मंदिर मेरे घर से दूर है इसलिये सुबह नहीं जा पाती। सूर्योदय अर्घ्य में जाने के कारण कुछ जल्दी आंख खुल जाती हैं। समय के हिसाब से जो घाट घर से पास होता है वहां भागती हुई पहुंच ही जाती हूं। हर बार मुझे अच्छे लोग मिले हैं। मेरे हाथ खाली होते हैं वो मुझे सामान देकर जैसे बताते हैं मैं वैसे ही पूजा कर, अर्घ्य देती हूं और बोलती हूं,’सर्वे भवन्तु सुखिनः’ 

                                                     नीलम भागी

     



मीना जोशी और Srinkhala







Monday 16 November 2020

कोरोना काल में दीपावली नीलम भागी Diwali in Corona Neelam Bhagi

हमारी दुकान पर दिवाली से पहले तालों की वैराइटी और ताले खूब मंगाये जाते हैं। कारण यहां ज्यादातर बाहर से नौकरी के कारण आए न्यूक्लियर परिवार हैं। पांच दिवसीय दीपावली त्यौहार पर ये अपने परिवार के साथ पर्व मनाने जाते हैं। और जाते हुए अपने घर पर मजबूत ताले लगा कर जाते हैं। पर इस बार ताले कम बिके। कोरोना संक्रमण से बचाव के कारण परिवार ने ही उन्हें यात्रा करने को मना किया। इसलिए बच्चे उदास दिखे। पेरेंटस ने सब कुछ अपनी सामर्थ्य के अनुसार लेकर दिया पर संयुक्त परिवार का प्यार और आत्मीयता नहीं दे सके। 

पटाखे नहीं चलाए गए। बच्चों से रंगोली बनवाई, पौधे सजवाये|








पटाखे नहीं चलाए गए। बच्चों से रंगोली बनवाई, पौधे सजवाये|  अड़ोस पड़ोस के युवाओं ने सोशल डिस्टेसिंग का पालन करते हुए पार्को में पार्टी की और अपने गांव को बहुत मिस किया।

मैंने दिवाली से अगले दिन उत्कर्षिणी को अमेरिका फोन किया वो दीवाली मना रही थी। हमारा और उसके समय में तेरह घण्टे का फर्क जो है। उसके विदेशी मित्र भी कोरोना काल में दिवाली मनाने आए थे।


उनके लिए उसने भारतीय खाना बनाया।


 गीता की यूकेरियन सहेली त्यौहार पर भारतीय पोशाक में आई थी। गीता ने उसे कन्या पूजन पर बुलाया था और उसे लहंगा चोली दी थी। वही वोे इण्डियन फैस्टिवल पर पहन कर आई थी। लेकिन गीता शायद त्यौहार में भारत के अपने बड़े परिवार को मिस कर रही है। इस साल दीपावली पिछले साल से बेहतर लग रही है क्योंकि करोना का डर कुछ कम है। दित्या की पहली दिवाली है। उत्कर्षिनी धनतेरस से मिठाई  नमकीन बनाने में लगी हुई है छोटी बच्ची है जब समय मिलता है तो बनाती है। मैंने पूछा बेटी तो कैसे यह सब कर रही है तो उसने कहा त्यौहार का गीता को कैसे पता चलेगा? उसकी मनपसंद मिठाई बनती है.अब मनपसंद खाना है तो विदेश में तो खुद ही बनाना पड़ेगा ना. छोटी सी गीता पकवान बनाने में मां की मदद कर रही है जैसे दहीं भल्ले की प्लेट लगाना , टेबल लगाना आदि






कपड़े भी नहीं