उत्कर्षिनी को अमृतसर घूमने का बहुत शौक था क्योंकि उसे लग रहा था कि पता नहीं अगली बार प्रोग्राम बने तो उसके पेपर होंगे तो मां नहीं लायेगी। उसने तो आये मेहमानों के साथ ग्रुप बना लिया और सब मिल कर घूम आते, जब हम रस्मों रिवाजों में लगे होते। मुझे यहां बहुत अच्छा लग रहा था। लंच के बाद मैं मासी जी के पास आ जाती। वे पुरानी बाते ऐसे करतीं जैसे सब कुछ मेरे आने से पहले अभी घटा है। मासी जी के साथ एक अच्छी बात यह थी कि वे इस उमर में बहरी नहीं थीं। इसलिए मैं उनसे प्रश्न करती जाती थी। वे धीमी आवाज में मेरे प्रश्नों का जवाब देतीं जाती और मुझसे बतियाती रहतीं। मैंने पूछा,’’मासी जी पाकिस्तान बनने के पहले के अमृतसर और बाद के अमृतसर में क्या फर्क आया है? थोड़ी देर सोचते हुए मेरा मुंह देखती रहीं फिर बोलीं,’’बेटी मैं तो यहां की बहूं हूं। अपनी गली मौहल्ले के बारे में जानती हूं। यहां छतों से छतें मिली हुई हैं। सर्दियों में नीचे धूप आती नहीं है इसलिए सब छत पर धूप में बैठतीं हैं और सारे शहर की खबर एक दूसरे को रहती है। नीचे थड़ा(चबूतरा) है न, गर्मियों में वहां सब बैठतीं हैं। बैठने के लालच में सब जल्दी काम निपटाते हैं। मांजी(मासी की सास) शहर में जहां ले जातीं, वहां चले जाते थे। हां बटवारे के बाद जो वहां से लोग आए, उनकी जरुरतों और मजबूरी ने बहुत कुछ बदला। जैसे!! वे तो जान बचा कर आये थे। औरतों के शरीर पर जो जेवर था, वही उनका सहारा था। गृहस्थी में क्या नहीं चाहिए!! पर न उन्होंने भीख मांगी, न चोरी की। अब मासी आंखों देखा हाल बताने लगीं। तब गर्मियां थीं। देश आजाद हुआ था साथ में बंटवारा। आदमी काम की तलाश में या कुछ फड लगाते़ या फुटपाथ पर बेचने लग जाते। और घर की महिलाओं के लिए काम लाते। गोटे किनारी लगाना, काज बटनं, जो भी काम वे घर में बैठ कर सकतीं थीं, उनके लिए ले आते। जो कुछ भी नहीं जानती थीं वे खरबूजे, तरबूज, खीरे के बीज निकालती थीं। संपन्न घरों से आई इन महिलाओं ने 24 घण्टे का दिन, 36 घण्टे का कर दिया। सुबह जल्दी उठ कर, मंदिर गुरुद्वारे से आकर, घर के काम निपटा कर, ये अपने काम पर बैठ जातीं। कभी ये खाली नहीं दिखीं। सर्दियों में सुबह ये सूरज की पहली किरण के साथ, अपना काम और धुले हुए कपड़े लेकर छत पर आतीं, उन्हें फैला कर वही काम शुरु कर देतीं। हम लोगो का सारा समय घर गृहस्थी केे कामों में ही निकल जाता था। हमारे भी दिल में प्रश्न उठता ये भी तो घर के सब काम निपटाती हैं। मज़ाल है जो कभी इनका घर गंदा हो या ये मैले कपड़ों में हों। अब संगति का असर देखो, इन्हें देख कर सब में बदलाव आया। हमारा बड़ा परिवार, गाय भी पाली हुई थी। सब काम निपटाती, बच्चों को पढ़ने का समय देती और नई नई चीजें भी सीखती। इनमें से जो बिजनेस करने लगे, वे सफल व्यापारी हैं जो पढ़ाई में लगे, वे वहां भी सफल रहे। बच्चों ने मॉडल टाउन वगैरहा में कोठियां बना लीं हैं। लेकिन अधिकतर घरों के बर्जुग यहीं रहते हैं। वो नहीं जाते। कहते हैं यहां से सब कुछ पास हैं, जो खाने का मन हो, जाओ ले आओ। सर्दियों में छत पर धूप में बतियाना, गर्मियों में नीचे के कमरे एकदम ठंडे और बाहर थड़े(चबूतरे) पर बैठना। वो कोठियों में कहां नसीब होगा!! बच्चे गाड़ी भेज देते हैं। उनके घर विजिट कर आते हैं।
इनका मानना है कि यहां अपना काम खुद करने से ये ठीक हैं। वहां जाकर इनके हाथ पैर रह जायेंगे। आपस में पार्टीं भी करतीं हैं। मैं चार दिन के लिए आई थी। दोपहर मासी जी के पास बतियाती। कहीं पढ़़ा था कि पंजाबी लोकगीत पंजाबियों के दिल की तरह विशाल होते हैं इसलिए अब गुड़डी के घर होने वाली रस्में देखूंगी , लोकगीत सुनूंगी और नये आने वाले रिश्तेदारों से मिलूंगी। इसलिए चल दी। मैंने सोच लिया था कि यहां आने का कोई मौका नहीं छोड़ूंगी। पर्यटन स्थल तो वहीं रहेंगे, जो छूट जायेंगे फिर आउंगी उन्हें देखने। क्रमशः
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