24 मार्च को सुबह 6 बजे हमारी बस पोखरा से चल पड़ी थीं। खूबसूरत, साफ सुथरा पोखरा छूटता जा रहा था और अन्नपूर्णा रेंज से आंखें नहीं हट रहीं थीं। अशोक गर्ग(फरीदाबाद) ने बस में प्रार्थना शुरु की सहयात्रियों ने समवेत स्वर में साथ दिया। बाहर अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य है और बस में सबकी श्रद्धा से गाए जा रहे भजन अजब सा समां बांध रहे हैं। रास्ते में कांडे, कुस्मा, नागडाँडा, टिकुर पोखरी, लुम्ले, डिमुग, कुरुव, बाग्लुड, धौलगिरि प्रवेश द्वार, सहस्रधारा आदि छोटे गांव व कस्बे थे जिनमें खाजाघर यानि रेस्टोरैंट और रेजिडेंस आराम से मिल जाता है। हमारा एक रुपया नेपाली 1.60 के बराबर है। इसलिए खुद से यात्रा करें तो बीच में कहीं पर भी रुक सकते हैं। यहां व्यापार के नाम शालिग्राम, गंडकी, मुक्तिनाथ आदि है। किसी सवारी को बहुत प्रैशर बन रहा था। गुप्ता जी बार बार आकर राजू को कह रहे कि दोे मिनट के लिए कहीं भी गाड़ी रोक दे। उसने कहा था कि 20 मिनट के बाद रोकेगा। 20 मिनट बाद पैट्रोल पम्प पर रोकी। जिनको फ़ारिग होना था, हो लिए। 200 किमी की इस यात्रा में 75% ऑफ रोड यात्रा है। बराबर में पवित्र काली गंडकी नदी बहती है। इसे कृष्णा गंडकी भी कहते हैं। देखने में ऐसा लगता है जैसे काला पानी बह रहा हो। इसमें शालिग्राम पाए जाते हैं काली रेत के कारण इसका नाम काली गंडकी है। अब गुप्ता जी फिर आकर राजू से कहने लगे कि महिलाओं का कहना है कि किसी ऐसी जगह बस रोक दो जहां वे काली गंडकी को प्रणाम करके अपने ऊपर उसके पवित्र जल के छिटे मार लें। वो बस हां हूं करता जाता। ये पहली बार इस मार्ग पर जा रहे थे इसलिए पीछे से संदेशा लाते और राजू को कह देते। लेकिन राजू पूरी ध्यान concentration से ड्राइविंग करता रहता। सुनकर मुझे हंसी आ जाती क्योंकि यहां नदी के किनारे कोई घाट तो बना नहीं था ऊँचाई से पानी तक पहुंचने में गोल गोल पत्थरों से जाना पड़ता और ऐसा करने पर नदी में गिरना तो लाज़मी था। आगे की मेरी सीट थी मुझे सब दिख रहा था।https://youtu.be/iLSeNvxs9Tg
ये रास्ता पथरीला नहीं था। पहाड़ से कहीं से भी झरना फूट जाता और जो सड़क बनाने के लिए मिट्टी डाली गई होती है वो ध्ंास जाती है और गई बार इसमें कोई गाड़ी भी धस जाती है जब तक उसे निकाला नहीं जाता है। तब तक जाम लगा रहता है। अब गुप्ता जी फिर राजू को कहने आए कि कहीं गाड़ी रोक दो। सुबह 5 बजे निकलना था इसलिए सबने सिर्फ चाय बिस्कुट खा रखें हैं। अब पूरी सब्ज़ी खा लेंगे और चाय भी पी लेंगें। उसने जबाब दिया कि गाड़ी गलेश्वर महादेव धाम पर रुकेगी। इस तीर्थ के बारे में तो गुप्ता जी को भी नहीं पता था। यहां तो राजू के लिए साधुवाद! यह सुनते ही मन एकदम खुश हो गया। थोड़ा आगे बढ़ने पर यहां जाम लगा हुआ था। नाज़िर और जू0 राजू माज़रा देखने गए। एक गाड़ी पानी में धंसी हुई थी। इस समय 9 बजे थे। शुक्र है 9.40 पर उसे निकाल लिया गया। और गाड़ियां चलने लगीं। मैंने देखा नेपाली लोग हमेशा मदद को तैयार रहते हैं। उस गाड़ी के निकलते ही आस पास के लोगों ने गढ्डे में पत्थर भरने शुरु किए और हमारी गाड़ी निकली।
पीछे की तीनों गाड़ियां निकलने पर नाज़िर और जू0. राजू धीमी चलती बस पर चढे़। नाज़िर ने आते ही मुझे बताया कि अभी एक आदमी मरते हुए बचा वो गाड़ी के नीचे टचन निकाल रहा था। ड्राइवर ने गाड़ी र्स्टाट कर दी बस एक इंच का फर्क रह गया था। नाज़िर भी पहली बार मुक्तिनाथ जा रहा था। महिलाओं ने जो साथ लायीं थी उसे खाया और दर्शन गर्ग बोलीं,’’बगल में तोशा, किसका भरोसा।’’ मैंने उनसे मतलब समझा तो उन्होंने बताया कि इसका अर्थ है कि सफर में अपने पास खाने को जरुर होना चाहिए। अचानक राजू ने गाड़ी चलाते हुए जोर से जयकारा लगाया,’’बोलो, काली गंडकी मैया की।’’सबने ’जय’ बोला और हमने काली गंडकी नदी पार की। बेनी बाजार से दूर कुछ ही समय बाद हम गलेश्वर महादेव पहुंच गए। क्रमशः
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