Search This Blog

Tuesday 30 June 2020

बाघा बार्डर अमृतसर यात्रा Vagha Border Amritsar Yatra भाग 13 Neelam Bhagi नीलम भागी


नीरज तिवारी की शादी पर हम शाने पंजाब से समय पर पहुंच गए। लंच कर ही रहे थे कि मेरी भतीजी मनदीप और उसका बेटा शुभ्रजीत अमृतसर से शॉपिंग करके आ रहे थे। ये गोहाटी से आये थे। हमें देखते ही मनदीप बोली,’’बुआ आप थोड़ा पहले नहीं आ सकती थी!!’’ मैंने पूछा,’’क्या हुआ?’’ वह बोली,’’कुछ नहीं, मैं असम का मूंगा सिल्क की साड़ियां और मेखला चादर वगैरहा लाई हूं। आपका तो पता नहीं रहता कि  आओगी या नहीं?आपकी साड़ियां हमारी तरह हैं। मैं अभी जाकर चमचम चमचम बल्ले बल्ले कपड़े खरीद कर लाई हूं।’’सुनकर मैं हंस पड़ीं। गुड्डी बोली,’’सामने वाले घर में आप के कमरे हैं। हमने कहाकि हम एक ही रुम में रहेंगे। जब मैं कपूरथला में थी तो मनदीप, मीना असम से आतीं थीं तो हम तीनों बहुत बतियाती थीं। उसी समय हमने बाघा र्बाडर जाने का प्रोग्राम बना लिया। गली से बाहर आते ही एक शेयरिंग ऑटो दिखा। हमने पूछा,’’पाई, बाघा र्बाडर चलना।’’ जवाब में उसने कहा,’’बी(20)रुपइए सवारी।’’उसमें हम छओ लद गये। मैंने ऑटोवाले से कहा कि ये आसाम से आई है। शहर के बारे में बताते जाना। उस भले आदमी ने उसी समय ऑटो की स्पीड बड़ा कर पूछा कि क्या हमारे पास वीआईपी पास है? हमें तो कुछ पता ही नहीं था। हमने कहा नहीं। वह बोला,’’यहां तीन बजे पहुंच जाओ तो सीट अच्छी मिल जाती है। आप लोग लेट हो पर मैं परेड से पहले पहुंचा दूंगा। ऑटो हवा से बातें कर रहा था। कुछ दिन पहले संजीव भागी सपरिवार गाड़ी से चाची जी को बीटिंग द रिट्रीट सेरेमनी दिल्ली से दिखाने लाया था। उसने बताया था कि प्राइवेट पार्किंग बहुत दूर है। अंदर मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता इसलिए पहले निश्चित कर लेना की समापन पर कहां इक्कट्ठे होंगे। ऑटोवाला हमारे गाइड का काम कर रहा था। वह हमारा अमृतसर से परिचय करवाता  रहा था। जहां से गुजरता उस जगह का नाम बताता जा रहा था। रेजीडेंशियल एरिया खत्म होने पर उसने बताना शुरु किया कि यह गोल्डन टैंपल से जहां से आप बैठे हो 35 किमी. दूर है। अमृतसर से 32 किमी. और लाहौर से 22 किमी. दूर है। बाघा बार्डर पाकिस्तान की ओर के क्षेत्र को कहते हैं। हमारे देश की ओर के क्षेत्र का नाम अटारी बार्डर है। जिसे सरदार श्याम सिंह अटारी के नाम पर रखा गया है। वे महाराजा रणजीत सिंह के सेना प्रमुख थे।  भारत के अमृतसर  तथा पाकिस्तान के लाहौर के बीच ग्रैंड ट्रक रोड पर स्थित बाघा गांव है। जहां से दोनो देशों की सीमा गुजरती है। दोनो देशों के बीच थल मार्ग से सीमा पार करने का यही एकमात्र निर्धारित स्थान है। पता नहीं सवारी इसे बाघा र्बाडर क्यों कहती हैं! अब हमारे बाईं ओर कंटीली तारों की दो देशों की सीमा थी। काफी पहले ऑटो ने उतारा उससे आगे सबको पैदल जाना था। हमने ऑटोवाले से कहाकि भाई हम तुम्हें सौ रुपये रुकने के देंगे। तुम्हीं हमें वापिस ले जाना। उसे पैसे देने लगे। उसने कहा बाद में ले लूंगा। एक कागज पर अपना नाम और गाड़ी का नंबर लिख कर दे दिया और हमें कहा कि इक्कटठे रहना, यहां से निकलोगे मैं आपको यहीं से ले लूंगा। अब हम तसल्ली से देशभक्ति से ओतप्रोत जोशीली भीड़ के साथ चल पड़े। कृतिका भागी के कहने पर हम पर्स भी नहीं लेकर गए। कुर्ते की जेब में मैंने पैसे रख लिए थे। लोग सामान जमा करवाने की लाइन में भी लगे हुए थे। 4.30 बजे गेट खुल चुका था। सिक्योरिटी जांच के बाद हम अंदर पहंुचे। कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां हम एक साथ बैठ सकें। हमने तय किया कि समापन पर हम भीड़ को जाने देंगे। अपनी जगह पर बैठे रहेंगे। कार्तिकेय का मैंने हाथ पकड़ रखा था। जिसको जहां जगह मिली बैठ गया। बॉलीवुड के देशभक्ति के जोशीले गाने पर जमकर अपनी जगह पर डांस हो रहा थां। ऐसे जोशीले नारे लग रहे थे कि अगर उस समय बार्डर खोल दे तो ये जोशीले, नारे लगाते हुए इस्लामाबाद पहुंच जायेंगेें। 
6 बजे दोनो देशों के द्वार खेल दिए गए, फिर दोनो देशों के गार्डस ने एक दूसरे का अभिवादन किया। दोनो ओर परेड शुरु हुई। गुस्सा दिखाना, सिर ऊपर तक पैरों को ले जाना और दोनो देशों के झंडों को एक साथ उतारा जाना, उनको सम्मान से फोल्ड करना। बहुत ही रोमांचक दृश्य होता है। 6.45 पर यादगार सेरेमनी संपन्न हुई। 
अब लगा कि हम तो नाच नाच के नारे लगाकर गर्मी से बेहाल, बुरी तरह प्यासे थे। जैसे ही हम इक्कट्ठे हुए स्टेडियम से बाहर आते ही दो दो गिलास शिकंजवी के पिये। हमारा ऑटोवाला हमें ढूंढता हुआ वहां तक आ गया। उसके साथ चलते हुए हम ऑटो पर बैठे। सब थके हुए, चुपचाप बैठे घर पहुंचे। मैंहदी वाली रात के लिए तैयार हुए। बन्ने गाने को बैठे, हम चारों के देशभक्ति के नारे लगा कर, गले से आवाज नहीं निकल रही थी, वे बैठ गए थे। नीरज ने हंसते हुए पूछा,’’बाघा बार्डर से आ रहे होे न, तभी!! क्रमशः     




दरबार साहिब र्स्वण मन्दिर, अमृतसर यात्रा भाग 12 Golden Temple Amritsar Yatra Part 12 Neelam Bhagi नीलम भागी


 

र्स्वण मंदिर के बाहर देश विदेश से आये श्रद्धालुओं, पर्यटकों के कारण मेले जैसा लग रहा था लेकिन धक्का मुक्की  जरा भी नहीं थी। प्रवेश से पहले गुरुओं के प्रति श्रद्धा आती है और सिर 

झुक जाता है। जूता चप्पल उतार कर पैर आठ फीट चौड़े और छ फीट गहरे तालाब में से गुजरते हुए साफ हो जाते हैं। मैंने तो साड़ी के पल्लू से सिर ढक रखा था। लेकिन वहां सिर ढकने के लिए रुमाल रखें हैं, आप सिर पर बांध ले, गुरुद्वारा परिसर से बाहर आते समय आप वहीं रख दें। रात का समय था इसलिए रोशनी की सुंदर व्यवस्था के कारण जगमगाते र्स्वण मंदिर के दूर से दर्शन हो रहे थे और 
पानी में उसका झिलमिलाता प्रतिबिंब भी बहुत खूबसूरत लग रहा था। सीढ़ियां उतर कर सरोवर के बीच से र्स्वण मंदिर की ओर रास्ता जा रहा है। वहां मत्था टेकने के लिए लाइन में लग गए। कानों में शब्द कीर्तन सुनाई दे रहा था। श्रद्धालुओं की श्रद्धा के कारण अलग माहौल सा बना रहता है। कोई बात नहीं कर रहा था। शबद कीर्तन सुनते हुए इंतजार कर रहे थे। एक घण्टे के बाद हमारा हरमन्दिर साहिब में मत्था टेकने का नम्बर आया। कड़ा प्रशादा लेकर हम बाहर आए, अंदर फोटोग्राफी की मनाही है। बाहर कर सकते हैं। और हरिमंदिर साहब, सफेद संगमरमर से बने पावन धार्मिक स्थल के परिक्रमा करते हुए दर्शन करने लगे। इसके संस्थापक गुरु रामदास ने अमृत सरोवर का निर्माण करवाया। जिसके चारों ओर सरोवर के नाम पर, शहर का नाम अमृतसर पड़ा है। इसके वास्तुकार गुरु अर्जुन देव हैं। इसकी नक्काशी शिल्पसौन्दर्य देखते बनता है। चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। गुरु रामदास की सराय है। 228 कमरे और 18 हॉल हैं। गद्दे तकिए और चादरें सब मिलता है। गुरु का लंगर हैं जहां हजारों लोग प्रतिदिन प्रशादा खाते हैं। पूरे परिसर में लाजवाब सफाई, चमचमाते फर्श हैं आपका कहीं भी जमीन पर बैठने का मन कर जायेगा। हम भी उस माहौल में बैठे रहे। मैं जब भी अमृतसर जाती हूं तो मत्था टेकने के बाद वहां बैठ जाती हूं। उस माहौल में बड़ी शांति और प्रसन्नता मिलती है। फेसबुक में मेरा ग्रुप हैं ’मेरी और आपकी यात्रा’ उसमें 23 मई को हैदराबाद के घुमक्कड़ सुदेन्द्र कुलकर्णी ने दरबार साहब पर पोस्ट लगाई। उनका कहना है कि उन्हें वहां जाना बहुत अच्छा लगता है। वे पंजाब के आसपास से गुजरें तो अमृतसर जरुर जाते हैं। पिछले साल कश्मीर जा रहे थे। चंढीगढ़ से अपने साथियों के साथ अमृतसर चल दिए। वहां होटल में सामान रख कर स्वर्ण मंदिर गए। रात बारह बजे स्वर्ण मंदिर बंद था। लगभग दो सौ श्रद्धालु शांत अध्यात्मिक वातावरण में लाइन में मत्था टेकने के लिए बेैठे हुए थे, वे भी बैठ गए। रात में भी पीने के पानी की सेवा लगातार थी। श्रद्धालुओं की श्रद्धा से अलग सा भाव था, जिसमें समय का पता भी नहीं चला। सुबह तीन बजे अपने क्रम से मत्था टेका, कढ़ा प्रशाद खाया। नींबू पानी पीकर होटल आ गए। कुछ देर आराम करके श्रीनगर चल दिए। गुड्डी दीदी बोलीं,’’चलो, तो हम भी घर आ गए। सुबह मेरी दिल्ली के लिए ट्रेन थी। कुछ दिन बाद मुझे फिर अमृतसर आना था। दिल्ली से अमृतसर 500 किमी. राष्ट्रीय राजमार्ग 1 पर स्थित है, बस द्वारा भी आ सकते हैं। नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली से शाने पंजाब, शताब्दी रेल से 5 से 7 घण्टे में पहुंच जाते हैं। स्टेशन से रिक्शा पकड़ कर र्स्वण मंदिर। यहां अंतराष्ट्रीय हवाईअडडा हैं। यहां से टैक्सी ले सकते हैं बाकि पर्यटन स्थल अगली यात्रा पर। क्रमशः   














Sunday 28 June 2020

हम अब समधी नहीं, संबंधी हैं!! अमृतसर यात्रा भाग 11 नीलम भागी Neelam Bhagi Amritsar yatra 11



यहां सबसे अच्छी बात यह है कि रीति रिवाज सब करते हैं लेकिन अगर जरुरत हो तो उसमें दूसरे की सुविधा देखकर बदलाव भी कर लेते हैं। रिश्ता होते ही लड़के का पिता, लड़की के पिता से कहेगा,’’हमें आप समधी नहीं, संबंधी समझो। रिंग सैरामनी को चुन्नी चढ़ाना कहते हैं। कई बार तो चुन्नी चढ़ाने आयेंगे साथ ही हंसी खुशी फेरे करवा कर लड़की ले जाते हैं और अपने घर प्रीतिभोज(रिसेप्शन) कर लेते हैं। कभी दूसरे शहर से बारात आती है। तो जनवासे में स्वागत सत्कार के बाद, वहीं सगाई दे देते हैं फिर वे लोग चुन्नी चढ़ाने आते हैं। लड़की का अपनी परंपरा अनुसार श्रृंगार करते हैं, साड़ी वगैरहा पहनाते हैं। वह इतनी सुंदर लगती है कि लगता है ये तो जयमाला के लिए ही तो तैयार है। उनके जाने के बाद, लड़की फिर ब्राइडल मेकअप के लिए पार्लर जाती है। जब वहां से आती है तो पहले से अलग लगती है। रात को बारात बारातियों के नाचने के कारण जितनी मर्जी लेट आए पर शादी की रस्में सब होंती हैं। मुहूर्त पर ही सप्तपदी होगी। शादी लोकल है तो तारों की छावं में विदाई होती है। यानि एक दिन में सब कुछ और नववद्यु के स्वागत में अगले दिन रिसेप्शन किया जाता है। ये सब पहले आपस में बैठ कर, हंसी ठहाकों के बीच में तय किया जाता है। रस्में कोई कम नहीं होतीं कम से कम दो दिन का शादी जश्न तो रहता ही है। तीन चीजें यहां मैंने पहली बार देखीं थी लड़कियां बारात को अंदर नहीं आने देतीं। दूल्हे से तय बाजी करती हैं, जब नेग मिल जाता हैं तब रिबन कटवा कर उन्हें अंदर आने देती हैं। और तब जयमाला होती है| दूसरा गोलगप्पे(पानी पूरी) तैयार कर, पानी से भरे हुए वेटर आपको प्लेट में लगा कर सीट पर देकर जायेगा। तीसरा आइसक्रीम हाफ प्लेट में पहाड़ जितनी आपके पास आयेगी। वैसे बूुफे लगा होता है आप जाकर अपनी सुविधानुसार ले सकते हैं वरना वह आगमन से उपस्थिति तक, आप जहां बैठे हैं, वहां देने आता ही रहेगा। और ड्राइफ्रूट की सब्ज़ी में किशमिश की मात्रा इतनी होती है कि सब्जी में हल्की सी मिठास, उसके स्वाद को कई गुणा बढ़ा देती है।यहां मेहमान खाना खाकर घर नहीं दौड़ते, ज्यादातर शादी एंजॉय करते हैं। सप्तपदी में भी प्रत्येक भंवर पर चावल से भरा बर्तन, रिश्तेदार वर को देते हैं। सबका ऐसे समारोहमें  आपस में मिलना होता है। वे आपस मे बतियाने में इतने मशगूल रहते हैं कि कन्यादान, विवाह संपन्न होने पर उन्हें पता चलता है। फिर वे चाैंक कर सबको बधाई देते हैं। लावां फेरों केे बाद लड़की ससुराल का सूट पहनती है। उसी में उसकी बिदाई होती है।   विवाह स्थल से आकर रात भर के सब जगे होते हैं। मेहमानों की विदाई शुरु होती है। मैं एक दिन बाद लौटती हूं। दोपहर को सब सो लेते हैं। बेटी की बिदाई के बाद घर में एक दिन पहले जैसी रौनक नहीं रहती है। अगले दिन बिटिया ने फेरा डालने आना है। शाम को उसकी तैयारी भी हो जाती है। गुड्डी दीदी महाराज को खाना बनाने को कह कर, हम सब गोल्डन टैंपल जाते हैं। रास्ते में हमेशा एक ही बात मेरे ज़हन में आती है कि ये अम्बरसर का पानी है जो यहां मैंने कभी किसी रिश्तेदार को खुशी के मौके पर नाक मुंह फुलाए नहीं देखा।    क्रमशः    ं 




Saturday 27 June 2020

अम्बरसरिया, अम्बरसरर्णी और चूड़ा, कलीरे अमृतसर यात्रा भाग 10 नीलम भागी Neelam Bhagi Churha Kaleerey Amritsar yatra Part 10



मोना को माइयां(हल्दी उबटन) रीति के अनुसार विवाह के दिन दोपहर तक किया गया। भात को यहां नानका छक कहते हैं। इसमें मामा नथ और चूड़ा लाता है। चूड़े को परात में कच्ची लस्सी(दूध मिला पानी) में रख देते हैं। बन्नी को नहीे दिखाते। शाम को पंडित जी मामा से सैंत कराता है। पूजा के बाद बन्नी को मामा चूड़ा और एक लोहे का कड़ा पहनाता है। इस कड़े के साथ वह कलीरा बांधता है। फिर सब रिश्तदारे कलीरे बांधते हैं। मैं तो उसके चहरे से टपकती खुशी के कारण, बन्नी का इस समय रूप देख कर हैरान थी। ऐसा चेहरे पर ग्लो कोई सौन्दर्य प्रसाधन नहीं ला सकता। अभी तो वही हल्दी तेल वाले कपड़े और बालों से भी चेहरे पर तेल चू रहा था पर वह बड़ी लावण्यमयी लग रही थी। 
 
लेकिन पंजाबी ब्राह्मण परिवार की बन्नी को हरे कांच की चूड़ियां पहनाई गईं थी। हरी चूड़िया देखते ही मैं समझ गई कि जीजा जी के पूर्वज पंजाब से बाहर के ब्राह्मण हैं पर अब तो पंजाबी ब्राहमण हैं अम्बरसरिये। इसके बाद बन्नी नहाने जाती है और उसका दुल्हन का मेकअप होता है। सप्तपदी के बाद भानजी की सास ने तुरंत उसे चूड़ा पहनाया ताकि वह पंजाबी दुल्हन लगे। भानजी की चूड़े वाली बांह देखते ही उसकी सास ने कहा कि जो भी घर में मुंह दिखाई के लिये आयेगा, उसे बताना नहीं पड़ेगा कि यह बहू है। उसकी दादी बोली," अब तुम्हारी बहू है जो मरज़ी पहनाओ।"
   लाल चूड़े का लॉजिक ये है कि पहले छोटी उम्र में लड़कियों की शादी होती थी। नये घर के तौर तरीके समझने में समय लगता है इसलिये जब तक चूड़ा बहू की बांह में है, उससे काम नहीं करवाया जाता था। अगर चूड़े का रंग उतर गया तो उस परिवार की बातें बनाई जातीं थीं कि बहू को आते ही चूल्हे चौंके में लगा दिया। सवा महीना या सवा साल बाद बहू मीठा बना कर चूड़ा बढ़ाती(उतारती) थी और सास गृहस्थी के काम, बहू को हस्तांतरित कर देती थी। दूसरी भानजी की शादी पर उसकी होने वाली सास ने कहा कि जयमाला ये चूड़ेवाली बाहों से डालेगी। दादी ने कहाकि कि हमारे यहाँ तो बेटी को हरे काँच की चूड़ियों में विदा करते हैं। समधन ने जवाब दिया कि हमारी होने वाली बहू तो चूड़ा पहनकर ही जयमाला पहनाती है। बेटी की शादी बहुत प्रतिष्ठित परिवार में हो रही थी। सब दादी को समझा रहे थे। वो तर्क दे रही कि कन्यादान यज्ञ होता है। पूर्वजों के नियम बदलने नहीं चाहिए। समझदार पंडित जी ने ऐसे मौके पर कहा कि शास्त्रों में विधान है कि नया रिवाज कुटुम्ब के साथ करो तो शुभ होता है। तुरंत कई जोड़े चूड़े के मंगाये गये।  पंडित जी के मंत्रों के साथ, बाल बच्चे वाली बहुओं ने भी चूड़े पहने। दादी बोलीं कि अब हमारे घर में बहू चूड़ा पहन कर आयेगी और बेटी चूड़ा पहन कर विदा होगी। वहाँ पता नहीं कोई वेदपाठी था या नहीं, पर पण्डित जी ने वेदों के नाम पर सब में समरसता पैदा कर दी थी। जब बॉलीवुड ने दुल्हन को चूड़े और कलीरे में दिखाया तो अब चूड़ा फैशन में आ गया है। जिनके यहां सैंत की रीति नहीं है, वे जब ब्यूटीपार्लर में ब्राइडल मेकअप के लिए जाती हैं। तो लिबास से मैचिंग कलर, लाल की कोई भी शेड का चूड़ा खरीद कर पहन लेतीं हैं। न्यूली मैरिड दिखना है तो पहन लिया, फिर बैंगल बॉक्स में रख लिया समय समय पर पहनने के लिए।
मेरी फेसबुक मित्र ममतेश भागी ने मेरे ग्रुप ’इरादा हिंदी का प्रचार’ में कमेंट किया है ’’मैं अक्सर पंजाब जाती हूं। लेकिन मैं अमृतसर सिर्फ एक बार गई। बहुत अपनापन है वहां। मेरी दादी सास अम्बरसर्णी थीं।
ममतेश जी मैं यहां जाने का कोई मौका नहीं छोड़ती। लॉकडाउन के कारण मैं अम्बरसर यात्रा लिख रहीं हूं। हमेशा यही सोच कर टाल जाती कि अगली बार जाउंगी तो लौटते ही लिखूंगी। क्रमशः 




Friday 26 June 2020

पतंगबाजी और लोहड़ी, मकर संक्रान्तिअमृतसर यात्रा भाग 9 नीलम भागी Amritsar Yatra Part 9 Neelam Bhagi Patang Bzi, Lohari




नीरज तिवारी अपनी पंतग को गुड़्डा लेकिन युवराज और शिवराज की पंतंगों को गुड्डी कह रहे थे। पहले तो मैंने गुड्डा गुड्डी में र्फक समझा। अम्बरसर में  छोटी पतंग को गुड्डी कहते हैं और बड़ी पतंग को गुड्डा कहते हैं। हल्की सर्दी की शुरुवात हो चुकी थी। घनी बसावट का, पतली पतली गलियां और एक दूसरे से मिली हुई छतों वाले अम्बरसर में सर्दी में धूप सेकने के साथ गुड्डी उड़ाई जाती है। लेकिन लोहड़ी को पतंगबाजी देखने लायक होती है। इस दिन छुट्टी होती है। बाजार बंद रहते हैं। पतंगबाज ठंड की परवाह किए बिना ही छतों पर पतंगबाजी शुरु कर देते हैं। जब तक सूरज निकलता है, तब तक तो आसमान गुड्डे, गुड़ियों से भर जाता है। छतों पर ही डी.जे., माइक लगा कर कमैंट्री चलती है। मसलन लाल गुड्डी दा चिट्टे गुड़डे नाल पेंचा लड़दा पेया। लाल गुड्डी आई बो।(लाल और सफेद पतंग का पेच लड़ रहा है। लाल पतंग कट गई)। आई बो के साथ ही शोर मचता है। कुछ गुड्डों पर पतंगबाज अपना नाम, अपनी गली मौहल्ले का नाम लिख कर उड़ाते हैं। शहर का नाम नहीं लिखते क्योंकि दस फीट का गुड्डा अम्बरसर से दूर नहीं जा सकता। कुछ की कोशिश ये रहती है कि जिसके लिए उन्होंने अपना नाम पता लिखा है। पतंग उसकी छत पर ही कटने पर गिरे। प्रेमी का अगर नसीब अच्छा होता है, तो हवा की दिशा, प्रेमिका के घर की ओर होती है। घरवालों को उनके खाने पीने की चिंता है तो छत पर पहुंचा दो, ये खा लेंगे वरना भूखे मुकाबला करते रहेंगे। लेकिन मोर्चा छोड़ कर नहीं जायेंगे, वहीं डटे रहेंगे। लटाई चर्खी पकड़ कर खड़े होने वाले को भी कुछ देर के लिए मांझा(डोर) उड़ती हुई पतंग की पकड़ाई जाती है। वह भी उसमें थोड़ी ढील देकर, थोड़ा डोर खींच कर अपने एक्शन का, पतंग पर रिएक्शन देखता है। जब उसकी हरकतें ज्यादा बढ़़ने लगतीं हैं तो उस्ताद जी उससे डोर झपट लेते हैं। पतंगबाजों में जैसा जोश सुबह के समय होता है। वैसा ही उत्साह सूरज डूबने पर भी होता है। अंधेरा होने पर कहीं कहीं पैराशूट भी उड़ाते हैं। लेकिन आजकल पतंगबाज हाथों और अंगुलियों में मैडिकल टेप चिपकाकर उड़ातें हैं। ताकि अंगुलियां न कटे।
शाम को सात आठ बजे के बीच में लोहड़ी जलाई जाती है। तब ये पतंगबाज नीचे उतरकर आते हैं। बाकि पतंगें मकर संक्रांति को उड़ाने के लिए। यहां पर परंपरा का पालन जरुर किया जाता है। रात को सरसों का साग और गन्ने के रस की खीर घर में जरुर बनती हैं, जिसे अगले दिन मकरसक्रांति को खाया जाता है। इसके लिए कहते हैं। ’पोह रिद्दी, माघ खादी’(पोष के महीने में बनाई और माघ के महीने में खाई) बाकि जो कुछ मरजी़ बनाओ। हमारा कृषि प्रधान देश है। फसल का त्यौहार हैैं। इस समय खेतों में गेहूं, सरसों, मटर और रस से भरे गन्ने की फसल लहरलहा रही होती है। गुड़ बन रहा होता है। चारों ओर गन्ने के रस पकने़ की महक होती है। आग जला कर अग्नि देवता को तिल चौली(चावल) गुड़ अर्पित करते हैं। परात में मूंगफली, रेवड़ी और भूनी मक्का के दाने, चिड़वा लेकर परिवार सहित अग्नि के चक्कर लगा कर थोड़ा अग्नि को लगा कर प्रशाद खाते और बांटतें हैं। नई बहू के घर में आने पर और बेटा पैदा होने पर उनकी पहली लोहड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। पार्टी भी की जाती है।  आग के पास ढोल पर डांस तो होना ही है। अगले दिन मकरसंक्राति को खिचड़ी और तिल का दान करते हैं और खिचड़ी खाई जाती है। खिचड़ी के साथ, घी, पापड़, दहीं, अचार होता है। स्वाद से खाते हुए बुर्जुग कवित्त बोलते हैं ’खिचड़ी तेरे चार यार, घी पापड़ दहीं अचार’। क्रमशः   



Jasbir Singh Bhagi
Ambarsariya deaa Tooklaa ( special type variety of Patang ) v bht maashoor Haan

Thursday 25 June 2020

र्दुग्याना मंदिर, लंगूरों का मेला, अमृतसर यात्रा भाग 8 नीलम भागी Durgyana Mandir Amritsar Yatra part 8 Neelam Bhagi



  चलते समय मासी जी ने कहा था कि नीलम तू अस्सू के नवरात्रों(शारदीय नवरात्र) में आई हैं। शाम भी हो रही है। र्दुग्याना मंदिर में लंगूरों का मेला देखती जाना। किसी से भी पूछ लेना लोगड़ चौक(लोहगढ़ गेट) वहां है। जब मैं पहुंची वहां तो ढोल, तासे कटोरे, बैण्ड बज रहे थे। श्रद्धालुओं की श्रद्धा और खुशी से वहां एक अलग सा माहौल बना हुआ था, जिसे लिखने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मुझे वहां इतना अच्छा लगा कि मैं जरा सी खाली जगह देख कर, वहीं जमीन पर बैठ 
गई। छोटे छोटे बच्चे लांगुर बने हुए थे। सब की एक सी ही लाल जरी की पोशाक थी। अब बच्चे हों और वो भी वानर सेना की तरह ड्रसअप हों और साथ ही म्यूजिक हो!! वे तो टिक ही नहीं सकते!! उनकी कोई न कोई एक्टिविटी चलती जा रही थी। जिसे सब बहुत एंज्वाय कर रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि झांकियां देखूं या लांगुरों की शैतानियां।   झांकियों के बाद लंगूर जाने लगे। अब मैंने पंडित जी से लांगूरों के बारे पूछा, उन्होंने बताया कि इस मंदिर का इतिहास रामायण काल से है। जब श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो लवकुश ने उनका घोड़ा पकड़ लिया था। उनसे हनुमान जी घोड़ा छुड़वाने आए तो लवकुश ने हनुमान जी को उस वट वृक्ष से बांध दिया था। सीता जी ने आकर उनको खुलवाया। पर हनुमान जी बच्चों (लवकुश) के मोह में बैठ गए। इसलिए यहां हनुमान जी की मूर्ति विश्राम मुद्रा में है। उस प्राचीन वट वृक्ष को आज भी ट्री गार्ड से सुरक्षित किया गया है। वहां पुत्र प्राप्ति के लिये या मनोकामना के लिए धागा बांधते हैं। मनोकामना पूरी होने पर लड़के को पहले, तीसरे, पांचवें साल में लंगूर बनाते हैं। शारदीय नवरात्रों के पहले दिन जिनका बेटा होता है। वे मन्नत पूरी करने देश विदेश से आते हैं। 
पंडित पूजा करके परिवार को चोला दे देते हैं जो दस दिन तक पहनना होता है, साथ में एक तीर(पतली सी छड़ी) होता है। पोशाक हनुमान जी के पैरों को छुआ कर लड़के को पहना देते हैं। इसमें दस दिन तक लंगूर और उसकी मां को बड़े नियम से रहना होता है। 
दोनों जमीन पर सोते हैं। चाकू से कटा नहीं खाना। किसी के घर का नहीं खाना। चप्पल नहीं पहननी। उन सब की एक सी पोशाक लाल और जरी की होती है। सब लंगूरों के हाथ में वही छड़ी होती है। दोनों समय मंदिर बड़े हनुमान जी को माथा टेकने आते हैं। दशहरे के दिन सब लंगूर रावण को तीर मारते हैं। रावण दहन के अगले दिन सुबह, र्दुग्याना मंदिर परिसर में ही शीतला माता का मंदिर है। चोला उतार कर वहां लंगूरों को नहलाया जाता है। 
अब नार्मल कपड़े पहन लेते हैं। पंडित जी झोली भरते हैं। 
लड़के के सेहरे लगाते हैं और अपने घर आ जाते हैं। डिम्पू ने अपने बेटे कनव को लगातार पांच साल लंगूर बनाया। मंदिर र्दुग्याना झील में संगर्ममर का बना बहुत ही साफ और खूबसूरत है। चांदी के दरवाजों की नक्काशी देखने लायक है। इसे लक्ष्मी नारायण मंदिर, बड़े हनुमान जी का मंदिर, लंगूरों वाला मंदिर, मां दुर्गा तो है ही इन नामों से मंदिर को पुकारते हैं। ये 16वीं सदी से है। मौजूदा मंदिर का निर्माण 1921 में गुरु साईंमल कपूर द्वारा किया गया। इसकी नींव पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने रखी थी। मंदिर समय में सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक दर्शन कर सकते हैं। नौएडा में नवरात्र के कीर्तन के समापन पर महिलाएं लांगुर का हंसी मजाक का गीत गातीं हैं और जमकर नाचती हैं ’’लांगूर ऐसे नाचे, जैसे लंका में नाचे हनुमान’’ और मेरी आंखों के आगे र्दुग्याना मंदिर में देखा लंगूरों का मेला आ जाता है। जिसमें लंगूर फूदक रहे थे। क्रमशः








Wednesday 24 June 2020

पुरानी बातों को कहने और सुनने का नशा !!अमृतसर यात्रा भाग 7 Amritsar yatra part 7 Neelam Bhagi नीलम भागी



उत्कर्षिनी को अमृतसर घूमने का बहुत शौक था क्योंकि उसे लग रहा था कि पता नहीं अगली बार प्रोग्राम बने तो उसके पेपर होंगे तो मां नहीं लायेगी। उसने तो आये मेहमानों के साथ ग्रुप बना लिया और सब मिल कर घूम आते, जब हम रस्मों रिवाजों में लगे होते। मुझे यहां बहुत अच्छा लग रहा था। लंच के बाद मैं मासी जी के पास आ जाती। वे पुरानी बाते ऐसे करतीं जैसे सब कुछ मेरे आने से पहले अभी घटा है। मासी जी के साथ एक अच्छी बात यह थी कि वे इस उमर में बहरी नहीं थीं। इसलिए मैं उनसे प्रश्न करती जाती थी। वे धीमी आवाज में मेरे प्रश्नों का जवाब देतीं जाती और मुझसे बतियाती रहतीं। मैंने पूछा,’’मासी जी पाकिस्तान बनने के पहले के अमृतसर और बाद के अमृतसर में क्या फर्क आया है? थोड़ी देर सोचते हुए मेरा मुंह देखती रहीं फिर बोलीं,’’बेटी मैं तो यहां की बहूं हूं। अपनी गली मौहल्ले के बारे में जानती हूं। यहां छतों से छतें मिली हुई हैं। सर्दियों में नीचे धूप आती नहीं है इसलिए सब छत पर धूप में बैठतीं हैं और सारे शहर की खबर एक दूसरे को रहती है। नीचे थड़ा(चबूतरा) है न, गर्मियों में वहां सब बैठतीं हैं। बैठने के लालच में सब जल्दी काम निपटाते हैं। मांजी(मासी की सास) शहर में जहां ले जातीं, वहां चले जाते थे। हां बटवारे के बाद जो वहां से लोग आए, उनकी जरुरतों और मजबूरी ने बहुत कुछ बदला। जैसे!! वे तो जान बचा कर आये थे। औरतों के शरीर पर जो जेवर था, वही उनका सहारा था। गृहस्थी में क्या नहीं चाहिए!! पर न उन्होंने भीख मांगी, न चोरी की। अब मासी आंखों देखा हाल बताने लगीं। तब गर्मियां थीं। देश आजाद हुआ था साथ में बंटवारा। आदमी काम की तलाश में या कुछ फड लगाते़ या फुटपाथ पर बेचने लग जाते। और घर की महिलाओं के लिए काम लाते। गोटे किनारी लगाना, काज बटनं, जो भी काम वे घर में बैठ कर सकतीं थीं, उनके लिए ले आते। जो कुछ भी नहीं जानती थीं वे खरबूजे, तरबूज, खीरे के बीज निकालती थीं। संपन्न घरों से आई इन महिलाओं ने 24 घण्टे का दिन, 36 घण्टे का कर दिया। सुबह जल्दी उठ कर, मंदिर गुरुद्वारे से आकर, घर के काम निपटा कर, ये अपने काम पर बैठ जातीं। कभी ये खाली नहीं दिखीं। सर्दियों में सुबह ये सूरज की पहली किरण के साथ, अपना काम और धुले हुए कपड़े लेकर छत पर आतीं, उन्हें फैला कर वही काम शुरु कर देतीं। हम लोगो का सारा समय घर गृहस्थी केे कामों में ही निकल जाता था। हमारे भी दिल में प्रश्न उठता ये भी तो घर के सब काम निपटाती हैं। मज़ाल है जो कभी इनका घर गंदा हो या ये मैले कपड़ों में हों। अब संगति का असर देखो, इन्हें देख कर सब में बदलाव आया। हमारा बड़ा परिवार, गाय भी पाली हुई थी। सब काम निपटाती, बच्चों को पढ़ने का समय देती और नई नई चीजें भी सीखती। इनमें से जो बिजनेस करने लगे, वे सफल व्यापारी हैं जो पढ़ाई में लगे, वे वहां भी सफल रहे। बच्चों ने मॉडल टाउन वगैरहा में कोठियां बना लीं हैं। लेकिन अधिकतर घरों के बर्जुग यहीं रहते हैं। वो नहीं जाते। कहते हैं यहां से सब कुछ पास हैं, जो खाने का मन हो, जाओ ले आओ। सर्दियों में छत पर धूप में बतियाना, गर्मियों में नीचे के कमरे एकदम ठंडे और बाहर थड़े(चबूतरे) पर बैठना। वो कोठियों में कहां नसीब होगा!! बच्चे गाड़ी भेज देते हैं। उनके घर विजिट कर आते हैं। 

इनका मानना है कि यहां अपना काम खुद करने से ये ठीक हैं। वहां जाकर इनके हाथ पैर रह जायेंगे। आपस में पार्टीं भी करतीं हैं। मैं चार दिन के लिए आई थी। दोपहर मासी जी के पास बतियाती। कहीं पढ़़ा था कि पंजाबी लोकगीत पंजाबियों के दिल की तरह विशाल होते हैं इसलिए अब गुड़डी के घर होने वाली रस्में देखूंगी , लोकगीत सुनूंगी और नये आने वाले रिश्तेदारों से मिलूंगी। इसलिए चल दी। मैंने सोच लिया था कि यहां आने का कोई मौका नहीं छोड़ूंगी। पर्यटन स्थल तो वहीं रहेंगे, जो छूट जायेंगे फिर आउंगी उन्हें देखने। क्रमशः