चलते समय मासी जी ने कहा था कि नीलम तू अस्सू के नवरात्रों(शारदीय नवरात्र) में आई हैं। शाम भी हो रही है। र्दुग्याना मंदिर में लंगूरों का मेला देखती जाना। किसी से भी पूछ लेना लोगड़ चौक(लोहगढ़ गेट) वहां है। जब मैं पहुंची वहां तो ढोल, तासे कटोरे, बैण्ड बज रहे थे। श्रद्धालुओं की श्रद्धा और खुशी से वहां एक अलग सा माहौल बना हुआ था, जिसे लिखने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मुझे वहां इतना अच्छा लगा कि मैं जरा सी खाली जगह देख कर, वहीं जमीन पर बैठ
गई। छोटे छोटे बच्चे लांगुर बने हुए थे। सब की एक सी ही लाल जरी की पोशाक थी। अब बच्चे हों और वो भी वानर सेना की तरह ड्रसअप हों और साथ ही म्यूजिक हो!! वे तो टिक ही नहीं सकते!! उनकी कोई न कोई एक्टिविटी चलती जा रही थी। जिसे सब बहुत एंज्वाय कर रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि झांकियां देखूं या लांगुरों की शैतानियां। झांकियों के बाद लंगूर जाने लगे। अब मैंने पंडित जी से लांगूरों के बारे पूछा, उन्होंने बताया कि इस मंदिर का इतिहास रामायण काल से है। जब श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ किया तो लवकुश ने उनका घोड़ा पकड़ लिया था। उनसे हनुमान जी घोड़ा छुड़वाने आए तो लवकुश ने हनुमान जी को उस वट वृक्ष से बांध दिया था। सीता जी ने आकर उनको खुलवाया। पर हनुमान जी बच्चों (लवकुश) के मोह में बैठ गए। इसलिए यहां हनुमान जी की मूर्ति विश्राम मुद्रा में है। उस प्राचीन वट वृक्ष को आज भी ट्री गार्ड से सुरक्षित किया गया है। वहां पुत्र प्राप्ति के लिये या मनोकामना के लिए धागा बांधते हैं। मनोकामना पूरी होने पर लड़के को पहले, तीसरे, पांचवें साल में लंगूर बनाते हैं। शारदीय नवरात्रों के पहले दिन जिनका बेटा होता है। वे मन्नत पूरी करने देश विदेश से आते हैं।
पंडित पूजा करके परिवार को चोला दे देते हैं जो दस दिन तक पहनना होता है, साथ में एक तीर(पतली सी छड़ी) होता है। पोशाक हनुमान जी के पैरों को छुआ कर लड़के को पहना देते हैं। इसमें दस दिन तक लंगूर और उसकी मां को बड़े नियम से रहना होता है।
दोनों जमीन पर सोते हैं। चाकू से कटा नहीं खाना। किसी के घर का नहीं खाना। चप्पल नहीं पहननी। उन सब की एक सी पोशाक लाल और जरी की होती है। सब लंगूरों के हाथ में वही छड़ी होती है। दोनों समय मंदिर बड़े हनुमान जी को माथा टेकने आते हैं। दशहरे के दिन सब लंगूर रावण को तीर मारते हैं। रावण दहन के अगले दिन सुबह, र्दुग्याना मंदिर परिसर में ही शीतला माता का मंदिर है। चोला उतार कर वहां लंगूरों को नहलाया जाता है।
अब नार्मल कपड़े पहन लेते हैं। पंडित जी झोली भरते हैं।
लड़के के सेहरे लगाते हैं और अपने घर आ जाते हैं। डिम्पू ने अपने बेटे कनव को लगातार पांच साल लंगूर बनाया। मंदिर र्दुग्याना झील में संगर्ममर का बना बहुत ही साफ और खूबसूरत है। चांदी के दरवाजों की नक्काशी देखने लायक है। इसे लक्ष्मी नारायण मंदिर, बड़े हनुमान जी का मंदिर, लंगूरों वाला मंदिर, मां दुर्गा तो है ही इन नामों से मंदिर को पुकारते हैं। ये 16वीं सदी से है। मौजूदा मंदिर का निर्माण 1921 में गुरु साईंमल कपूर द्वारा किया गया। इसकी नींव पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने रखी थी। मंदिर समय में सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक दर्शन कर सकते हैं। नौएडा में नवरात्र के कीर्तन के समापन पर महिलाएं लांगुर का हंसी मजाक का गीत गातीं हैं और जमकर नाचती हैं ’’लांगूर ऐसे नाचे, जैसे लंका में नाचे हनुमान’’ और मेरी आंखों के आगे र्दुग्याना मंदिर में देखा लंगूरों का मेला आ जाता है। जिसमें लंगूर फूदक रहे थे। क्रमशः
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